समाजशास्त्र में धर्म को मूलतः दो रूपों में देखे जाने की परम्परा है। धर्म विश्वास के रूप में समाज को प्रभावित करता है या तो विचार के रूप में। लेकिन इस विचार को भी दो रूपों में देखे जाने की जरुरत है। दार्शनिक स्तर पर एवं राजनीतिक विमर्श के रूप में। आज हिन्दू धर्म का जो पक्ष सबसे ज्यादा मजबूत बनकर उभरा है, वो है राजनीतिक विमर्श के रूप में, जिसके तहत पूँजी एवं धर्म का घालमेल हो गया है।परिणामतः अब धर्म पूंजीवाद का बाई प्रोडक्ट बनकर रह गया है। सवाल उठता है कि जिस हिन्दू धर्म ने, अन्य धर्मों की तुलना में, विश्वास के स्तर पर, समाज पर अपना सबसे ज्यादा प्रभाव छोड़ा, उसका इतनी द्रुतगति से वैचारिकीकरण कैसे संभव हुआ? जब हम धर्म की विश्वास आधारित व्याख्या करते हैं तो पाते हैं कि हिन्दू धर्म ने अन्य धर्मों से ज्यादा समाज पर नैतिक प्रभाव छोड़ा। इसलिए यहाँ धर्म केवल व्यक्तिगत मसला नहीं था, बल्कि उसका सामजिक पक्ष भी था। हिन्दू धर्म का एक दार्शनिक पक्ष भी है, लेकिन वह उतना मजबूत नहीं था। प्राचीन काल से ही यह विद्वानों के विमर्श तक ही सीमित रहा। जिसके कारण वेद, वेदांत एवं उपनिषद के जंजाल से समाज मुक्त रूप में धर्म से संचालित होता रहा। उदाहरण के लिए पुराण एवं धर्म की ब्राह्मणिक व्याख्या से ही समाज संचालित होता रहा, जिसके केंद्र में नैतिकता का अतिशय जोर था। इसके अलावा हिन्दू धर्म का राजनीतिक पक्ष बेहद ही कमजोर था। समाज इस धर्म के दार्शनिक एवं राजनीतिक पक्ष से आधुनिक काल तक लगभग अछूता रहा, क्योंकि इस धर्म का ना तो कोई सांस्थानिक रूप रहा और न ही सांस्थानिक व्याख्या।
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लेकिन, मूल प्रश्न अब भी ज्यों-का-त्यों बना हुआ है कि हिन्दू धर्म का वैचारिकीकरण कैसे हुआ? तो इसका सीधा सम्बन्ध आधुनिकता एवं आधुनिक उत्पादन के सम्बन्ध से जाकर जुड़ता है। क्योंकि, आधुनिकता ने विश्व को सबकुछ अच्छा ही नहीं दिया, बल्कि इसके साथ बुराई भी उसी अनुपात में समाज एवं राजनीति का हिस्सा बन के उभरी, जिसका परिणाम आज तीसरी दुनिया के देशों में देखने को मिल रहा है, जहाँ आधुनिकता के नाम पर अंधानुकरण की प्रक्रिया को अपनाया गया। फलतः समाज और व्यक्ति अपनी जड़ों से उखड़ गया। खैर, भारत में आधुनिकता के प्रभाव एवं हिन्दू धर्म के वैचारिकीकरण की शुरुआत पाश्चात्य लोगों के साथ घुलने-मिलने के साथ हुआ। पश्चिम के देश शुरू से ही सामान्यता पर जोर देते थे, जिसके कारण हिन्दू धर्म में एकांगीपण आता चला गया और यहाँ हिन्दू -एवं मुस्लिम दो धर्मों को दो राजनीतिक गुटों के रूप में देखे जाने की परम्परा की शुरुआत हो गई। यानि अब धर्म ने राजनीतिक विचारधारा के रूप में अपना स्थान बना लिया। दूसरी तरफ हिन्दू धर्म के जो सुधारवादी पक्ष थे, उन्होंने प्रतिक्रियावादी रुख अख्तियार किया आधुनिकता के विरोध में। इसलिए यह गुट भी वैचारिकी के क़रीब ही जा के खड़ा हो गया। हाँ, एक गुट ऐसा भी था, जिसने हिन्दू धर्म को सामाजिक एवं व्यक्तिगत मुद्दों तक इसको सीमित करके रखने का प्रयास किया। इसके दो रूप थे – एक का प्रतिनिधित्व गाँधी एवं दूसरे का प्रतिनिधित्व नेहरू कर रहे थे। गाँधी