आत्मज्ञानी महात्मा लोक-विमुख होकर निर्जन में दोनों आँखें बंद करके परमात्म-ध्यान में लीन थे। तभी चरणों पर स्पर्श के साथ ‘त्राहि माम’ की आवाज ने उनका ध्यान भंग कर दिया। उन्होंने धीरे-धीरे आँखें खोलीं तो पाया कि सामने मैले-कुचैले वस्त्र पहने एक साया भूलुंठित पड़ा है। उसके बाल, नाखून आदि बेतरतीबी से बढ़े हुए थे, कपड़े गंदे और जगह-जगह से आते हुए थे, जैसे काफी दिनों से वह साफ-सुथरा नहीं हुआ हो। वह सुखकर काँटा कि तरह हो गया था और होठों पर पपड़ियाँ पड़ी थीं, मानो वह बहुत दिनों से भूखा और प्यासा हो। उसे इस हाल में देखकर सांसारिक प्रपंचों से मुख मोड़े हुए महात्मा के मन में भी उसके प्रति दया उत्पन्न हो गई। उन्होंने पूछा – ‘तुम कौन हो?’
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