मार्क्सवादी इतिहास-दृष्टि 2
मार्क्सवाद एक दर्शन है, जीवन और जगत को देखने की एक दृष्टि है और द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद उस दर्शन की रीढ़ है। इसको जाने-समझे बिना मार्क्सवाद के किसी भी पक्ष को नहीं जाना-समझा जा सकता है। यही मार्क्सवादी दर्शन का वह आधार है, जिस पर मार्क्सवाद का पूरा वितान खड़ा हुआ है। इसलिए यह ऐतिहासिक भौतिकवाद को समझने के लिए ही नहीं, बल्कि मार्क्सवादी दर्शन के आधार और दिशा को समझने के लिए भी प्रस्थान-बिन्दु है।
कोई भी सिद्धान्त या विचार शून्य से उत्पन्न नहीं होता है। बल्कि इतिहास और परंपरा में, कहीं-न-कहीं, उसका बीज मौजूद होता है। प्रज्ञावान पुरुष अपनी प्रातिभ क्षमता से उसे नूतन रूप प्रदान करता है। जैसे एक दक्ष शिल्पकार लकड़ी के अनुपयोगी कुंदे को काट-छांटकर उपयोगी उपस्कर में परिवर्तित कर देता है और उस शिल्पित उपस्कर में कुंदे का कोई रूप शेष नहीं रहता है, उसी प्रकार मार्क्स ने अपने पहले से आ रहे द्वन्द्वात्मक और भौतिक सिद्धांतों को मिलाकर उसमें वैज्ञानिक आत्मा भरने का काम किया, जिससे वह पूर्व के समस्त आधार दर्शनों की अपेक्षा नूतन मौलिकता के साथ सामने आया। मार्क्सवादी दर्शन के तात्कालिक सैद्धान्तिक प्रभाव-स्रोत की तलाश उन्नीसवीं शताब्दी के जर्मन दर्शन और विशेषकर हीगेल (1770-1830) और फायरबाख (1804-1872) के दार्शनिक सिद्धांतों में की जा सकती है।
पहले द्वंद्वात्मकता को लेते हैं। स्वयं मार्क्स-एंगेल्स ने भी स्वीकार किया है कि उन्होंने यह सिद्धान्त हीगेल से ग्रहण किया है। लेकिन हीगेल से भी पहले द्वंद्व का सिद्धान्त यूनानियों के बीच प्रचलित था। ‘dialectic’ शब्द, जिसका हिन्दी अनुवाद ‘द्वंद्व’ है, का विकास ही ग्रीक शब्द ‘dialego’ से हुआ है, जिसका अर्थ वाद-विवाद करना होता है। इस प्राचीन यूनानी सिद्धान्त के अनुसार वाद-विवाद से सत्य की सृष्टि होती है। प्लेटो की दार्शनिक रचनाएँ इसी द्वंद्व-पद्धति से सत्य पाने का बौद्धिक प्रयास हैं। हीगेल ने द्वंद्व की इस पद्धति को इसी यूनानी स्रोत से ग्रहण किया। लेकिन हीगेल ने इसे कथोपकथन या बहस-द्वारा सत्य का अन्वेषण करने के अर्थ में द्वंद्व सिद्धान्त को ग्रहण नहीं किया, बल्कि उसने इसमें संघर्ष की अनिवार्यता मानी कि वाद-विवाद में दो विरोधी मतों में संघर्ष होता है और उसी संघर्ष से नए मत का जन्म होता है। अर्थात सत्य की सृष्टि के लिए संघर्ष अनिवार्य है। (हिन्दी साहित्य कोश, भाग 1, पृष्ठ 292-93)। हीगेल की यह द्वंदात्मक प्रक्रिया वाद (thesis), प्रतिवाद(antithesis) तथा संवाद(synthesis) की प्रक्रिया है। वाद एक विचार की पुष्टि करता है, प्रतिवाद उसका निषेध करता है और ‘संवाद’ वाद और प्रतिवाद में जो सत्य है, उसे स्वयं में समाहित करता है। इस तरह वह हमें यथार्थ के अधिक निकट ले आता है। लेकिन जैसे ही हम संवाद को अधिक निकट से देखते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि वह अभी भी अपूर्ण है। अतः वह पुनः वाद का रूप धारण कर लेता है और पुनः वही पूर्व की संघर्ष की प्रक्रिया को प्रारंभ कर देता है। फलत: उसका प्रतिवाद द्वारा निषेध होता है और संवाद में पुनर्मिलन होता है। इस प्रकार यह त्रिकोणात्मक विकास प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक कि तत्व या विचार आदर्श रूप ग्रहण नहीं कर लेता है। हीगेल ने अपने इस मत का प्रतिपादन विश्वात्मा (world spirit) संबंधी मान्यता को सिद्ध करने के लिए किया था।