धर्म के नैतिक पक्ष पर बल देते हुए समाज को एक जुट रखते हुए इसके राजनीतिक पक्ष को मजबूत करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने रामराज्य की स्थापना पर अपना सारा जोर लगा दिया था। लेकिन उस समय के राजनीतिक संघर्ष ने इस गुट को मजबूती से उभरने में सबसे बड़ा रोड़ा उत्पन्न किए। और यह गुट कोई और नहीं, बल्कि वही मध्य वर्ग था, जो दिखने में आधुनिक जरूर था, मगर घोर प्रतिक्रियावादी भी था, जिसने गाँधी का ना केवल खुल के ज़मीनी स्तर विरोध किया, बल्कि यह नेहरू के उस गुट का छद्म समर्थक बना रहा, क्योंकि नेहरू का मानना था कि धर्म को व्यक्तिगत मुद्दों तक ही सीमित रहना चाहिए। इसलिए वो मुखर हो के धर्मनिरपेक्ष राज्य की संकल्पना पर जोर देते रहे। लेकिन, नेहरू की सबसे बड़ी सीमा थी कि उनकी यह विचारधारा केंद्र एवं उनके इर्द -गिर्द लोगों तक ही सीमित रही। परिणामतः नेहरू एवं गांधी जी के बाद धर्म के वैचारिक रूप प्रबल रूप से सामने आने लगे। नेहरू युग की समाप्ति के साथ ही हिन्दू धर्म के राजनीतिकरण की प्रक्रिया भी तेज हो गई। इधर जब इंदिरा गाँधी ने धर्मनिरपेक्षता पर बल दिया तो प्रतिक्रियावादी शक्तियों को मौका मिल गया। इस प्रकार ये प्रतिक्रियावादी शक्तियां धर्मनिरपेक्षता को मूलतः पाश्चात्य विचारधारा करार देते हुए हिन्दू धर्म के वैचारिक आधार को मजबूत करने में जुट गए। परिणामतः जनता दल के साथ यह विचारधारा अब राज्य का हिस्सा बन चुकी थी, जिसे लोकतान्त्रिक वैधता हासिल हो गई। इस प्रकार देखा जाय तो हिन्दू धर्म का जो वैचारिक रूप अब तक परिधि पर था, वह केंद्र में आकर हिचकोलें लगाना शुरू कर दिया।
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इधर राज्य ने उदारीकरण की प्रक्रिया को अपनाया, उधर हिन्दू धर्म के वैचारीकरण का प्रसार तेजी से जनमानस के बीच होना प्रारम्भ हो गया क्योंकि, जो भी प्रतिवादी शक्तियां थीं, उसने हिन्दू धर्म के एकांगी रूप को बल देने में जोर देती रही।
इस प्रकार नवउदारवादी युग में हिन्दू धर्म विचारधारा के स्तर पर दो रूपों में दिखाई पड़ने लगा। एक सामाजिक न्याय के नाम पर हिन्दू धर्म पर लगातार आक्रमण करनेवाली शक्तियां थी। तो दूसरी ओर धर्म को केंद्र में लेकर राजनीति करने वाली शक्तियां थीं। इन दोनों शक्तियों की टकराहट का एक ही उद्देश्य था – धर्म का जितना हो सके, उसे राजनीतिक विचारधारा के रूप में सत्ता हासिल करने के लिए उपयोग में लाया जा सके। दोनों शक्तियों को पूंजीवादी व्यवस्था का प्रत्यक्षतः एवं परोक्षतः पूर्ण समर्थन प्राप्त था। लेकिन अंततः हिंदुत्व की राजनीति के आगे सारी विचारधाराओं का दम टूट गया। क्योंकि, इस विचारधारा को पूंजीवादी शक्तियों का ना केवल समर्थन प्राप्त था, बल्कि एक गठजोड़ भी था, जो अब खुल के सामने आ चूका था।
परिणामस्वरुप अब हिन्दू धर्म अपने मूल स्वरुप के लिए प्रचारकों के हाथ की कठपुतली बन के रह गया। इसका सामाजिक पक्ष अब इतना कमजोर हो गया कि नैतिकता एवं अनैतिकता को बाज़ार ने तय करना शुरू कर दिया। अतःआज हिन्दू धर्म के जिस रूप को देखा जा रहा है, वह पूर्ण रूप से एक विचारधारा है, जिसका मूल वाहक पूँजीवाद एवं इसके उपकरण हैं।
