सरोज स्मृति : समष्टि से व्यष्टि के पथ पर

पराजय और अकेलेपन के बोध में पिता-पुत्री के बीच बेहद जीवनमय संबंध अपने लालित्य और तरुणाई के नैसर्गिक संगीत से भरा है। सरोज स्मृति कविता करुणा, व्यंग्य तथा दिव्य सौंदर्य का एक गीत है, जिसके शब्दों में निराला का महान व्यक्तित्व प्रकट हुआ है। पिता-पुत्री के प्रेमपथ का यह पाथेय मातृत्व और पितृत्व के एकाकार की उष्मामयी स्नेह-छाया साहित्य रचना के माध्यम से विश्व के लिए बेहद अर्थवान और प्रेरक है।

कवि के काव्य-कला की सबसे बड़ी विशेषता है – चित्रण कौशल। आंतरिक भाव हो या बाह्य जगत् के दृश्य रूप, संगीतात्मक ध्वनियाँ हों या रंग और गंध, सजीव चित्रण हो या प्राकृतिक दृश्य – सभी अलग-अलग लगने वाले तत्वों को घुला-मिला कर निराला ऐसे जीवंत चित्र उपस्थित करते हैं कि पढ़ने वाला उन चित्रों के माध्यम से से ही कवि के मर्म तक पहुँच सकता है। इनके चित्रों में इनका भाव-बोध ही नहीं, चिंतन भी समाहित रहता है। इसलिए उनकी बहुत-सी कविताओं में दार्शनिक गहराई उत्पन्न हो जाती है। इस नये चित्रण-कौशल और दार्शनिक गहराई के कारण अक्सर निराला की कविताएँ कुछ जटिल हो जाती हैं, जिसे ना समझने के नाते विचारक लोग उनपर दुरूहता आदि का आरोप लगाते हैं।

निराला के किसान-बोध ने ही उन्हें छायावाद की भूमि से आगे बढ़कर यथार्थवाद की नई भूमि निर्मित करने की प्रेरणा दी। विशेष स्थितियों, चरित्रों और दृश्यों को देखते हुए उसके मर्म को पहचानना एवं उन विशिष्ट वस्तुओं को ही चित्रण का विषय बनाना, निराला के यथार्थवाद की एक उल्लेखनीय विशेषता है।

सरोज स्मृति 1935 ई. में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला द्वारा लिखी लंबी कविता और एक शोकगीत है। निराला ने यह शोकगीत 1935 में अपनी 18 वर्षीया पुत्री सरोज के निधन के उपरांत लिखा था। इसका प्रथम प्रकाशन 1938 या 1939 में प्रकाशित “द्वितीय अनामिका” के प्रथम संस्करण में हुआ था।

सरोज स्मृति कविता छायावादी कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला द्वारा रचित हिन्दी साहित्य में अपने ढंग का एकमात्र विलक्षण शोक काव्य है। एक मार्मिक शोक गाथा, जिसके भीतर गहरी पीड़ा के साथ संघर्ष भी है, जो एक पिता और कवि के रूपों में रचा गया है। इसमें दिवंगत पुत्री के समक्ष तकलीफदेह आत्मालोचना के माध्यम से सामाजिक आलोचना का आलेख्य है –

“धन्ये, मैं पिता निरर्थक था,
कुछ भी तेरे हित न कर सका!
जाना तो अर्थागमोपाय,
पर रहा सदा संकुचित-काय
लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।
शुचिते, पहनाकर चीनांशुक
रख सका न तुझे अत: दधिमुख।
क्षीण का न छीना कभी अन्न,
मैं लख न सका वे दृग विपन्न;
अपने आँसुओं अत: बिम्बित
देखे हैं अपने ही मुख-चित।”

पराजय और अकेलेपन के बोध में पिता-पुत्री के बीच बेहद जीवनमय संबंध अपने लालित्य और तरुणाई के नैसर्गिक संगीत से भरा है। सरोज स्मृति कविता करुणा, व्यंग्य तथा दिव्य सौंदर्य का एक गीत है, जिसके शब्दों में निराला का महान व्यक्तित्व प्रकट हुआ है। पिता-पुत्री के प्रेमपथ का यह पाथेय मातृत्व और पितृत्व के एकाकार की उष्मामयी स्नेह-छाया साहित्य रचना के माध्यम से विश्व के लिए बेहद अर्थवान और प्रेरक है।

