मेरे गाँव में बरगद का एक विशाल पेड़ है। आज वह धराशायी हो गया है। मगर सदा से ही ऐसा नहीं था। मैंने देखा है उन्मुक्त आकाश में उसके उठे हुए सिर को और सबको अपनी ओर बुलाती और समेटती हुई उसकी शाखाओं को। बाहर से भी दिखायी पड़ने वाली इसकी जड़ें मेरे गाँव की ज़मीन में कितनी गहरायी तक धँसी थीं, किसी को नहीं पता। सघन पत्तों से आच्छादित मज़बूत भुजाओं की तरह दूर-दूर तक फैली हुई इसकी शाखाएँ सबको आश्रय प्रदान करती थीं। उन शाखाओं के पत्तों की ओट में विविध रंगों के पक्षी दिन-रात कलरव करते थे। उन शाखाओं की छाँह में थकित खेतिहर विश्रांति पाते थे और श्रमिकों के श्रम-सीकर शीतलता पाकर सूखते थे। अनजान पथिक भी इसकी शीतल छाया से आकृष्ट होकर इसकी किसी शाखा पर थोड़ी देर बैठकर अपनी क्लांति दूर करते थे। मेरी पीढ़ी ही नहीं, मुझसे पहले वाली और बाद वाली पीढ़ियाँ भी उसकी मोटी शाखाओं पर खेलते-कूदते हुए और बरगद के वात्सल्य का अनुभव करते हुए बड़ी हुई हैं। मेरे गाँव की ज़मीन पर सदियों से शान से खड़े इस बरगद के वितान के नीचे किसी दूसरे पौधे ने कभी विकसित होने की कोशिश की तो भी वह बरगद का ही होकर रह गया। इतना समाहारशील था इस बरगद का व्यक्तित्व। हवा पूरबा हो या पछुआ – इस बरगद के नीचे केवल बरगद की हवा होती थी। इस तरह का बरगद सब जगह नहीं होता है।
इसे काटने की बात तो दूर, किसी ने इसकी डालों तक को नहीं छुआ। लोग मानते हैं कि इसकी टहनियों को तोड़ना भी पाप है। सबका प्यार पाकर ही यह निर्विरोध इतना बड़ा हो सका। अंधड़ों के आने पर इसकी टहनियाँ आपस में ख़ुद टकराती थीं, मगर अंधड़ के गुजर जाने पर सब कुछ सामान्य हो जाता था और यह सदैव अपनी गोद में यह सबको समान रूप से समेटे रहा। ताजिया भी उसी की छाँह में सजता था और होली गाने वालों की टोली भी पहला गीत उस बरगद को अर्पित करके ही गाँव में निकलती थी।
इस बरगद ने सदियों से आते हुए हज़ारों तूफ़ानों को झेला था। उन भयानक झंझावातों से कई बार इसकी पत्तियाँ बिखर जाती थीं, कभी इसकी मज़बूत शाखाएँ भी टूट जाया करती थीं, परंतु इसकी जड़ें कभी नहीं उखड़ी थीं। कई बार भयानक बाढ़ भी आयी। गाँव के सारे घर डूब गये। कई बड़े-बड़े और पुराने पेड़ या तो गिर गये या सूख गये। परंतु उन भयंकर बाढ़ों में भी यह उसी अडिगता के साथ खड़ा रहा; बिना गिरे, बिना झुके – अपनी गोद में बाढ़-पीड़ितों को शरण देते हुए।
इसीलिए लोग इसे देवता मानते थे।
बरगद ने बाढ़ और तूफ़ान दोनों को झेला था और दोनों को लगातार परास्त भी करता रहा। लेकिन अलग-अलग। लेकिन पिछली बार बाढ़ और तूफ़ान दोनों आये एक ही साथ। पहले महीनों तक जमे पानी ने ज़मीन को गीला बनाया, नीचे तक गीला बनाया, वहाँ तक, जहाँ तक बरगद की जड़ें जाती थीं। जब वह ज़मीन बरगद की विशालता को सँभालने में असमर्थ हो रही थी और बरगद किसी तरह अपने को खड़ा रखने की कोशिश में उलझा हुआ था, उसी समय भयानक तूफ़ान आया। सिलसिली ज़मीन पर किसी तरह अपने को थामे रखने के जद्दोजहद में उलझा हुआ बरगद उस तूफ़ान के थपेड़ों को बर्दाश्त नहीं कर सका और आर्तनाद करते हुए झुक गया।
