हाल के वर्षों में बिहार ने जिस चीज को सबसे अधिक खोया है, वह शिक्षा है। बुनियादी ढाँचों के विनिर्माण की चकाचौंध में बुनियादी आवश्यकता ही कहीं खो गई है। समाज के विकास का मानक कंक्रीट नहीं हो सकते हैं। बल्कि उन बेजान कंक्रीटों के अन्तराल में बसा हुआ उपेक्षित, परंतु स्पंदनशील जीवन, उस जीवन की लालसाएँ और उन लालसाओं को लपकने के लिए उठे हुए हाथों के साथ सीढ़ियों पर लगातार ऊपर चढ़ते हुए पैर होते हैं।
बिहार में नारे हैं ‘न्याय के साथ विकास’ के, देश में सबसे अधिक, 9.07% की दर से वार्षिक विकास के। इन नारों की गूँज एक चौथाई शताब्दी से विश्वास दिला रही है कि राज्य का अप्रतिम विकास हो रहा है, देश में सबसे तेज गति से। लेकिन एक चौथाई शताब्दी से सबसे तेज गति से विकास के बावजूद, नीति आयोग के द्वारा जारी सतत विकास लक्ष्य रिपोर्ट में एक सीढ़ी भी ऊपर चढ़ता हुआ नहीं दिखता है, सबसे फिसड्डी प्रदर्शन करता है – ग़रीबी के मामले में, भूख और कुपोषण के मामले में, स्वास्थ्य सेवा के मामले में, शिक्षा के मामले में और रोजगार के मामले में भी।
आम जीवन में गुणात्मक परिवर्तन लक्षित न होने के बावजूद अन्य क्षेत्रों में आँकड़ों को बेहतर बनाने की कोशिश की जाती है। लेकिन शिक्षा के तो आँकड़े भी, बदहाली को नहीं, बल्कि अधोगति की कहानी बयान करते हैं। वर्ष 1961 की जनगणना में बिहार की साक्षरता 23.4% थी और राष्ट्रीय औसत 28.3% था। यानी बिहार की साक्षरता राष्ट्रीय औसत से महज 5% कम थी। लेकिन पिछली जनगणना(2011) में बिहार की साक्षरता 63.8% थी और राष्ट्रीय औसत 74% था। अर्थात् राष्ट्रीय औसत साक्षरता से बिहार 10% प्रतिशत पिछड़ गया।
केवल साक्षरता ही नहीं, शिक्षा तक पहुँच के मामले में भी बिहार फिसड्डी राज्य साबित हो रहा है। वर्ष 2022-23 में संपन्न हुई बिहार जाति गणना की उन प्राप्तियों को तो सार्वजनिक किया गया, जो सरकार के राजनीतिक हित को लाभ पहुँचाने वाली थीं, परंतु उस गणना में शिक्षा की बदहाली की जो बदसूरत तस्वीर उभर कर सामने आई, जो सरकारी बड़बोलेपन पर कालिख पोत रही थी, उसे कभी सार्वजनिक नहीं किया गया। विभिन्न मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार बिहार में अधिकतम 5वीं कक्षा तक पढ़ाई कर सकने वाले लोगों की संख्या महज 22.67% है। 10वीं कक्षा तक पढ़ने वाले महज 14.71% लोग हैं और स्नातक तक पढ़ाई पूरी कर सकने वालों की संख्या महज 7.05% ही है। 32.1% लोग तो ऐसे हैं, जो कभी किसी स्कूल-कॉलेज में नहीं गए ही नहीं।
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यह स्थिति रोज-ब-रोज़ बदतर ही होती जा रही है। एक ओर तो जनसंख्या बढ़ती जा रही है, बच्चे बढ़ रहे हैं, दूसरी ओर विद्यालय में नामांकित होने वाले बच्चों की संख्या में लगातार कमी आती जा रही है। वर्ष 2022-23 में कक्षा 1 से 8 तक नामांकित बच्चों की संख्या 1,88,50,483 थी, वह वर्ष 2023-24 में घटकर महज 1,79,22,255 रह गई। अर्थात् महज एक साल में ही 9,28,228 बच्चों के नामांकन में कमी आई। (UDISE+ 2023-24)