कविता मृत्यु को कालातीत बना पुत्री के आभामय मुखमंडल का सृजन करता है। सही अर्थ में कविता ने मृत्युपरान्त जीवन और उसकी उपस्थिति की संवेदना वाला काव्य मूल्य रचना को अमर्त्य बना दिया है। कविता में करुणा भाव की प्रधानता के साथ विराग भाव के बीच नीति, श्रृंगार, व्यंग्य और हास्यमूलक प्रसंगों को पिरोना इसे काव्य जगत में अनोखी विशिष्टता के साथ प्रस्तुत करता है। इतना ही नहीं, अपने ढंग की विरल और एकल रचना जिसमें रचनाकार ने अपना जीवन भी समाविष्ट कर दिया है। कविता जीवन से जुड़ी भाव संवेदनाओं का समावेशन है जिसमें दु:ख और स्मृतियों का अद्भुत चित्रण है।

सरोज स्मृति कवि के व्यक्तिगत जीवन और यथार्थ का चित्रांकन है तो दूसरी ओर अपने युग की त्रासदी गाथा है। कवि के कठोर अनुभव संग प्रिया और पुत्री की स्मृति का अंकन है। मध्यम वर्गीय कर्तव्यनिष्ठ निर्धन पिता के अंतर्मन की वेदना की अभिव्यक्ति है – अर्थ ही अनर्थ का मूल था के भाव से, बढ़ते पूंजी संस्कार से अछूत हो स्वार्थ समर निरंतर पराजित होने की अंर्तव्यथा है।

ऊनविंश पर जो प्रथम चरण
तेरा वह जीवन-सिन्धु-तरण;
तनये, ली कर दृक्पात तरुण
जनक से जन्म की विदा अरुण!
गीते मेरी, तज रूप-नाम
वर लिया अमर शाश्वत विराम
पूरे कर शुचितर सपर्याय
जीवन के अष्टादशाध्याय,
चढ़ मृत्यु – तरणि पर तूर्ण-चरण
कह – “पित:, पूर्ण आलोक-वरण
करती हूँ मैं, यह नहीं मरण,
‘सरोज’ का ज्योति:शरण – तरण!” —

“अशब्द अधरों का सुना भाष,
……कुछ वहाँ, प्राप्ति को समाधान”

कवि ने अपनी प्रिय पुत्री सरोज के बाल्यकाल से मृत्यु तक की घटनाओं को प्रभावशाली ढंग से रेखांकित करते हुए बाल्यावस्था एवं तरुणाई के मार्मिक और पवित्र चित्र को अदभुत ढंग से समेटा है।

कवि पिता के रूप में अपनी भाग्यहीनता से संघर्ष कथा के साथ सामाजिक सरोकार और पुत्री के प्रति कर्त्तव्यबोध में अकर्मण्यता बोध को जीवंत व प्रभावशाली ढंग से उकेरा है। वस्तुत: यह शोक गीत उनके जीवन संघर्ष रूप में अभ्युदित है। इसमें अपने हृदय की करूणा उड़ेलते हुए अपना जीवन-दर्शन प्रस्तुत करते हैं। सही अर्थ में कहा जाय तो खड़ी बोली में स्मृति समावेशन का शोक गीत के परिवेश ले एक वियोग श्रृंगार है। संतृप्त हृदय का उदगार है, जो जीवन की पीड़ा और संघर्षों का हलाहल पान करने वाले कवि बन निखरता है। छायावादी कवि होने के कारण निराला ने अपनी बात प्रतीकात्मक शैली में अभिव्यक्त की है। किंतु सरोज स्मृति जैसे कतिपय रचनाओं में उनके आत्म चरित्र आत्मक शैली में परिलक्षित है। सरोज स्मृति एक गहरे सामाजिक दायित्व बोध से हमें झकझोरती है। एक गहरे मौन के भीतर से गुजरते हुए नए अर्थ में नई पीड़ा का अहसास देता है। पराजय, ग्लानि और वात्सल्य के निर्जन मोड़ को आभाषित करता है। यह एक ऐसी शोक गाथा बन उभड़ती है, जो भारत की बेटियों की जीवन गाथा में विस्तार पा जाती है। जहाँ ठंढी क्रूरता और क्षय से भरी एक कठोर सामंती समाज संरचना आज भी मौजूद है। “कोई न कोई सरोज प्रतिदिन हमारे सामने धीरे धीरे खत्म होती है हम उसे बचा नहीं पाते हैं।“ वेदनामय जीवन संघर्ष को मात्र एक पंक्ति में उरेल दिया है- “दु:ख ही जीवन की कथा रही,* *क्या कहूँ आज, जो नहीं कही.”

