भारतीय राजनीति में कांग्रेस पार्टी का एक ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण स्थान रहा है। यह पार्टी स्वतंत्रता संग्राम के समय से लेकर आज तक अनेक उतार-चढ़ाव का सामना कर चुकी है। पिछले कुछ वर्षों में, कांग्रेस पार्टी को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है, जिसमें चुनावी हार, नेतृत्व संकट और विचारधारा की कमी शामिल हैं। अब समय आ गया है कि कांग्रेस को केवल दवा की जरूरत नहीं, बल्कि एक मेजर ऑपरेशन की आवश्यकता है, जिससे वह फिर से अपनी खोई हुई पहचान और ताकत को हासिल कर सके।
जीती हुई बाजी हार जाना कोई कांग्रेस से सीखे। यह कांग्रेस की रणनीति, प्रचार, संगठन, प्रबन्धन एवं नेतृत्व की हार मानी जायेगी। इस हार के बाद कांग्रेस पार्टी की अहमियत, प्रभाव अब इंडिया गठबंधन में भी बेहद कमजोर एवं पिछलग्गू वाली हो जायेगी। कांग्रेस की भाजपा से जिन प्रदेशों में डायरेक्ट फाइट हो रही है, वहां चुनाव क्यों हार जा रही है? पहले छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्य प्रदेश और अब हरियाणा, खासकर हिन्दी क्षेत्रों में। राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, पंजाब, उत्तराखंड की तरह हरियाणा की जीती बाज़ी भी उसने गंवा दी। कार्यकर्ता तो उत्साहित थे कि राहुल-प्रियंका ने यहाँ पूरा ज़ोर लगा दिया, लेकिन कार्यकर्ताओं के ऊपर जो अलग-अलग क्षत्रप कांग्रेस में बैठे हैं, अब उनकी ज़िम्मेदारी तय करते हुए अगर कांग्रेस आलाकमान ने कड़े कदम नहीं उठाए तो अभी कार्यकर्ताओं में जितना उत्साह बचा है, वो भी ख़त्म हो जाएगा।
हरियाणा और जम्मू-कश्मीर दोनों राज्यों में क्या भाजपा सत्ता हासिल कर पाएगी या कांग्रेस उसे मात दे देगी, ये सवाल लंबे वक्त से सत्ता के गलियारों में तैर रहा था। दोनों ही राज्यों में भाजपा की प्रतिष्ठा दाँव पर लगी थी, क्योंकि हरियाणा में पिछले 10 बरसों से भाजपा का शासन रहा और वहीं जम्मू-कश्मीर में पूरे दस साल बाद चुनाव करवाए गए। इस बीच 5 अगस्त 2019 को जब भाजपा ने अचानक यह ऐलान किया कि जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 और धारा 35ए वापस लिया जा रहा है और इसके साथ ही उसे दो हिस्सों में बाँटकर जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को दो केंद्र शासित प्रदेशों में तब्दील किया जा रहा है, तब पूरा देश स्तब्ध रह गया था। इसे जम्मू-कश्मीर के लोगों के साथ आज़ादी के बाद किए गए वादे को तोड़ने की तरह देखा गया। लेकिन भाजपा ने राष्ट्रवाद की आड़ में यह वादाखिलाफ़ी की और दावा किया कि उसके इस फ़ैसले में जनता की भी मर्जी है। हालाँकि अब जो नतीजे सामने आए हैं, उनसे पता चलता है कि न जम्मू, न कश्मीर की जनता को भाजपा का फ़ैसला मंजूर था। कांग्रेस को भी नेतृत्व में बदलाव की जरूरत है। कांग्रेस में जहां एक व्यक्ति एक पद की चर्चा लंबे समय से है, वहीं आज भी कांग्रेस के अंदर एक व्यक्ति कई पद ग्रहण किए हुए हैं। विनेश की जीत में हरियाणा के संघर्ष और नाइंसाफी का जवाब देने की जीत की झलक दिखाई दे रही है। सैनी केबिनेट के आधे से अधिक मंत्रियों की हार भी यह बता रही है कि जनता ने भाजपा के काम पर तो मुहर नहीं लगाई है, कोई और वजह है जो भाजपा की जीत का कारण बनी।
कांग्रेस का संगठनात्मक ढाँचा भी कमजोर हो गया है। विभिन्न राज्यों में पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच तालमेल की कमी है, जिससे चुनावी अभियानों में प्रभावशीलता कम हो गई है। पार्टी को अपने संगठनात्मक ढाँचे का पुनर्गठन करना होगा, जिसमें कार्यकर्ताओं की भूमिका को बढ़ाना और उन्हें निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल करना शामिल है। इससे न केवल कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ेगा, बल्कि पार्टी के भीतर एक नई ऊर्जा भी आएगी।