हीगेल की समझ थी कि यह द्वंद्व चिंतन की धारणाओं के निर्माण में ही काम करता है, प्रकृति और इतिहास-निर्माण पर उसका कोई प्रभाव नहीं है। इस तरह प्रत्ययवादी हीगेल ने ‘द्वन्द्वात्मक आदर्शवाद’ (डायलेक्टिकल मटेरियलिज़्म) की स्थापना की। परंतु इसके अंदर विकास के सिद्धान्त का एक बुद्धिसंगत बीज-कोश छिपा हुआ था, जिसका उद्घाटन मार्क्स-एंगेल्स ने किया।
मार्क्स ने हीगेल के द्वन्द्ववाद को तो लिया, लेकिन पूरी तरह उलटकर। उन्होंने मानव मस्तिष्क के विरोधी प्रत्ययों के संघर्ष के रूप में नहीं और न ही वाद, प्रतिवाद और संवाद के रूप में, बल्कि प्रकृति और इतिहास के विकास में भी इस द्वंद्वात्मकता की व्याप्ति देखी। उन्होंने बताया कि प्रकृति में द्वंद्व का एकछत्र साम्राज्य है और इतिहास भी द्वन्द्वात्मक विकास के रास्ते ही आगे बढ़ता है। मानवीय चिंतन की भूमिका इस प्राकृतिक और सामाजिक विकास के द्वंद्व का अध्ययन करने में है। स्वयं मार्क्स ने हीगेल के द्वन्द्ववाद से अपने द्वन्द्ववाद का अंतर बताते हुए कहा – “मेरा द्वंद्ववादी तरीका हीगेल के तरीके से भिन्न ही नहीं है, बल्कि उसका उल्टा है। हीगेल …….. मानवीय मस्तिष्क की जीवन-प्रक्रिया को, अर्थात, विचार करने की क्रिया को ‘विचार’ के नाम पर एक स्वतंत्र विषय बना देते हैं। उनके लिए यही चिंतन वास्तविक संसार की प्रेरणा-शक्ति (रचयिता) है। उनके लिए वास्तविक संसार सिर्फ ‘विचार’ का बाहरी, घटना-प्रवाह वाला रूप है। इसके विपरीत, मेरे लिए विचार इसके सिवा कुछ नहीं है कि भौतिक संसार ही इंसान के दिमाग में प्रतिबिम्बित हुआ है और विचारों के रूप में बदल गया है।“ (पूँजी, खंड 1, पृष्ठ 19)। अर्थात हीगेल का जहाँ मत था कि विचार बाह्य संबंधों से निरपेक्ष मस्तिष्क की एक स्वतंत्र प्रक्रिया है, वहीं मार्क्स ने भौतिक और वास्तविक जीवन को आधार बताते हुए विचारों को उसका प्रतिबिंब बताया। इसीलिए एंगेल्स ने कहा कि मार्क्स ने हीगेल के सिर के बल खड़े द्वन्द्ववाद को पैरों के बल अर्थात सीधा खड़ा किया है। (ड्यूहरिंग मत-खंडन, पृष्ठ 530)।
अब भौतिकवाद को लेते हैं। भाववादी दर्शन की तरह ही भौतिकवादी दर्शन की धाराएँ भी हजारों वर्षों से प्रवाहित हैं। प्राचीन यूनान के डिमोक्रिट्स से लेकर फ्रांस के हौलबाश, रूस के चर्नीशेव्स्की, भारत के चार्वाक आदि में भौतिकवादी दर्शन हजारों वर्षों से अलग-अलग रूपों में फलता-फूलता रहा है। लेकिन मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद पर फायरबाख के भौतिकवाद का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा। फायरबाख के दर्शन का प्रस्थान-बिन्दु यह विचार था कि हर उस वस्तु, जो अस्तित्व में है, आधार प्रकृति है। प्रकृति ही मानव और उसके मस्तिष्क की जननी है। विज्ञान का भी एकमात्र आधार भौतिक संसार ही हो सकता है। प्रकृति से अलग हो जाने पर दर्शन शून्य और सारहीन हो जाता है। अर्थात मनुष्य का अस्तित्व समूची ऐतिहासिक-सांस्कृतिक परंपरा का प्रतिबिंब मात्र है, वह भोक्ता मात्र है। उसकी कोई भूमिका नहीं होती।
