सच्चिदानंद सिन्हा की जिंदगी का अधिकांश हिस्सा समाजवादी विचारधारा के नाम रहा। 98 वर्ष तक की जिंदगी जी लेने के बाद वो अब इस दुनिया में नहीं रहे। स्कूल की पढ़ाई से लेकर ज़िंदगी के अंत-अंत तक वो समाजवादी सिद्धांतों को धरातल पर उतारने के लिए संघर्षरत थे। उनका समाजवाद आज की भांति न तो सत्ता का समाजवाद था और न ही जनकल्याण के नाम पर परिवारवादी राजनीति का समाजवाद। उन्होंने जिस समाजवादी चिंतन की परंपरा स्थापित करने का प्रयास किया, उसमें सांप्रदायिक एवं पूंजीवादी शक्तियों के साथ गठजोड़ के लिए कोई जगह नहीं थी। ऐसे भी बिहार समाजवादी क्रांति की उर्वर भूमि है, जिसे वर्तमान सत्ता की राजनीति ने दूषित कर दिया है। इस परिप्रेक्ष्य में भी यदि उनका मूल्यांकन किया जाय तो सच्चिदानंद सिन्हा सच्चे समाजवादियों के लिए प्रेरक की भूमिका अदा करते दिख जाएंगे। उन्होंने समाजवादी राजनीति के नाम पर पहचान की राजनीति पर अपने लेखन में कड़ा प्रहार किया है। लेकिन, दुर्भाग्य है समाजवादी चिंतन का, जिसने उनकी दिए गए सिद्धांतों को अब भी गौण ही रखा। जबकि, विदेशी लेखक भारतीय समाजवाद को समझने के लिए उनके लेखन को उद्धृत करते हैं।
समाजवादी चिंतन की प्रेरणा
सच्चिदानन्द सिन्हा समाजवाद के सिद्धांतों को बचपन से ही अपने घर में देख-देखकर बड़े हुए। उनके परिवार में उनके पिता एवं नाना दोनों भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सच्चे सिपाही थे, जो स्वतंत्रता आंदोलन में जेल भी गए और बाद में चल के दोनों विधायक बने। सच्चिदा बाबू ने एक जगह लिखा है कि जब ब्रिटिश सिपाही उनके नाना को पकड़ने के लिए घर में खोज रहे थे तो वो अपने मामा के साथ छुप के देख रहे थे। इसी घटना ने उन्हें प्रेरित किया और वो बचपन में ही 1942 कि क्रांति में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पर्चों को आम लोगों तक पहुंचाने लगे। इसके साथ ही वो जयप्रकाश नारायण एवं राम मनोहर लोहिया से गहरे स्तर पर संपृक्त थे। जेपी की चिट्ठी ए लेटर्स टू ऑल फ्रीडम फाइटर्स एवं लोहिया कि रचना रिबेलस मस्ट एडवांस का उनके मानसिक पटल पे गहरा प्रभाव था। 1945 में जब पटना में कॉंग्रेस के अधिवेशन में उन्होंने पंडित जवाहर लाल नेहरू को सुना तो उसका इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि वे पटना विश्वविद्यालय के छात्र काँग्रेस में शामिल हो गए। उसी समय आजाद हिन्द फौज के तीन जनरलों को फांसी की सजा सुनाई गई तो उसके खिलाफ इन्होंने अपने कॉलेज के एक्जाम की कॉपी फाड़कर परीक्षा का बहिष्कार कर दिया।
बी.एस.सी. के फर्स्ट ईयर की समाप्ति के पहले इन्होंने तय कर लिया कि अब पढ़ाई नहीं करनी है और मजदूरों के हित की लड़ाई लड़नी है। इसके कारण बसावन सिंह, जो उस समय सोशलिस्ट पार्टी के मजदूर संगठनों के प्रभारी थे, उनसे सलाह-मशविरा के बाद हजारीबाग चले गए। वहाँ वे कोयला खदान मजदूरों के संगठन में काम करने लगे। एक साल के बाद सोशलिस्ट पार्टी ने उन्हें पटना वापस बुला लिया। पटना में ही सोशलिस्ट पार्टी के अखबार ब्लिट्ज का लेख पढ़ने के बाद उन्होंने निर्णय लिया कि समाजवादी आंदोलन को