कांग्रेस को आम जनता के साथ बेहतर संवाद स्थापित करने की आवश्यकता है। आज के डिजिटल युग में, सोशल मीडिया एक महत्वपूर्ण उपकरण बन गया है। कांग्रेस को अपने प्रचार माध्यमों को अपडेट करना होगा और युवाओं के साथ जुड़ने के लिए नए तरीकों का उपयोग करना होगा। पार्टी को अपनी नीतियों और कार्यक्रमों को सीधे जनता तक पहुँचाने के लिए प्रभावी जनसंपर्क रणनीतियाँ विकसित करनी होंगी।
पार्टी की चुनावी रणनीतियों में भी बदलाव की आवश्यकता है। पिछले कुछ चुनावों में कांग्रेस ने जो रणनीतियाँ अपनाई हैं, वे सफल नहीं रही हैं। पार्टी को अपने चुनावी अभियानों को अधिक स्थानीय बनाना होगा, जिससे वह स्थानीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित कर सके। इसके अलावा, कांग्रेस को अन्य क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन बनाने पर विचार करना चाहिए, जिससे वह भाजपा के खिलाफ एक मजबूत विपक्ष खड़ा कर सके।
कांग्रेस को युवा नेताओं को आगे लाने की आवश्यकता है, जो नई सोच और ऊर्जा लेकर आयें। युवा पीढ़ी के पास नई तकनीकों और विचारों का ज्ञान होता है, जो पार्टी के लिए फायदेमंद हो सकता है। युवा नेताओं को जिम्मेदारियों में शामिल करके और उन्हें निर्णय लेने की प्रक्रिया में भागीदार बनाकर, पार्टी अपनी पुरानी छवि से बाहर निकल सकती है।
कांग्रेस को सामाजिक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। जातिवाद, धर्मवाद और आर्थिक असमानता जैसे मुद्दे आज भी समाज में प्रासंगिक हैं। पार्टी को इन मुद्दों पर स्पष्ट स्टैंड लेना होगा और समाधान प्रस्तुत करना होगा। इससे न केवल कांग्रेस की विश्वसनीयता बढ़ेगी, बल्कि यह जनता के बीच एक मजबूत पहचान भी बनाएगी।
कांग्रेस पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की कमी भी एक बड़ी समस्या है। निर्णय लेने की प्रक्रिया में पारदर्शिता और भागीदारी का अभाव है। पार्टी को अपने कार्यकर्ताओं को अधिक-से-अधिक शामिल करने के लिए कदम उठाने होंगे, जिससे वे अपनी आवाज उठा सकें और निर्णय लेने में भाग ले सकें। साथ ही जमीन पर भी पार्टी का सदस्यता अभियान, जागरूकता अभियान दिखना चाहिए, जो कांग्रेस में नहीं दिखता। वह पुरानी परंपरा को दोहराते रहती है। वोटर लिस्ट से नाम उठाकर सदस्यता अभियान चलाना भी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए महंगी साबित हुई।
उधर जम्मू-कश्मीर में जो नतीजे आए हैं, उसे भाजपा की केवल राज्य स्तर पर नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी हार कही जानी चाहिए। क्योंकि 370 और 35ए खत्म करने का ढिंढोरा भाजपा ने पूरे देश में पीटा, दस साल लगा दिए चुनाव करवाने में और यहाँ भी पूरी कोशिश की कि किसी तरह निर्दलियों या बी, सी टीमों के जरिए जीत हासिल की जाए। घाटी में कम प्रत्याशियों को उतारने का दांव भाजपा ने चला था, अमित शाह ने यहां ईद और मुहर्रम पर मुफ़्त सिलेंडर देने की बात कही, कांग्रेस और एनसी गठबंधन पर सवाल उठाए। उन्हें पाक परस्त, आतंकवाद को बढ़ावा देने वाला बताया। लेकिन जम्मू-कश्मीर की जनता ने अपना जवाब भाजपा को देकर बता दिया कि 2019 में उसने जो खेल करने की कोशिश की, उसके नियम जनता ने खारिज कर दिए हैं।
कांग्रेस के कई नेताओं का ध्यान चुनावों से ज़्यादा, चुनाव जीतने के पहले ही मंत्री की कुर्सी पर रहता है। हरियाणा में गुटबाज़ी और ग़लत तरीके से टिकट बाँटने की वजह से कांग्रेस को क़रीब 13 सीटें गँवानी पड़ी हैं। इनमें भूपिंदर सिंह हुड्डा, कुमारी शैलजा और कांग्रेस आलाकमान की पसंद के उम्मीदवार भी शामिल हैं। कांग्रेस के उम्मीदवारों को इस तरह से भी देखा जा रहा था कि कौन भूपिंदर सिंह हुड्डा के खेमे से है और कौन कुमारी शैलजा के क़रीबी है। कुमारी शैलजा को मुख्यमंत्री घोषित करने और आम आदमी पार्टी से समझौता करने की आवश्यकता थी। यह निर्णय दोनों दलों के नेतृत्व और उनकी रणनीतियों पर निर्भर करता है। अगर ये समझौता होता तो चुनाव परिणाम इससे कहीं बेहतर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के लिए होता। शैलजा एक अनुभवी नेता हैं, जिन्होंने भारत सरकार में विभिन्न पदों पर कार्य किया है, जिसमें सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री का पद भी शामिल हैं। उनकी राजनीतिक यात्रा में कई उतार-चढ़ाव आए हैं, लेकिन उन्होंने हमेशा अपनी प्रतिबद्धता और नेतृत्व क्षमता का प्रदर्शन किया है।