मार्क्स के अध्ययन के निष्कर्ष इससे भिन्न थे। मार्क्स न तो आदर्शवादियों की तरह भूल करते हैं कि मनुष्य की चेतना ही सब कुछ है और भौतिक जीवन उसकी छाया है और न ही भौतिकवादियों की तरह यह मानते हैं जड़ पदार्थ, भौतिक जीवन ही सब कुछ है और चेतना केवल निष्क्रिय अनुभवों का भोक्ता है। उनके अनुसार चेतना और बाह्य परिस्थितियों में संघर्ष होता है। यह संघर्ष निश्चित भौतिक परिस्थितियों में जन्म लेता है। इसलिए मनुष्य का उसकी ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में अवलोकन आवश्यक है। मार्क्स का भौतिकवाद मनुष्य को उसकी ठोस भौतिक परिस्थितियों की सापेक्षता में देखता है। अर्थात अकेले भौतिक परिस्थितियाँ ही सर्वेसर्वा नहीं हैं, बल्कि मनुष्य की चेतना की भूमिका भी महत्वपूर्ण है।
इस तरह मार्क्स के पहले के भौतिकवाद से मार्क्स का भौतिकवाद कई मायनों में भिन्न था। सबसे महत्वपूर्ण तो यह कि पहले की भौतिकवादी व्याख्याएँ यांत्रिक थीं, मार्क्स का भौतिकवाद चेतन भौतिकवाद था। दूसरी बात यह कि पहले का भौतिकवाद अधिभूतवादी भौतिकवाद था। उसमें द्वंद्व और विकास के चरण नदारद थे। मार्क्स ने अपने भौतिकवाद को द्वंद्व और विकास के पैरों पर खड़ा किया। मार्क्स के पूर्व का भौतिकवादी प्रकृति की तो भौतिकवादी व्याख्या कर लेते थे, परंतु सामाजिक जीवन के घटना-प्रवाहों को देखने की उनकी दृष्टि भाववादी ही रही। मार्क्स पहले व्यक्ति हुए, जिन्होंने मानवीय प्रगति के भौतिक स्रोतों को देखने में सफलता हासिल की। और, मार्क्स की सबसे बड़ी सफलता यह थी कि उन्होंने अपने भौतिकवाद को क्रांतिकारी व्यवहार के माध्यम से सामाजिक रूपान्तरण के दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया। मार्क्स का प्रसिद्ध कथन है – “दर्शनिकों ने विश्व की तरह-तरह से केवल व्याख्या की है, मुख्य बात तो उसे बदलने की है।“ (जर्मन विचारधारा, पृष्ठ 647)
मार्क्स ने द्वन्द्ववाद और भौतिकवाद के नए आयामों को उद्घाटित करने के बाद दोनों में एक अभूतपूर्व एकता स्थापित की, जिसे ‘द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद’ कहा गया। (द्वन्द्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद के मूल सिद्धान्त, पृष्ठ 25)। यह द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद प्रकृति, इतिहास और मानवीय संबंधों को देखने का एक नया चश्मा प्रदान करता है। इस चश्मा को ढूँढ निकालने के बाद जब मार्क्स-एंगेल्स ने इतिहास, मानवीय संबंध और आर्थिक व्यवहारों को समेकित रूप से इसी चश्मे से देखना शुरू किया तो सारी बातें और उनका अंतर्संबंध साफ-साफ दिखने लगा। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के इस चश्मे से न केवल अतीत के इतिहास को देखा जा सकता है, बल्कि आगत इतिहास के भी मानवीय संबंधों और आर्थिक व्यवहारों के स्वरूप को देखा जा सकता है। स्थान और काल के परे यह किसी भी देश और काल के विवेचन का सार्वकालिक और सार्वदेशिक सूत्र है। ऐतिहासिक भौतिकवाद भी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांतों का ही सामाजिकीकरण है।