पत्रकारिता के माध्यम आगे बढ़ाया जा सकता है। फिर वो पत्रकारिता का कोर्स करने बंबई चले गए और एक साल का कोर्स करने के बाद वहीं मजदूर सभा में हॉलटाइमर बन गए। इसी दौरान डॉ भीमराव अंबेडकर जब चुनाव लड़ रहे थे तो उनके चुनाव में प्रचार भी करने लगे। वहाँ भी वे अशोक मेहता के उस निर्णय का विरोध करने लगे कि समजवादियों को कॉंग्रेस का सहयोग करना चाहिए। इस प्रकार वो एक मिलिटेन्ट सोशलिस्ट के रूप में उभरे। अशोक मेहता ने नाराज होकर इनको होलटाइमर के पद से हटा दिया। इसके बाद उनको बंबई में रहने और खाने की दिक्कत हो गई। इन्होंने वहाँ रेलेवे में खलासी का काम करना शुरू कर दिया और कुछ महीनों बाद एक डॉक में क्लर्क की नौकरी करने के साथ-साथ बॉम्बे पोर्ट ट्रस्ट जनरल वर्कर्स यूनियन में सक्रिय रहे। 1956 में डॉ लोहिया ने उनको मैन्काइन्ड पत्रिका में काम करने लिए हैदराबाद बुला लिया। वहाँ उनका स्वास्थ्य खराब हो गया और वो वापस फिर से पटना आ गए। बिहार में वो सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के चुनाव अभियान का हिस्सा बन के मुज़फ्फरपुर में स्थायी रूप से बस गए। यहाँ पर वे जॉर्ज फर्नांडीस के लोकसभा चुनाव में उम्मीदवारी का पर्चा भी भरे, क्योंकि 1977 में जॉर्ज फर्नांडीस मिसा कानून के तहत जेल में थे।
सच्चिदानंद सिन्हा का रचना संसार
सच्चिदानंद सिन्हा महज एक समाजवादी कार्यकर्ता नहीं थे, बल्कि वो एक लेखक और चिंतक भी थे। भले, भारतीय अकादमिक जगत अपने वर्गीय स्वरूप के कारण उनके लेखन से अछूता हो। लेकिन, दुनिया के जाने-माने समाजवादी चिंतकों के रूप में उनकी एक पहचान है। उनका रचना संसार इतना विस्तृत है कि उसके अंदर, राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र एवं सौन्दर्य शास्त्र समाहित है। उन्होंने न केवल वर्तमान समस्याओं का अपने लेखन में समाधान तलाशने का प्रयास किया है, बल्कि स्थापित विचारधाराओं की भी निर्मम समीक्षा की है। उनकी प्रमुख रचनाएं सोशलिज्म एंड पॉवर, इंटरनल कॉलोनी, इमरजेंसी इन पर्सपेक्टिव, परमानेंट क्राइसिस ऑफ इंडिया, बिटर हॉर्वेस्ट, केयॉस एंड क्रिएशन, कास्ट सिस्टम, अनआर्म्ड प्रॉफेट, कोएलिशन इन पॉलिटिक्स, एडवेंचर्स आफ लिबर्टी, जिंदगी सभ्यता के हाशिए पर, उपभोक्तावादी संस्कृति, मार्क्सवाद को कैसे समझें, प्रकाशित हुई है। उनके लेखन में उनका अनुभवजनित सत्य लिखा गया है। वे चार भाषाओं के जानकार थे – हिन्दी, अंग्रेजी, जर्मन एवं फ्रेंच भाषा।
सच्चिदा जी के समग्र लेखन में एक अंतर्दृष्टि मिलती है। इस दृष्टि का निर्माण समानता, लोकतंत्र, विकेन्द्रीकरण, व्यक्ति-स्वातंत्र्य, अहिंसा, श्रमशीलता, अपरिग्रह, सह-अस्तित्व और बेशक, नैतिकता जैसे मूलभूत मूल्यों से हुआ है। ये सभी मूल्य उनके लेखन के केंद्र में हैं, जिनके आधार पर वे विकास और जीवन-पद्धति के पूँजीवादी मॉडल की समीक्षा करते हैं और मानव सभ्यता के वर्तमान और भविष्य के लिए समाजवादी विकल्प प्रस्तुत करते हैं। विशिष्ट बात यह है कि उन्होंने अपने जीवन में भी इन मूल्यों का निर्वहण किया है। वे किसी विश्वविद्यालय अथवा शोध-संस्थान से जुड़े नहीं रहे हैं। आजादी