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जो बच्चे नामांकित हो भी रहे हैं, वे पढ़ाई पूरी किए बगैर शीघ्र ही स्कूल छोड़ दे रहे हैं। माध्यमिक स्तर पर यह छीजन दर 20.86% है, देश में सबसे अधिक। (UDISE+ 2023-24) उस पर तुर्रा यह है कि यह दर साल-दर-साल बढ़ती ही जा रही है। वर्ष 2019-20 में यह 16.1% थी, वर्ष 2020-21 में यह बढ़कर 17.6% हो गई और अब 20.86% है।
जिस राज्य में महज 22% लोग ही किसी तरह पाँचवीं कक्षा तक पहुँच सके हों, एक तिहाई लोगों ने कभी स्कूल-कॉलेज का मुँह नहीं देखा हो और 21% बच्चे दसवीं कक्षा की चौखट तक पहुँचने के पहले ही स्कूल से बाहर हो जाते हों, वह राज्य तो मध्यकाल के किसी पिछड़े हुए असभ्य समाज की तस्वीर पेश करता है। वहाँ के लिए स्वास्थ्य, रोजगार, समृद्धि आदि की बात ही बेमानी है।
साक्षरता और स्कूल तक पहुँच के मामलों में तो बिहार सबसे पिछड़ा हुआ है ही, जो बच्चे किसी तरह स्कूल पहुँच जा रहे रहे हैं, उनके सीखने के मामले में भी बिहार सबसे फिसड्डी प्रदर्शन कर रहा है। Foundational Literacy and Numeracy Index, 2021 के अनुसार 10 साल से कम अवस्था के बच्चों में ज्ञान के स्तर के मामले में देश के बड़े राज्यों में बिहार सबसे नीचे है। असर की पिछली रिपोर्ट के अनुसार कक्षा 1 के 31.9% बच्चे 1 से 9 तक की गिनती नहीं जानते हैं, कक्षा 3 के 28.3% बच्चे कक्षा 2 की किताब नहीं पढ़ पाते हैं और कक्षा 8 के 40% बच्चे भाग नहीं कर सकते हैं। जिस प्रदेश में दशकों तक विद्यालय आते-जाते रहने के बावजूद बच्चे आधारभूत ज्ञान तक हासिल नहीं कर पाते हैं, यह शैक्षिक तंत्र और व्यवस्था के नकारापन की स्वयमेव उद्घोषणा है।
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जिस प्रदेश की शिक्षा की तस्वीर इतनी भद्दी हो, वहाँ फौरी तौर पर उसको सँवारने के गुणात्मक प्रयास किए जाने चाहिए थे। परंतु सुधार के गुणात्मक प्रयासों के बदले में, साइकिल योजना आदि प्रचारात्मक अभिप्राय के कुछ कार्यक्रमों को छोड़कर, नकारात्मक, अवहेलनापूर्ण, दंडात्मक और प्रशासनिक कार्यक्रमों की झड़ी लगी हुई है। विद्यालयों तक बच्चों की पहुँच बढ़े, इसलिए अधिक विद्यालय खोले जाने की जरूरत थी। लेकिन इसके बदले लगातार विद्यालय बंद किए जा रहे हैं। पहले 1773 विद्यालय बंद किए गए। (दिनांक 8-2-2017 को निर्गत पत्र के आदेशानुसार) फिर 8,231 भवनहीन विद्यालयों को चिह्नित किया गया। (26-12-2020 को निर्गत पत्र के अनुसार) 1885 विद्यालय बंद किए गए। (Times of India, 13 April, 2022) दैनिक भास्कर ने खबर छापी कि ‘बिहार में 2600 से अधिक स्कूल हुए मर्ज, 3 लाख छात्र हुए इधर-उधर’। अलग-अलग स्रोतों से प्राप्त सूचनाओं के अनुसार पिछले पाँच वर्षों में बिहार में 4,485 विद्यालय बंद किए गए हैं। पहले विद्यालय बंद/मर्ज किए जाने की सूचना राज्य के स्तर जारी की जाती थी। लेकिन अब यह जिला के स्तर पर जारी की जाती है। इसलिए समेकित रूप से सही जानकारी प्राप्त करना भी कठिन हो गया है।
