बिहार का पलायन : एक बड़ा चुनावी सवाल

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 ऐसे समय पर हो रहे हैं जब युवाओं का पलायन राज्य के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन चुका है। लाखों लोग रोज़गार और बेहतर अवसर की तलाश में बाहर जा चुके हैं, जिससे गांव और कस्बे खाली होते जा रहे हैं। यह चुनाव इस सवाल का सामना करेगा कि क्या राजनीति अब सच में रोजगार और विकास को केंद्र में रखेगी, या फिर बिहार एक बार फिर पीछे छूट जाएगा।

बिहार में नवंबर 2025 में विधानसभा चुनाव होने हैं। यह समय है जब राज्य के सबसे बड़े और पुराने संकट—युवाओं का बड़े पैमाने पर बाहर जाना—पर खुलकर चर्चा होनी चाहिए। देश के स्तर पर घरेलू पलायन लगभग 12% घटा है, लेकिन बिहार आज भी सबसे ज़्यादा लोग बाहर भेजने वाला राज्य है। जनगणना 2011 के आँकड़ों के हिसाब से राज्य की करीब 7.2% आबादी यानी 74.54 लाख लोग दूसरे राज्यों में पलायन कर चुके हैं, जिनमें 22.65 लाख लोगों के पलायन का मुख्य कारण रोज़गार की तलाश रहा है। 2021 के आँकड़ों के अनुसार, देश भर में 39% प्रवासियों ने रोजगार को ही मुख्य कारण बताया। पहली नज़र में बिहारी युवाओं का पलायन भले ही समझदारी भरा विकल्प लगता हो, ख़ासकर जब स्थानीय रोज़गार की कमी हो; मगर समय के साथ इसके सामाजिक असर काफी गहरे और नुकसानदेह होते हैं।

नीतिगत चूक का इतिहास

बिहार से पलायन की परंपरा पुरानी है, लेकिन 1990 के दशक के बाद व्यापक और स्थायी प्रवाह एक गम्भीर नीतिगत विफलता का संकेत देता है। उस समय जब पूरे देश में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण (LPG) की शुरुआत हुई, कई राज्यों ने निवेश आकर्षित करने और नई नौकरियां पैदा करने के लिए शिक्षा और उद्योग पर ज़ोर दिया। दक्षिण भारत के राज्यों ने आईटी सेक्टर को बढ़ावा दिया, इंजीनियरिंग कॉलेज खोले और कंप्यूटर शिक्षा को अपनाया।

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इसके उलट बिहार में राजनीतिक नेतृत्व ने इन बदलावों को नज़रअंदाज़ किया। उस दौर में चरवाहा विद्यालय जैसे प्रयोग किए गए और कंप्यूटर शिक्षा को संदेह की नज़र से देखा गया। 2000 में लालू प्रसाद यादव का बयान—“आईटी से बेरोज़गारी बढ़ती है, कंप्यूटर में रखा ही क्या है”—आज भी चर्चा में रहता है। इसी सोच ने बिहार को उस समय नई अर्थव्यवस्था से जोड़ने का मौका गंवा दिया। नतीजतन लाखों युवाओं को नौकरी और बेहतर शिक्षा के लिए राज्य से पलायन करना पड़ा। 2005 के चुनाव के बाद बिहार में सत्ता भले ही बदली, लेकिन पलायन का मुद्दा न तो कभी खुलकर उठाया गया और न ही इस पर कोई मज़बूत नीतियाँ बनाई गईं।

मानवीय कीमत

1990 के बाद से अब तक करोड़ों बिहारी राज्य छोड़ चुके हैं, जिसका असर राज्य की जनसांख्यिकीय और सामाजिक बनावट पर गहरा पड़ा है। इसका असर गांवों और कस्बों की तस्वीर पर भी साफ दिखता है। कामकाजी पुरुष साल में बस एक-दो बार छठ या होली पर घर लौट पाते हैं। यह प्रवास-चक्र पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है, जहाँ बेटे अपने पिता की राह पकड़ते हैं और बाहर कमाने का सपना देखते हैं, अपने गांव में अवसर बनाने का नहीं।

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विभिन्न भाषाओं के समकालीन लोकगीतों में भी यह दर्द झलकता है, जैसे “जय छियों पंजाब खटेयेले” या “पियवा गइले कोलकाता हे सजनी”, जो पलायन की मजबूरी और असुविधाओं को चित्रित करते हैं। पुरुषों का पलायन पीछे छूटे परिवारों को भी कमज़ोर करता है—माता-पिता बेटे से दूर, बच्चे पिता से अलग, और औरतें अकेले घर की ज़िम्मेदारी उठाने को मजबूर हो जाती हैं। सूचना और परिवहन की सीमित सुविधाओं के कारण कई युवा अपनी जड़ों से दूर होते जा रहे हैं, जिससे रीति-रिवाज, लोककथाएँ और स्थानीय परंपराएँ अगली पीढ़ी तक ठीक तरह से नहीं पहुँच पातीं।