के आंदोलन में हिस्सेदारी करने के चलते उन्होंने स्कूली शिक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ दी थी। उनका कोई निजी पुस्तकालय भी नहीं रहा है। न ही उनका कोई निश्चित प्रकाशक रहा है। वे पुरस्कार भी स्वीकार नहीं करते हैं। एक बार सच्चिदा जी ने भारत में बुद्धिजीवियों की सुविधाओं और आराम की बढ़ती माँग को लक्ष्य करके कहा था कि ब्रिटिश काल में अकादमिक और शोध का काम करनेवाले अंग्रेज अधिकारी अपनी छुट्टियों के समय में बिना विशेष सुविधाओं के दूर-दराज इलाकों की यात्राएँ करते थे। सच्चिदाजी गांधी की तरह मानते प्रतीत होते हैं कि मनुष्य का जीवन भोग के लिए नहीं है, मूलत: विचार के लिए है, जिसकी क्षमता कुदरत ने केवल मनुष्य को दी है।
उनकी पहली बड़ी किताब, सोशलिज्म एंड पावर में सच्चिदा जी ने समाजवादी विचार-परंपरा की रूढ़ियों की पड़ताल का काम जारी रखा। अपने ज्यादातर सहकर्मियों की तुलना में सच्चिदा जी के मन में कार्ल मार्क्स के प्रति कहीं ज्यादा सम्मान का भाव है, लेकिन उन्होंने बड़े उद्योगों, बड़े शहरों और पूंजी-प्रधान तकनीक के प्रति मार्क्स की अतिशय आस्था को लेकर उसकी आलोचना भी की है। सच्चिदा जी के मुताबिक यह रास्ता क्रांति की तरफ नहीं ले जाता, बल्कि यह वही रास्ता है जिस पर चलकर आर्थिक और राजनीतिक सत्ता चंद हाथों में सिमट जाती है और यही रास्ता संयुक्त सोवियत सोशलिस्ट गणराज्य के विघटन और चीन में राज्य-प्रायोजित पूंजीवाद के उद्भव का कारण बना। सच्चिदा जी की एक किताब का नाम है पूंजी का अंतिम अध्याय, जिसमें उन्होंने मार्क्स के सर्वोत्कृष्ठ ग्रंथ दास कैपिटल के तर्कों का विस्तार किया है और आप चाहें तो इसे दास कैपिटल के अलिखित चौथे खंड के रूप में देख सकते हैं। सच्चिदा जी के भीतर बैठा राजनीतिक कार्यकर्ता चीजों को सिर्फ आलोचना की आंख से नहीं देखता, बल्कि समाधान भी बताता है। उनकी किताब सोशलिज्म: ए मेनिफेस्टो फॉर सर्ववाइल हमारे अपने युग के लिए समाजवाद का रेखांकन करती है। सच्चिदा जी ने समाजवाद का जो संस्करण तैयार किया है, उसमें विकेंद्रित लोकतंत्र, परिवेश के अनुकूल प्रौद्योगिकी, गैर-उपभोक्तावादी जीवन-शैली, पर्यावरणीय टिकाऊपन और पूंजी के ऊपर श्रम बल की प्रधानता के लिए जगह है। अपने इस रूप में समाजवाद ऐसा नहीं रह जाता मानो 20वीं सदी की विचारधाराओं में से किसी एक का अवशेष हो, बल्कि एक ऐसी शय बन जाता है, जिसमें 20वीं सदी से सीखने लायक तमाम चीजों का संश्लेष हो।
इस प्रकार अगर उनके रचना संसार को देखा जाए तो वो उस सिद्धांत को चुनौती देते हैं कि भारत में जाति व्यवस्था अपरिवर्तनशील है। उन्होंने पौराणिक मिथकों को तोड़ने का प्रयास किया। बिहार के पिछड़ेपन के लिए वो पूंजीवादी व्यवस्था को जिम्मेवार मानते है और उनका ये भी मानना है कि इस व्यवस्था के तहत बिहार का विकास संभव नहीं है। इस व्यवस्था से मानव का कल्याण नहीं हो सकता। अंत में समाजवादियों के लिए वो एक वैकल्पिक मार्ग का निर्माण करते हैं, जिसके सहारे ही मानव मुक्ति संभव है।

सी. वी. रमन यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक हैं।