जो विद्यालय चल रहे हैं, वे भी कुपोषण के शिकार हैं। वर्ष 2021 में डॉ० मो० जावेद के प्रश्न का उत्तर देते हुए लोकसभा में सूचित किया गया था कि बिहार में शिक्षा अधिकार का अनुपालन (compliance) महज 11.1% हो सका है। विगत तीन-चार वर्षों में उसमें तीन-चार प्रतिशत की और बढ़ोत्तरी हुई होगी। इसी वर्ष जुलाई, 2025 में राकेश राय के आरटीआई के जवाब में बताया गया कि कुल 76,073विद्यालयों में महज 72,860 विद्यालयों के पास ही अपना भवन है और 183 विद्यालय तो खुले में चलाये जा रहे हैं।

(24-07-2025 को दैनिक भास्कर में छपी खबर)
शिक्षकों के अभाव का अर्थ है अध्यापन का अभाव। लेकिन विद्यालयों में लगातार शिक्षकों का अभाव बनाकर रखा जा रहा है। 2637 विद्यालय एकल शिक्षक विद्यालय हैं और शिक्षकों के ढाई लाख से अधिक पद खाली पड़े हुए हैं। (‘बिहार चुनाव से शिक्षा का मुद्दा गायब’, क्विंट हिंदी, 4 अगस्त, 2025)जो शिक्षक हैं भी, उनका वितरण इतना असंतुलित है कि शायद ही किसी विद्यालय में सभी विषयों के शिक्षक पदस्थापित हों। परिणाम है कि संस्कृत के शिक्षक विज्ञान पढ़ा रहे हैं और गणित के शिक्षक समाज विज्ञान। शिक्षकों का यह अभाव और असंतुलन केवल विद्यालयों में ही नहीं है, बल्कि उच्च शिक्षा में भी है। पटना विश्वविद्यालय को बिहार का कैम्ब्रिज कहा जाता था और उस कैम्ब्रिज का चूड़ामणि था साइंस कॉलेज। उस साइंस कॉलेज में शिक्षकों के कुल स्वीकृत 110 पदों के विरुद्ध केवल 31 नियमित शिक्षक ही कार्यरत हैं। (The Times of India, 24 June, 2025)
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जो शिक्षक हैं भी उन्हें शैक्षणिक कार्य के बदले ग़ैर शैक्षणिक कार्यों में लगातार लगाये रखा जा रहा है। अभी विद्यालयों के अधिकांश शिक्षक महीनों से मतदाता पुनरीक्षण के कार्य में लगे हुए हैं। इसके कारण कई विद्यालय खाली हो गए हैं और वहाँ पठन-पाठन ठप हो गया है। इसके लिए अनेक प्रधानाध्यापकों और सामाजिक संगठनों के द्वारा अधिकारियों को वस्तुस्थिति से अवगत कराया गया। परंतु समस्या के निदान के बदले कई प्रधानाध्यापकों पर प्रशासनिक कार्रवाई कर दी गई।
शिक्षा अधिकार के अनुसार सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले सभी बच्चों को मुफ्त में पाठ्य सामग्री उपलब्ध कराई जानी है। लेकिन अप्रैल से ही शुरू होने वाले सेशन के बावजूद सितंबर महीने के अंत तक भी क़रीब 30% बच्चों को किताबें उपलब्ध नहीं करायी गई हैं। सरकार के अनुसार भी 7 लाख 92 हज़ार बच्चों को किताबें नहीं मिली हैं। इतनी बड़ी संख्या में बच्चों को किताब से वंचित रखने का अर्थ है उन्हें पढ़ने के अवसर से वंचित रखना। बच्चों को किताबों से वंचित रखने का यह षड्यंत्र प्रत्येक वर्ष रचा जाता है और लाखों बच्चों को वंचित रखा जाता है।
शिक्षकों का अभाव (ख़ाली पदों और ग़ैर शैक्षणिक कार्यों में प्रतिनियुक्ति – दोनों ही कारणों से), विषयवार शिक्षकों का अभाव और पाठ्यपुस्तकों का अभाव की इसी पृष्ठभूमि में विद्यालयों में अर्धवार्षिक परीक्षा का आयोजन किया जा रहा है। अर्थात् बिना पढ़ाई के परीक्षा! ऐसी परीक्षाओं में छात्रों का प्रदर्शन कैसा होगा, यह सहज ही समझा जा सकता है। इन्हीं परिस्थितियों में असर की टीम पहुँचकर दुनिया को बताएगी कि कक्षा 3 के बच्चे कक्षा 2 की किताब नहीं पढ़ पाते हैं। अर्थात् बदनामी! इस तरह सार्वजनिक विद्यालयों को बदनाम किए जाने की वस्तुगत परिस्थितियाँ सायास सृजित की जाती हैं।