सही अर्थ में सरोज स्मृति दु:ख को मानवीय प्रतिरोध में परिवर्तित करने वाली अनूठी काव्य कला का छायांकन है, जहाँ सामाजिक विषमताओं और विडम्बनाओं का प्रतिकार है।

पुत्री के विवाह के क्षण का हृदय स्पंदन- विवाह के नवरूप दृश्यावली की छवि अंकित करती है। संवेदनाओं का उच्छवास शब्दाकार लेता आत्म संचार करता है। अपने को अर्थ देते शब्द विन्यास का प्रस्फुटन- “तुम पर कलश का शुभ्र जल गिराया जा रहा था और तू उस समय मुझे देखती हुई मंद मंद हस रही थी। तेरे होंठों पर बिजली जैसा कंपन था। तेरे हृदय में प्रियतम की सुंदर छवि झूल रही थी, जिसे अभिव्यक्त करना तेरे लिए संभव नहीं था। लेकिन वह तेरे श्रृंगार के माध्यम से अभिव्यक्त हो रहा था। तेरे झुके हुए नेत्रों से प्रकाश फैल रहा था और होंठ काँप रहे थे। शायद तू कुछ कहना चाहती थी या माँ का अभाव तुझे दर्द दे रहा होगा।

तुझे देखकर मुझे ऐसा लग रहा था कि मेरे जीवन का सुखद क्षणों का प्रथम गीत तो तू ही थी।” दरअसल पुत्री के वैवाहिक काल का श्रृंगार उनकी पत्नी के निराकार स्वरुप का स्मरण था। पत्नी का वह श्रृंगार कविता के माध्यम से कवि के प्राण शिरा को प्रिया संग व्यतीत राग-रंग रस भर रहा था, मानो अतीत खुद वर्तमान बन प्रकाशित हो रहा था पुत्री रूप में।

नव युगल के नव जीवन में प्रवेश के लिए मूक संगीत लहरी का आयोजन अदभुत है जब आत्मजन से निरापद हो दिन रात गाये जाने वाले वैवाहिक गीत का अव्यक्त अभिव्यंजन होता है। विवाह में किसी को भी निमंत्रण नहीं दिया गया था। चहल – पहल से विच्छिनता को कहते हैं कि विवाह में दिन-रात कोई नहीं जगा। यह प्यारा-सा खचित शांत वातावरण – मौन की शहनाई!

पिता विलाप में आलाप का सुर – माँ के अभाव में मातृ शिक्षा का निर्वहन, विवाहोपरांत पिता द्वारा पुत्री के लिए पुष्पशय्या की सजावट का उच्छवास! मातृविहिन शंकुतला के पिता कण्व ऋषि बन कल्पनाशील हो उठते हैं कि शंकुतला की माँ उसे स्वयं छोड़ चली गई थी लेकिन सरोज की माँ तो असमय काल कलवित हुई। पुत्री के स्नेह आंचल की छाया की अमिट छाप भाव संबंध का उदगार है। कहते हैं कि विवाहोपरांत मामी के प्रेममयी गोद पाने, मामा-मामी के प्यार रूपी जल की अपार वर्षा से सिंचित होने का अवसर मिला। वहीं कली के रूप में खिली, स्नेह से पली, वहीं की लता बनी और अंतिम समय में तूने मृत्यु का वरण भी किया था. भाव प्रवण कवि स्वर-

“मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल
युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
दुख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!”