श्रमिकों का निर्यातक राज्य

आर्थिक दृष्टि से बिहार अब एक श्रम-निर्यातक राज्य बन गया है, जिसके कारण घरेलू स्तर पर मजदूरों की कृत्रिम कमी उत्पन्न हुई है। नतीजन, भले ही मजदूरी दर में थोड़ी वृद्धि हुई हो, लेकिन रोजगार की समस्या जस की तस बनी हुई है।

राज्य ने 2025-26 में 22% की विकास दर दर्ज की, लेकिन प्रति व्यक्ति आय आज भी देश में सबसे कम है—₹60,180 जबकि राष्ट्रीय औसत ₹2.15 लाख है। बाहर जाकर जो नौकरियां मिलती हैं, वे ज़्यादातर दिहाड़ी, कम-कुशल और कम वेतन वाली होती हैं। ये नौकरियां परिवार चलाने भर के लिए ठीक हैं, पर इससे ऊपर उठने का मौका नहीं मिलता। प्रवासी जो पैसा भेजते हैं, उससे घर तो चलता है, लेकिन बिहार की अर्थव्यवस्था में कोई बड़ा बदलाव नहीं आता।

ज़्यादातर महिलाएं और बच्चे भी कभी सशक्त नहीं हो पाते क्योंकि पुरुषों की कम कमाई और घर की ज़िम्मेदारियों के कारण उन्हें अक्सर गांव में ही रहना पड़ता है।

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राजनीति की चुप्पी

दशकों तक पलायन और बेरोज़गारी बिहार की चुनावी राजनीति के केंद्र में नहीं रहे। जाति-आधारित राजनीति, शराब निषेध और चुनावी भेदभावी कल्याणकारी योजनाएँ अधिक प्रभावशाली रहीं। हालाँकि 2025 में यह परिदृश्य बदल रहा है और पार्टियाँ पलायन तथा बेरोज़गारी को मुद्दा बना रही हैं, पर नीतिगत वायदों की व्यापकता और मज़बूती अभी सीमित है। हाल ही में मतदाता सूची की विशेष समीक्षा में 35 लाख ऐसे वोटर मिले जो लापता हैं—इनमें बड़ी संख्या में प्रवासी शामिल हैं। यानी यह समस्या अब लोकतांत्रिक भागीदारी को भी प्रभावित कर रही है। लेकिन पिछले 30-35 साल में पलायन रोकने या इसे विकल्प बनाने की कोई गंभीर कोशिश नहीं हुई।

आगे का रास्ता

बिहार के पास अब भी मौका है। हालिया आर्थिक वृद्धि उम्मीद जगाती है, लेकिन इसे रोजगार में बदलने के लिए राज्य को शिक्षा, कौशल विकास और उद्योग निवेश की दिशा में कदम उठाने होंगे। कृषि आधारित उद्योग, छोटे कारखाने और सेवा क्षेत्र को बढ़ावा देना होगा। साथ ही प्रवासी परिवारों को सामाजिक सुरक्षा और प्रवासियों को चुनावी प्रक्रिया से जोड़ने की नीति बनानी होगी।

2025 का चुनाव बिहार के लिए निर्णायक साबित हो सकता है। यह राजनीति को जाति और मुफ्त योजनाओं से निकालकर असली मुद्दे—रोज़गार और गरिमा—की ओर मोड़ सकता है। अगर बिहार ने यह अवसर गंवा दिया, तो आने वाले दशक में यह राज्य आर्थिक रूप से और पीछे चला जाएगा। और तब तक पटना, गया और दरभंगा से छूटने वाली गाड़ियाँ सिर्फ कामगार ही नहीं, बल्कि बिहार का सांस्कृतिक और सामाजिक इतिहास भी साथ ले जाती रहेंगी।

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सहायक प्राध्यापक
लोक नीति विभाग
मणिपाल अकादमी ऑफ़ हायर एजुकेशन
बेंगलुरु, कर्नाटक

वरिष्ठ शोधार्थी
आर्थिक अध्ययन एवं नीति केंद्र
भारतीय सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन संस्थान
बेंगलुरु, कर्नाटक

डॉ. प्रशांत कुमार चौधरी and आलोक आदित्य
डॉ. प्रशांत कुमार चौधरी and आलोक आदित्य
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