शैलजा को लेकर हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर सहित भाजपा नेता सार्वजनिक रूप से शैलजा को अपने साथ शामिल होने का निमंत्रण दे रहे थे, जिससे कांग्रेस के भीतर कलह की अटकलों को हवा मिल रही थी। भाजपा द्वारा उनकी अनुपस्थिति पर ध्यान आकर्षित करने के प्रयासों के बावजूद, शैलजा कांग्रेस के अभियान में एक प्रमुख व्यक्ति बनी हुई रही। सिरसा, अंबाला और हिसार जैसे जिलों में अपने मजबूत समर्थन आधार के लिए जानी जाने वाली शैलजा का अभियान में फिर से शामिल होना आगामी चुनावों में पार्टी की सफलता के लिए महत्वपूर्ण होगा। कांग्रेस में ओबीसी, एससी, एसटी की चर्चा राहुल गांधी तो उठाते हैं लेकिन दिखता कहीं नहीं है। कांग्रेस की संरचना, संगठन, कार्यक्रम, विचारधारा, योजना में दूर-दूर तक नजर नहीं आते हैं। बिहार सहित अधिकांश राज्यों में कांग्रेस की कमान ऐसे लोगों के हाथों में है, जिनका समाज में नेतृत्व करने की क्षमता नगण्य है। समाज का हर वर्ग अपना नेता चाहता है। वह दूसरे की वैसाखी की बदौलत अपनी वकालत नहीं चाहता है।
कांग्रेस अपने रवैए के कारण सता से लगातार दूर हो रही हैं। उसे गठबंधन की राजनीति पर फिलहाल अगली विधानसभा चुनाव के मद्देनजर सोचने की जरूरत है।
जातिगत जनगणना, एससी और ओबीसी पालिटिक्स, अल्पसंख्यक सियासत पर पार्टी के अतिरेक निर्णय ने उन स्वर्ण जाटों को भी कांग्रेस के ऊपर फिदा होने से रोक दिया, जिनके दम पर भूपेंद्र सिंह हुड्डा की सियासत चमकी थी। चुनाव में कांग्रेस को जरुरत से ज्यादा भूपेन्द्र सिंह हुड्डा पर भरोसा महंगी पड़ी।
इस साल हुए लोकसभा चुनावों में हरियाणा में कांग्रेस को 43 फ़ीसदी वोट मिले थे जबकि बीजेपी ने 46 फ़ीसदी वोट मिले थे। यानी दोनों प्रमुख दलों के बीच वोटों का अंतर काफ़ी कम रहा था। साल 2019 में हरियाणा विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 90 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे और उसे 40 सीटों पर जीत मिली थी। इस बार बीजेपी ने 89 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। कांग्रेस को 2019 में 90 में 31 सीटों पर जीत मिली थी।
हरियाणा का परिणाम कांग्रेस पार्टी को आत्ममंथन के लिए प्रेरित करने वाला होना चाहिए। हुड्डा की वंशवादी राजनीति हरियाणा में ताकत नहीं, बल्कि कमजोर साबित हुई। कांग्रेस का जमीनी स्तर पर समन्वय हरियाणा के चुनावों में पूरी तरह से उजागर हो गया।
इन चुनावों से एक और बात सामने आई है कि भाजपा का साथ देने वाली पार्टियों को अब अपने भविष्य की चिंता करनी चाहिए। क्योंकि हरियाणा में जेजेपी और जम्मू-कश्मीर में पीडीपी साफ़ हो गई है। एक वक़्त में इन दोनों के साथ मिलकर भाजपा ने सरकारों का गठन किया था। महाराष्ट्र, बिहार, झारखंड में भी बीजेपी का साथ जदयू, लोजपा, शिवसेना शिंदे, अजित पवार एनसीपी दे रहे हैं, अब इन दलों को सोचना है कि वो अपने भविष्य और अस्तित्व को बीजेपी से कैसे बचाएं।
कांग्रेस पार्टी के लिए यह समय एक मेजर ऑपरेशन का है। केवल दवा देने से काम नहीं चलेगा; उसे गहन और व्यापक बदलावों की आवश्यकता है। अगर कांग्रेस इन चुनौतियों का सामना करती है और आवश्यक सुधार करती है, तो वह न केवल अपनी खोई हुई पहचान वापस पा सकती है, बल्कि भारतीय राजनीति में फिर से एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। यह एक कठिन कार्य है, लेकिन अगर सही दिशा में कदम उठाए जाएँ, तो कांग्रेस फिर से मजबूत बन सकती है और भारतीय लोकतंत्र में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।