समेण्वित ओजवाणी मुखर हो उठता है- “मुझ पर कितने ही वज्रपात हो, मेरे समस्त कर्म भ्रष्ट हो जाएँ जैसे सर्दी की अधिकता के कारण कमल पुष्प नष्ट हो जाते हैं। लेकिन यदि धर्म मेरे साथ रहा तो मैं विपदाओं को मस्तक झुका कर सहज भाव से स्वीकार कर लूँगा मैं अपने रास्ते से नहीं हटूँगा। और अंत में कह उठते हैं कि बेटी मैं अपने बीते हुए समस्त शुभ कर्मों को तुझे अर्पित करते हुए तेरा तर्पण करता हूँ।“ पुत्री सरोज का तर्पण स्वयं निराला ने दार्शनिक विधान के साथ किया था और अपनी लेखनी के माध्यम से पार्थिव शरीर को अमरत्व प्रदान कर दिया उनकी दृष्टि में पुत्री के अठारह वर्ष का जीवनकाल गीता के अठारह अध्याय के सदृश हैं। विवाह के संदर्भ में रूढ़ियों को तोड़ता स्वाभिमानी कवि हृदय सामाजिक विद्रूपताओं पर प्रहार करने से नहीं चूकता है।

यदि महाजनों को तो विवाह
कर सकता हूँ, पर नहीं चाह
मेरी ऐसी, दहेज देकर
मैं मूर्ख बनूं यह नहीं सुघर,
बारात बुला कर मिथ्या व्यय
मैं करूँ नहीं ऐसा सुसमय।
तुम करो ब्याह, तोड़ता नियम
मैं सामाजिक योग के प्रथम,
लग्न के; पढूंगा स्वयं मंत्र

और अपने संचित कर्मफल के तर्पण का संकल्प कर डालता है –

कन्ये, गत कर्मों का अर्पण
कर, करता मैं तेरा तर्पण!

कालखंड प्रभाव से मुक्त कवि हृदय जाति आधार के समाज का बखिया उधेड़ डालता है –

“ये कान्यकुब्ज-कुल कुलांगार,
खाकर पत्तल में करें छेद,
इनके कर कन्या, अर्थ खेद,
इस विषय-बेलि में विष ही फल,
यह दग्ध मरुस्थल — नहीं सुजल।”

वहीं लेखकीय जगत की जटिलताओं को उदघाटित करने से भी बाज नहीं आता है।

पर संपादकगण निरानंद
वापस कर देते पढ़ सत्त्वर
दे एक-पंक्ति-दो में उत्तर।
लौटी लेकर रचना उदास
ताकता हुआ मैं दिशाकाश
बैठा प्रान्तर में दीर्घ प्रहर
व्यतीत करता था गुन-गुन कर
सम्पादक के गुण; यथाभ्यास
पास की नोंचता हुआ घास
अज्ञात फेंकता इधर-उधर
भाव की चढी़ पूजा उन पर।

इस कविता में उन्होंने अपने शोक के साथ-साथ समाज के प्रति आक्रोश और व्यंग्य प्रकट किया है।

इसकी तुलना रामविलास शर्मा ने विलियम शेक्सपीयर के किंग लियर से करते हुए लिखा है कि हिंदी में ही नहीं, अंग्रेजी में भी ऐसे शोकगीत दुर्लभ हैं। यह कविता हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ शोकगीतों में से एक मानी जाती है।

डॉ. अजय कुमार झा
डॉ. अजय कुमार झा
लेखक, कवि, समीक्षक
डॉ. अजय कुमार झा एक बहुमुखी लेखक हैं जिनकी कविता, साहित्यिक आलोचना और निबंध मानव अनुभव की जटिलताओं को अन्वेषण करते हैं। उनका कार्य संस्कृति और समाज की गहरी समझ का प्रतिबिंब है।
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