“गुप्त-साम्राज्य की उत्तरोत्तर वृद्धि के साथ उसका दायित्व भी बढ़ गया है; पर उस बोझ को उठाने के लिये गुप्तकुल के शासक प्रस्तुत नहीं, क्योंकि साम्राज्य-लक्ष्मी को वे अब अनायास और अवश्य अपनी शरण आनेवाली वस्तु समझने लगे हैं।”
जयशंकर प्रसाद के ‘स्कन्दगुप्त’ नाटक से उद्धृत उपरोक्त पंक्तियाँ लालू यादव की वंशवादी राजनीति की विरासत को सँभालने वाले तेजस्वी यादव की मनःस्थिति की ओर इशारा करती हैं। इन पंक्तियों को उद्धृत करने का कारण राजद और महागठबन्धन की हार नहीं है, क्योंकि राजनीति में जीत और हार तो लगी रहती है। कई बार प्रत्याशित, तो कई बार अप्रत्याशित। हार बुरी नहीं होती, बुरा होता है बिना लड़े हार जाना। महागठबंधन की हार कुछ ऐसी ही है। लड़ने के पहले ही बिना शर्त समर्पण। और, इस स्थिति के लिए जिम्मेदार है महागठबंधन के सबसे बड़े घटक दल राजद और उसका नेतृत्व। तेजस्वी तो चुनाव के पूर्व ही समर्पण करते दिखे, लैंड फॉर जॉब स्कैम में सीबीआई और गिरफ़्तारी के डर से। ऐसा लगा कि गिरफ़्तारी से बचने के लिए उन्होंने भाजपा और उसके नेतृत्व के समक्ष समर्पण करते हुए उनके साथ समझौता कर लिया। महागठबंधन की राड़ और भसड़ को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।
इतना ही नहीं, इन्होंने न केवल सीटों के लिए काँग्रेस एवं अन्य सहयोगी दलों के साथ चल रही बातचीत बेपटरी की, बल्कि खुद को महागठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री पद के लिए चेहरा घोषित करने के लिए विवश करते हुए काँग्रेस की उस रणनीति को पलीता लगाया, जबकि काँग्रेस की इस रणनीति की काट सत्तारूढ़ गठबन्धन के पास नहीं थी। उनका पूरा फ़ोकस भाजपा और जदयू के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन से लड़ने की बजाय महागठबन्धन में खुद के दल के लिए लार्जर शेयर सुनिश्चित करने पर रही है और इसने उस मोमेंटम को तोड़ा जो वोट अधिकार यात्रा के कारण निर्मित हुई और जिसे नीतीश जी के 1.22 लाख करोड़ के चुनाव-पैकेज ने चुनौती दी थी।
महागठबन्धन के अन्य सहयोगी दलों की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही रही। सीपीआई (एमएल) ने राजद के साथ मिलकर उसके सहयोग से काँग्रेस और अन्य लेफ़्ट दलों को भी हाशिए पर धकेलने का काम किया। उसने सीपीआई और सीपीएम को किनारे करने में अपनी पूरी ताक़त लगायी, जबकि सीपीआई के रवैये से ऐसा लगा कि काँग्रेस से निपटना उसकी प्राथमिकता है, भाजपा से तो बाद में भी लड़ा जा सकता है। सच तो यह है कि महागठबन्धन में कहीं बन्धन नहीं था, गाँठें ही गाँठें थीं, जिसके कारण इसके घटक दल अन्त-अन्त तक अपनी डफली अपना राग अलापते रहे, और इसकी क़ीमत उसको चुकानी पड़ी। अगर महागठबंधन के घटक दलों के बीच बेहतर केमिस्ट्री होती, तो चुनाव में विपक्ष की स्थिति शायद कहीं बेहतर होती।
जहाँ तक काँग्रेस की बात है तो उसकी रणनीति सटीक थी, लेकिन वह उस पर क़ायम नहीं रह सकी। उसने मुख्यमंत्री का चेहरा न घोषित करके जंगलराज के मुद्दे को विपक्ष से छीनना चाहा। साथ ही, इस बात को सुनिश्चित करने की कोशिश की कि फ़ोकस राजद और लालू परिवार की बजाय राहुल और काँग्रेस पर रहे। इससे चुनावी डिस्कोर्स को दूसरी दिशा में मोड़ना संभव होता। लेकिन, तेजस्वी और राजद की सेंस ऑफ इनसेक्यूरिटी ने काँग्रेस को इस बात के लिए विवश किया कि तेजस्वी को महागठबन्धन का सीएम फ़ेस घोषित किया जाए।
इससे इतर, अगर काँग्रेस की कमियों पर बात की जाए, तो समस्याएँ कई स्तरों पर रही हैं। एक समस्या राहुल गाँधी में निरन्तरता के अभाव की है, तो दूसरी समस्या राहुल की टीम और स्थानीय नेतृत्व के बीच संवाद एवं आपसी समझ के अभाव की रही। जो काम काँग्रेस को बहुत पहले करना था, वह काम चुनाव की पूर्व संध्या पर शुरू किया गया। स्वाभाविक है कि उसकी क़ीमत होती, और वह क़ीमत काँग्रेस को चुकानी पड़ी। टिकट वितरण के मसले पर उत्पन्न विवाद ने भी काँग्रेस को लेकर नकारात्मक माहौल निर्मित किया और इसकी पृष्ठभूमि में काँग्रेस का अन्तर्विरोध उभर कर सामने आया।
सबसे महत्वपूर्ण यह कि महागठबन्धन अन्त-अन्त तक अपने ही अन्तर्विरोधों में उलझा रहा, कभी लगा ही नहीं कि वह एनडीए के ख़िलाफ़ अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। पिछले चार महीने के दौरान उसके मुद्दे एनडीए सरकार द्वारा छीन लिए गए। कभी ऐसा नहीं लगा कि महागठबन्धन एनडीए द्वारा प्रस्तुत उस चुनौती का सामना करने और उसके आलोक में अपने एजेंडे एवं अपनी रणनीति को पुनर्निर्धारित करने को लेकर गम्भीर है। वह पूरी तरह से क्लूलेस नज़र आया। इस कारण एक बार उसका अभियान जो बेपटरी हुआ, वह कभी पटरी पर वापस नहीं लौटा। इसके उलट, वह मोमेंटम गेन करने की बजाय मोमेंटम लूज़ करता चला गया, और अन्ततः इसका क़ीमत इसे चुकानी पड़ी। महागठबन्धन में शामिल दलों के बीच केमिस्ट्री के अभाव और सभी दलों के अन्तर्विरोधों ने उस फाँक/दरार को और चौड़ा करने का काम किया। महागठबन्धन में शामिल दलों के बीच न तो सीटों का वितरण सही तरीक़े से हुआ और न ही उम्मीदवारों के चयन में अतिरिक्त सतर्कता बरती गयी।

मेंटरिंग(सिविल सेवा परीक्षा हेतु,ब्लॉगर,लेखक और राजनीतिक विश्लेषक)




