लगातार हो रही बारिश और भूस्खलन ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि आखिर हम प्रकृति के साथ कैसा व्यवहार कर रहे हैं? जम्मू क्षेत्र में मंगलवार को हुई भयावह घटना में वैष्णो देवी मंदिर मार्ग पर हुए भूस्खलन ने 32 जिंदगियाँ निगल लीं। कई लोग अब भी मलबे में दबे बताए जा रहे हैं। तीर्थयात्रा को अंततः स्थगित करना पड़ा, लेकिन सवाल यह है कि यह फ़ैसला पहले क्यों नहीं लिया गया? जब आसमान कई दिनों से बरस रहा था और पहाड़ की ढलानों से भूस्खलन का खतरा मंडरा रहा था, तब भी तीर्थयात्रियों की सुरक्षा से अधिक श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ाने पर जोर क्यों दिया गया?
सिर्फ जम्मू-कश्मीर ही नहीं, बल्कि पूरा उत्तर भारत इस समय जलविपदा से जूझ रहा है। 14 अगस्त को किश्तवाड़ जिले के मचैल माता मंदिर मार्ग पर बादल फटने से 65 तीर्थयात्रियों की मौत हो गई। हिमाचल प्रदेश के मंडी, कांगड़ा, कुल्लू और चंबा जैसे जिलों में बाढ़ और भूस्खलन का कहर जारी है। राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अनुसार जून से अगस्त 2025 तक हिमाचल में ही 156 मौतें दर्ज की गईं और 38 लोग अब भी लापता हैं। आर्थिक नुकसान का अनुमान 2,394 करोड़ रुपये तक पहुंच गया है।
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हिमाचल में अगस्त में सामान्य से 44% अधिक बारिश हुई है। लाहौल-स्पीति, शिंकुला दर्रा, बारालाचा और रोहतांग में समय से पहले बर्फबारी ने आपदा का खतरा और बढ़ा दिया है। पंजाब भी सुरक्षित नहीं है—गुरदासपुर के जवाहर नवोदय विद्यालय में 400 से अधिक छात्र और 40 शिक्षक बाढ़ में घंटों फंसे रहे। अभिभावकों ने आरोप लगाया कि प्रशासन मुख्यमंत्री के दौरे की तैयारियों में व्यस्त था, बच्चों की सुरक्षा में नहीं। यह संवेदनहीनता ही असली त्रासदी है।
अगर हम राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो स्थिति और भयावह है। केंद्रीय जल आयोग और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में हर साल बाढ़ से औसतन 1,600 लोग मारे जाते हैं और करीब 1,07,000 करोड़ रुपये की आर्थिक क्षति होती है। असम, बिहार, उत्तराखंड, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा — लगभग हर राज्य इस आपदा की चपेट में है। लेकिन हमारी तैयारियाँ केवल “फौरी राहत” तक सीमित रहती हैं — एनडीआरएफ की टीमें भेज दीं, कुछ मुआवजे घोषित कर दिए और सरकार ने हेलीकॉप्टर से सर्वे कर लिया। लेकिन दीर्घकालिक समाधान पर कोई गंभीर कदम नहीं उठता।
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असल समस्या यह है कि इन आपदाओं को हम अब भी “प्राकृतिक” कहकर टाल रहे हैं, जबकि इनकी जड़ें पूरी तरह मानव निर्मित हैं। पहाड़ों को काटकर होटल और सड़कें बनाना, नदियों की धारा को रोकना, जंगलों का अंधाधुंध दोहन, खनन और शहरीकरण — यही असली वजहें हैं। वैज्ञानिक लगातार चेतावनी देते रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण मानसून की तीव्रता और अनियमितता दोनों बढ़ रही हैं। अंतर-सरकारी जलवायु परिवर्तन पैनल की रिपोर्ट कहती है कि हिमालयी क्षेत्र में बादल फटने और भूस्खलन जैसी आपदाओं की आवृत्ति अगले दशक में दोगुनी हो सकती है। लेकिन सरकारें इन संकेतों को अनदेखा कर रही हैं।
विडंबना यह है कि जब बाढ़ आती है तो मरने वाले गरीब, किसान, मज़दूर और तीर्थयात्री होते हैं। नेताओं और अधिकारियों के आलीशान घर, गाड़ियाँ और हेलीकॉप्टर तो सुरक्षित रहते हैं। उन्हें बाढ़ का दर्द सिर्फ हवाई सर्वेक्षण और टीवी कैमरों तक महसूस होता है। आम जनता को न केवल जान गंवानी पड़ती है, बल्कि विस्थापन, राहत शिविरों में अपमानजनक जीवन और संजोई गृहस्थी के उजड़ने का दंश भी झेलना पड़ता है।
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इसलिए अब वक्त आ गया है कि इन आपदाओं को केवल “प्राकृतिक प्रकोप” कहकर पल्ला न झाड़ा जाए। इन्हें मानव निर्मित आपदाएं मानकर दोषियों की पहचान और जवाबदेही तय की जानी चाहिए। जब तक पहाड़ों के अंधाधुंध दोहन, नदियों के बेवजह अतिक्रमण और जंगलों की कटाई पर लगाम नहीं लगाई जाती, तब तक ऐसी त्रासदियां बार-बार घटती रहेंगी।प्रकृति हमें लगातार संकेत दे रही है कि उसके साथ संतुलन बनाकर चलो। अगर हम नहीं संभले तो आने वाला समय और भयावह होगा। सरकारें अपनी राजनीतिक और प्रशासनिक सुस्ती से चाहे अनदेखी करती रहें, लेकिन जनता को जागना होगा, क्योंकि आखिरकार दांव पर उनकी जान और जीवन ही है।

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