भारतीय शिक्षा प्रणाली का प्रतिनिधित्व करने वाले बहुतायत सरकारी विद्यालय, जो कभी ज्ञान मंदिर के रूप में सामाजिक आस्था और चेतना के केंद्र हुआ करते थे, आज सामाजिक उदासीनता, राजनीतिक उपेक्षा, नौकरशाही दमन और नीतिगत विसंगतियों के जाल में फँसकर अपना मूल स्वरूप खोते जा रहे हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के 21 वर्ष पश्चात 1968 से अस्तित्व में आई प्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति में 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों के लिए अनिवार्य शिक्षा संबंधी किए गए प्रावधानों के साथ श्रृंखलाबद्ध शिक्षा नीतियों की तीसरी कड़ी में राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 के लागू होने के पाँच वर्ष बाद, अब बिहार के इस चुनावी वर्ष 2025 में जब चतुर्दिक राजनीतिक दलों द्वारा लगाए जा रहे विकास और सुशासन के दावों, नारों और वादों की गूँज में सभी अपनी-अपनी उपलब्धियाँ गिनवा रहे हैं और कतिपय अधूरे व छूटे कार्यों को पूरा किए जाने के वादे किए जा रहे हैं; तब वहीं इस चुनावी समर में शिक्षा के सवालों पर व्याप्त सन्नाटा, शिक्षक, शिक्षार्थी, शिक्षालय और शिक्षा पर गहराते संकट के स्वर, मानो मौन अभिव्यक्ति है कि इन सारे सवालों को राजनीतिक सत्ता प्राप्ति के लिए प्रतिनिधित्व का दावा ठोकने वाले मुख्य धारा के सारे राजनीतिक दलों ने खुद से हाशिए पर धकेल रखा है ।
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” शिक्षा की वर्तमान व्यवस्था, राज्य की शिक्षा के बौद्धिक पराभव का पर्याय होती जा रही है।”
जीन पियाजे की संज्ञानात्मक विकास प्रक्रिया और लेव विगोत्स्की की सामाजिक – सांस्कृतिक अधिगम अवधारणा के अनुसार हमारे बच्चे, हमारी व्यवस्था में महज निष्क्रिय उपभोक्ता नहीं, बल्कि सक्रिय सर्जक होते हैं ।
जॉन ड्यूवी और पाउलो फ्रेयर जैसे शिक्षाविदों ने शोधपरक निष्कर्षों में विद्यालयी वातावरण के लिए “क्रिटिकल थिंकिंग” यानी बच्चों को विश्लेषण युक्त चिंतन प्रक्रिया से जोड़े रखने वाले तमाम शिक्षण, मूल्यांकन और नवोन्मेषी पद्धति को लोकतांत्रिक समाज की आत्मा बताया था। विश्व के कई विकसित देशों ने इसे अपनाया भी ।
परंतु आज हमारी शिक्षा व्यवस्था इस चेतना की विपरीत दिशा में बढ़ रही है।केंद्रीकृत नीतियाँ, वोट जुगाड़ू राजनीतिक हस्तक्षेप और मनोनुकूल विषयों पर सतही प्रदर्शन की संस्कृति ने शिक्षा को एक यांत्रिक प्रक्रिया में बांध कर रख दिया है।
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क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि आज के दौर में अपनी पाठशालाओं में हम ऐसी पीढ़ी तैयार कर रहे हैं जो केवल सूचनाओं के अधिकाधिक संग्रहण या भंडारण को ही शिक्षा मानने लगी है।
वस्तुतः हम यह मानने को तैयार क्यों नहीं हो रहे कि बालकेंद्रित शिक्षा का यूं विघटित होना केवल शिक्षा का ही नहीं, बल्कि समग्र राष्ट्र-निर्माण के लिए भी संकट का सूचक है।
बिहार सहित देशभर के सार्वजनिक विद्यालयों में बच्चों और शिक्षकों के बीच क्रिटिकल थिकिंग को प्रोत्साहित करनेवाली बालकेंद्रित शिक्षण-अधिगम प्रक्रियाएँ धीरे-धीरे ध्वस्त की जा रही हैं।
