गाँव से आए भोले-भाले माधो को अस्पताल में अपने-आप विकसित हो गए इस व्यवसाय-तंत्र का तो पता ही नहीं था। जाँच कराने में सहायता करने वाले जिस लड़के को, दवा की दूकान दिखाने वाले जिस सज्जन को और डॉक्टर का पता बतानेवाले जिस आदमी को वह देवदूत समझ रहा था, वास्तव में वे सारे अपने-अपने धंधे के एजेंट थे, जो अस्पताल के परिसर में ही दिन भर घूम-घूमकर भोले-भाले मरीजो को बहला-फुसलाकर ले जाने का धंधा करते थे, जिसके लिए उन्हें कमीशन मिलता था। अस्पताल की निःशुल्क व्यवस्था के समानांतर विकसित यह कमीशन-तंत्र प्रशासन की ऐच्छिक अनदेखी के कारण खूब फल-फूल रहा था। माधो-जैसे लोग ही उनके लक्ष्य होते थे, जो आसानी से उनके जाल में फँसते भी थे और ऊपर से उन्हें दुआएँ भी देते थे।
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