द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद दो बातों में अपने पूर्व के सारे दर्शनों से भिन्न है। पहली भिन्नता तो यह है कि यह वैज्ञानिक है। वैज्ञानिक इसलिए है, क्योंकि यह सभ्यता के विकास के कारण-कार्य संबंध की व्याख्या कर सकने में समर्थ है, पहले की दार्शनिक शाखाओं में जिसकी क्षमता नहीं थी। इसी वैज्ञानिकता के कारण यह सार्वदेशिक और सार्वकालिक हो जाती है। दूसरी भिन्नता इसकी यह है कि यह दर्शन केवल बौद्धिक विलास नहीं है, बदलाव के रास्ते भी प्रदान करता है, जो इसे व्यावहारिक रूप प्रदान करता है और जो इसके पहले के दर्शन में एकदम नहीं है।
संक्षेप में द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की मुख्य विशेषताओं को इस प्रकार चिह्नित किया जा सकता है –
पहला यह कि विश्व का चरित्र भौतिक है तथा उसकी वस्तुएँ और घटनाएँ एक-दूसरे से पूर्णतः संबद्ध हैं। अतः उसके महत्व को निरपेक्षता के आधार पर नहीं, बल्कि सापेक्षता के आधार पर ही समझा जा सकता है। अर्थात् प्रकृति के सभी पदार्थों में आंगिक एकता पाई जाती है।
दूसरा यह कि प्रकृति में पाया जाने वाला प्रत्येक पदार्थ जड़ या स्थिर न होकर गतिशील होता है।
तीसरा यह कि पदार्थिक शक्तियाँ सामाजिक विकास की प्रेरक शक्तियाँ हैं। वे गतिशील ही नहीं, परिवर्तनशील भी हैं। अतः सामाजिक विकास भी उन्हीं के अनुरूप परिवर्तनशील है। परिवर्तन की यह प्रक्रिया द्वन्द्ववाद के माध्यम से चलती है।
चौथा यह कि निरंतर होने वाले परिवर्तन प्रारंभ में परिमाणात्मक (quantitative) चरित्र के होते हैं तथा धीरे-धीरे घटित होते हैं तथा जब उनकी मात्रा बढ़ जाती है तो एकाएक वह गुणात्मक (qualitative) परिवर्तन में बदल जाते हैं। गेहूँ का बीज इसका अच्छा उदाहरण है। गेहूँ के बीज को बोया जाना वाद है, उसका अंकुरण प्रतिवाद है, और धीरे-धीरे गेहूँ के पौधे का बड़ा होना और उसकी बाली का पकना संवाद है। गेहूँ के एक दाने का बाली के माध्यम से बहुत से दाने में परिवर्तन उसके मात्रात्मक परिवर्तन से गुणात्मक परिवर्तन का प्रतीक है। बीज के रूप में गेहूँ का बोया जाना, उसका अंकुरण होना, उसका पौधा बनना तथा बाली पकना और एक से अनेक दाने हो जाना यह द्वंद्वात्मक प्रक्रिया का ही अच्छा उदाहरण नहीं है, वरन् मात्रात्मक से गुणात्मक परिवर्तन का भी एक अच्छा उदाहरण है।
पाँचवाँ यह कि परिमाणात्मक परिवर्तन के गुणात्मक परिवर्तन में अभिव्यक्त होने की प्रक्रिया को एक क्रांतिकारी प्रक्रिया माना जाता है, जो एक छलांग के रूप में होती है। अर्थात् वह एक मौलिक परिवर्तन की निशानी होती है।
छठा यह कि हर वस्तु में उसके विरोधी तत्व विद्यमान होते हैं, जो समय पाकर अभिव्यक्त होते हैं। उनमें होने वाले संघर्ष से वह वस्तु नष्ट हो जाती है और नई वस्तु उसका स्थान ले लेती है, जो पहले वाली वस्तु से अधिक विकसित होती है तथा जो विकास के क्रम की निरंतरता को बनाए रखती है। इस तरह द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद दर्शन का वह सिद्धान्त है, जो मानव-सभ्यता के विकास को समझने की वैज्ञानिक दृष्टि तो देता ही है, उसे बदलने के लिए भी हमें एक सूत्र प्रदान करता है।
स्रोत
- कार्ल मार्क्स, पूँजी, खंड 1, मास्को, 1965
- एंगेल्स, ड्यूहरिंग मत-खंडन, मास्को, 1980
- मार्क्स और एंगेल्स, जर्मन विचारधारा, मास्को, 1968
- ए. स्पिरकिन और ओ याखोत, द्वन्द्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवाद के मूल सिद्धान्त, इंडिया पब्लिशर्स, लखनऊ, 1977
- हिन्दी साहित्य कोश, ज्ञानमंडल लिमिटेड, वाराणसी, 1985
- www.politicalweb.in/dialectical-materialism-in-hindi/