NEP के नाम पर पाठ्यक्रमों में ऐसे संशोधन हो रहे हैं जो चिंतन से अधिक चिंताओं को बढ़ाने वाली हैं । सत्य, स्नेह, करुणा, सहयोग और सहिष्णुता की जगह मिथ्या, घृणा, क्रूरता, स्वार्थ और असहिष्णुता को प्रतिस्थापित किया जा रहा है। नैतिक मूल्यों को प्रबलित करने वाले संवेदनशील अध्यायों को विलोपित कर दिया गया है, वैश्विक पर्यावरणीय बहसों को सीमित किया गया है तथा सामाजिक विज्ञान में प्रगतिशील राष्ट्रीय चेतना के विमर्शनीय संदर्भ को तिरस्कृत और बहिष्कृत करते हुए सांस्कृतिक उन्नयन के नाम पर रूढ़ियों और अंधमान्यताओं को प्रोत्साहित किया जा रहा है ।बिहार में शिक्षा सुधारों का लक्ष्य लेकर वोट बटोरू शिक्षक भर्ती और सरकारी खजाने से कमीशन आधारित केंद्रीकृत अपव्यय के लिए डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित करने, सेंट्रलाइज्ड प्रश्नपत्रों व उत्तरपुस्तिकाओं की आपूर्ति में करोड़ों रुपए की नियमित और केंद्रीकृत कमीशनखोरी की भरपूर संभावनाओं के मद्देनजर आपूर्तिकर्ता कंपनियों को खुली लूट की छूट देने के उद्देश्य से विद्यालयों पर जबरन गैर जरूरी मूल्यांकन कार्य थोपने एवं एन ई पी निर्दिष्ट शिक्षकों के सतत व्यावसायिक विकास के नाम पर बेसिर-पैर के गैर जरूरी व अलाभकारी प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करने संबंधी कार्यों को तो काफी प्राथमिकता दी जा रही है, पर विद्यालयी कक्षा शिक्षण की मूल आत्मा, बच्चों और शिक्षकों में सृजनशीलता एवं विश्लेषणात्मक सोच को प्रोत्साहित करनेवाली शिक्षण विधियों को क्रमशः नजरअंदाज करते हुए संगठित तौर पर अप्रासंगिक कर दिया गया है ।
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आज विद्यालयों में गणित, विज्ञान और कंप्यूटर को छोड़कर (क्योंकि इस विषय में यथेष्ठ शिक्षक और संसाधन के अभाव में क्रिटिकल थिंकिंग आधारित शिक्षण प्रक्रियाएं गति पकड़ ही नहीं सकती ) शेष सभी विषय, केवल सूचना-संग्रह और वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर प्रस्तुति तक सीमित हैं।
भाषा, कला, सामाजिक और सांस्कृतिक अध्ययन एवं खेलकूद आदि में विषयनिष्ठता आधारित शिक्षण, डिबेट क्लब और आर्ट-इंटीग्रेटेड प्रोजेक्ट्स जैसी गतिविधियाँ लगभग समाप्तप्राय हैं।
यह शिक्षा को विचार-विहीन, संवेदनाशून्य और जड़वत निस्पृह पीढ़ियों के निर्माण पर जोर देने वाला बना रहा है।
विद्यालयों की आंतरिक व्यवस्था पर निरंतर बढ़ता नौकरशाही हस्तक्षेप शिक्षकों के लिए विचलनकारी है।
विद्यालय, अब शिक्षणशाला नहीं बल्कि अधिकारियों के निर्देश पर बतौर अधीनस्थ मातहत, अनुपालन के लिए बाध्यकारी स्थिति को जीनेवाले शिक्षकों के माध्यम से रिपोर्टिंग और डेटा फीडिंग के केंद्र बन गए हैं। मासिक डेटा संग्रह, मिड-डे मील के निर्माण से लेकर वितरण की निगरानी, शिक्षकों तथा बच्चों की उपस्थिति व सक्रियता की डिजिटल ट्रैकिंग और “तथ्यहीन रिपोर्टिंग” विद्यालय में शिक्षण अधिगम के लिए निर्धारित समय को निगल रहे हैं।
बिहार के विद्यालयों में गिनती के कुछ प्रधान और शिक्षक, काफी सीमित संसाधनों और काफी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद बेहतर करने की कोशिश करते हैं, परंतु उन्हें समाज में उपद्रव बाँचने वाले लोगों, उद्दंड व लंपट राजनीतिक कार्यकर्ताओं और भ्रष्ट अधिकारियों की तात्कालिक अपेक्षाओं से जूझने और उबरने के उपायों में उलझा दिया जाता है।
क्रिटिकल पेडागॉजी के मुख्य प्रवर्तकों में एक पाउलो फ्रेयर की “बैंकिंग एजुकेशन” का संदर्भ आज, पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक है ;
“शिक्षा अब फ़िजां में तैरती सूचनाओं का बैंक भर रह गई है, जहाँ छात्र केवल जमा बचत खातों के खाताधारक मात्र हैं और उनके अकादमिक प्रमाणपत्र उनके खाते में जमाधन का विवरण मात्र हैं।”
शिक्षक, जो घरेलू संसाधनों से अधिगम उपकरण, क्रियाशीलन गतिविधि और प्रयोगशाला बनाते हैं या स्थानीय मुद्दों पर बाल संवाद आयोजित करते हैं, सांस्कृतिक अथवा क्रीड़ा महोत्सव आयोजित करते हैं तो उनकी सारी पहलकदमियों को, सृजनशीलता को रिपोर्टों और निरीक्षणों की बोझिल प्रक्रिया से कुचलने का काम शुरू कर दिया जाता है। उनके प्रोत्साहनों और पुरस्कारों को दलगत एवं जातिगत राजनीतिक पूर्वाग्रह निगल लेते हैं ।