तूफ़ान थम गया। बाढ़ का पानी उतर गया। लेकिन उस बुरे वक्त के गुजर जाने के बाद भी बरगद अभी तक झुका हुआ ही है। एक बार झुक जाने पर फिर से खड़ा होने में वक्त लग जाता है।
कई लोगों को लगता है कि पेड़ अब गिर गया है। अब यह कभी नहीं सीधा खड़ा होगा। लेकिन पुराने अनुभवी लोग कहते हैं कि बरगद कभी नहीं मरता। वह सदैव झुका हुआ भी नहीं रहता। बरगद की शाखाओं से भी जड़ें निकलती हैं। उसकी शाखाओं से निकली जड़ें ही उसे फिर से खड़ा कर देती हैं।
पुराने लोग कहते हैं कि उन्होंने पुरखों से सुना है कि पहले भी बरगद एक बार इसी तरह झुक गया था, मानो कमर टूट गयी हो। उस समय भी इसी तरह बाढ़ और तूफ़ान ने एक ही साथ क़हर मचाया था। गाँव के लोग बरगद के झुक जाने से उदास हो गये थे और उन्हें लगा था कि बरगद अब कभी नहीं उठेगा। लेकिन लोगों की उदासी को प्रसन्नता में बदलते हुए यह फिर से खड़ा हो गया था। यह बरगद है। कभी मर नहीं सकता। सदा झुका हुआ भी नहीं रह सकता। इसीलिए इसकी अमर जिजीविषा इसे फिर से खड़ा कर देगी।
जिन बच्चों ने बरगद की कहानियाँ सुनी हैं और जो सयाने लोग बरगद की छाँव में खेलकर बड़े हुए हैं और जो महिलायें बरगद के फेरे लेकर अपने पति और बच्चों के दीर्घजीवी होने की कामना करती रही हैं और जिन श्रमिकों के श्रम-सीकरों को बरगद की शीतलता ने सुखाया है और जिन लोगों ने उसके नीचे ताजिए को सजाया है और जिन लोगों ने उसके नीचे फाग का पहला गीत गाकर होली की शुरुआत की है – वे सारे लोग बरगद के प्रति आभार से भरे हुए हैं। वे बरगद के गिर जाने से दुखी हैं। ये ढेर सारे लोग बरगद को जा-जाकर निहारते हैं और उसके फिर से खड़े होने की कामना करते हैं।
बरगद को नज़दीक से देखने वाले लोगों का कहना है कि उसमें फिर से उर्ध्वमुखी शाखाएँ फूटने लगी हैं और उसकी भूलुंठित शाखाओं से जड़ें निकलकर ज़मीन में फिर से समाने लगी हैं। उनका पूरा विश्वास है कि बरगद फिर से खड़ा हो जाएगा। वे बताते हैं कि बरगद जब खड़ा हो जाएगा तो उसकी शाखाओं पर हज़ारों पक्षियों का फिर से बसेरा होगा, बच्चे फिर किलकारियाँ भरते हुए उसकी छाँव में खेलेंगे, उसकी शीतल छाया में श्रमिकों और खेतिहरों के श्रम-बिंदु फिर से सूखेंगे, अगले साल फिर से उसके नीचे ताजिया सजेगा और अगली होली में फिर से फाग का पहला गीत वहीं गाया जाएगा और फिर से उसके तले पूरबा-पछुआ नहीं, केवल बरगद की हवा होगी।
क्योंकि बरगद मरता नहीं। उसे कोई नहीं मार सकता – न बाढ़, न तूफ़ान। इसलिए कि वह बरगद है। इसलिए कि वह जीवन धारा है।