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शिक्षा में वोट बटोरू राजनीतिक घुसपैठ का बढ़ना चिंताजनक है। अब शिक्षा केवल निरंकुश होती अफसरशाही के प्रशासनिक हस्तक्षेपों से ही त्रस्त नहीं हो रही, बल्कि राजनीतिक हस्तक्षेपों की भी शिकार हो रही है। ऐसे लोग जिनके बच्चे सरकारी विद्यालयों में नहीं पढ़ते, वे स्थानीय राजनीतिक पहुँच के बल पर स्कूल की समितियों में प्रवेश के लिए जुगत भिड़ाते दिखेंगे ।
वे विद्यालयों को मिलनेवाले सामाजिक अनुदान को हतोत्साहित करने का माहौल बनाते हैं, लोगों को विद्यालय में दान देने से मना करते हैं, विद्यालय में सरकार द्वारा प्रदत्त निधियों के उपयोग को प्रभावित करते हैं, किकबैक्स लेते हैं और व्यक्तिगत स्वार्थ साधते हैं।
स्थानीय स्तर पर विद्यालयों के विरुद्ध माहौल बनाना, शिक्षकों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाना या अभिभावकों को भड़काना आम बात हो गई है।
इससे विद्यालयों का शैक्षिक परिवेश दूषित हो रहा है, और शिक्षा का केंद्र राजनीति की भेंट चढ़ रहा है।
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देश की विविधता पूर्ण स्वतंत्र वैचारिक चेतना पर नियंत्रण के उद्देश्य से राजनीतिक नियामक समूह विकासोन्मुख नीतियों के नाम पर विद्यालयों में एक ऐसा शैक्षणिक ढाँचा तैयार करने जा रहा है, जो “राष्ट्रीय एकता” के नाम पर विविधता और आलोचनात्मक चेतना को दबा रहा है।
इतिहास के पुनर्लेखन से लेकर पाठ्यक्रम की दिशा तय करने तक, हर निर्णय में राजनीति धारणाओं पर केंद्रित वैचारिक झुकाव झलकता है।
परिणाम यह है कि बच्चों को सूचना तो मिल रही है, पर प्रश्न पूछने की आदत मर रही है।
बिहार जैसे राज्य, जहाँ साक्षरता दर अभी भी राष्ट्रीय औसत से नीचे है, इस प्रवृत्ति का सबसे बड़ा भुक्तभोगी बन रहे हैं ।
विचार करने का समय है कि सशक्त राष्ट्र का निर्माण केवल इमारतों या उपकरणों से नहीं होता, बल्कि विचारवान, नीतिज्ञ और संकल्पित पीढ़ियों से होता है।
जब विद्यालय, सहज मानवीय जिज्ञासाओं और प्रश्नों को दबाने वाले केंद्र बन जाएँगे, तो विचार कहाँ से जन्म लेंगे?
क्या हम एक ऐसे समाज की ओर बढ़ रहे हैं जहाँ नवाचार की जगह आज्ञाकारिता ही प्रगति का मापदंड बन जाएगी?
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अब भी समय है
अगर शिक्षा को उसकी मूल आत्मा लौटानी है, तो शिक्षा नीतियों को महज दस्तावेज़ नहीं, बल्कि विचार की प्रक्रिया बनाना होगा। पाठ्यक्रमों में सृजनशीलता और आलोचनात्मक सोच को पुनर्स्थापित करना, शिक्षकों को नौकरशाहों की अधीनस्थता वाले प्रशासनिक बोझ से मुक्त करना और विद्यालयों को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाना आवश्यक है। राज्य सरकारों विशेषकर बिहार को स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षा नीति का विकेंद्रीकृत मॉडल अपनाना होगा।
नागरिक समाज, अभिभावक, शिक्षाविद् और जनप्रतिनिधि; सभी को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि शिक्षा अब सरकार एवं समाज के लिए महज कैरियर और धनार्जन के औपचारिक जुगाड़ का कारक नहीं, बल्कि संपूर्ण राष्ट्र के समग्र विकास की आत्मा बने।
तो आइए,जागृत विवेक से युक्त प्रगतिशील वैचारिक प्रवाह एवं सृजनशील चिंतन के साथ समग्र रूप से समुन्नत भारत के निर्माण के लिए विद्यालय, विद्यालयी शिक्षा और शिक्षकों को तमाम पूर्वाग्रही, विकृत और राष्ट्रीय मानव संसाधन को निहायत दास बनाने वाली राजनीतिक एवं प्रशासनिक आकांक्षाओं से मुक्ति के लिए निर्णायक पहलकदमी तेज करें ।

एजुकेटर एवं विश्लेषक(प्रारंभिक शिक्षा)वRTE, RTIएक्टिविस्ट(बिहार)