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विषयवार शिक्षकों के अभाव को लगातार बनाकर रखना, शिक्षकों से अध्यापन को छोड़कर अन्य सभी काम लेना और बच्चों को पाठ्य सामग्री उपलब्ध नहीं कराना – ये सभी परिस्थितियाँ साफ़ इंगित करती हैं कि सरकार न केवल विद्यालयों को बदनाम होने की परिस्थितियाँ निर्मित कर रही है, बल्कि बच्चों को स्कूल से निष्कासित करने (push out) की राह भी निर्मित कर रही है। जो अभिभावक अपने बच्चों की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए चिंतित हैं, वे निराश होकर निजी विद्यालयों की ओर रूख कर ले रहे हैं। सरकार यही चाहती भी भी है। बाक़ी को निष्कासित करने के लिए वह परिस्थिति-आधारित क़ानून बना देती है। इस बात को और अधिक स्पष्टता से उस पत्र के साथ जोड़कर देखने पर समझा जा सकता है, जिसमें पूर्व अपर मुख्य सचिव, शिक्षा विभाग ने लिखा था कि बिहार में डीबीटी के मद में 3000 करोड़ खर्च होते हैं। यदि 10 प्रतिशत बच्चों के नाम काट दिए जायें तो इस मद में 300 करोड़ रुपए बचाए जा सकते हैं। और, इस असंवैधानिक, गैरकानूनी और जघन्य क्रूरता से भरे निर्देश के बाद करीब 31 लाख से अधिक बच्चों के नाम स्कूल से काट दिए गए।
सार्वजनिक शैक्षिक संस्थाओं को कुपोषित रखने, नामांकित बच्चों को सीखने की परिस्थितियों से वंचित रखने और निष्कासित किए जाने के आर्थिक के अतिरिक्त सामाजिक कारण भी हैं। आर्थिक कारण के रूप में जहाँ शिक्षा पर होने वाले वित्तीय बोझ से पिंड छुड़ाकर उसे मुनाफाखोर निजी पूँजी के हाथों में सौंप देना है। शिक्षा को ज्योंही बाजार की खरीदी-बेची जा सकने वाली वस्तु के रूप में स्थापित कर दिया जाएगा तो वंचित और अभावग्रस्त समुदाय स्वाभाविक रूप से शिक्षा-प्राप्ति की पंक्ति से बाहर हो जाएगा। इसीलिए नीतिगत रूप से सार्वजनिक विद्यालयों की अपेक्षा निजी विद्यालयों को प्रोत्साहित किया रहा है। बिहार में वर्ष 2015-16 में जहाँ सरकारी स्कूल 88.7% थे और निजी विद्यालय महज 4.7% थे, वहीं 2021-22 में सरकारी स्कूल 81.17% प्रतिशत रह गए और निजी विद्यालय 8.7% हो गए। इसी दौरान निजी विद्यालयों में नामाकन 15.10 लाख से बढ़कर 33 लाख से अधिक हो गया। अर्थात् कुलीन और समृद्ध समूह के लिए निजी विद्यालयों की समानांतर शृंखला खड़ी कर दी गई और सार्वजनिक विद्यालयों को अभावग्रस्त बनाकर सीखने-सिखाने के वातावरण को सायास और साजिशन समाप्त किया जा रहा है। सार्वजनिक विद्यालयों के क्षरण से निजी विद्यालयों को मजबूत होने का अवसर मिलता है। यही हो रहा है।
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सामाजिक दृष्टि से यह कुलीनतावादी मानसिकता की साजिश है। सत्ता और शासन पर आज भी कुलीन मानसिकता के लोग काबिज हैं। यह मानसिकता वंचित वर्ग के बच्चों को अपने समानांतर मुख्य धारा में शामिल नहीं होने देना नहीं चाहती है। अर्थाभाव से जूझता हुआ यह वंचित वर्ग अपने बच्चों को सार्वजनिक विद्यालयों तक ही पहुँचा सकता है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा ग्रहण करके निरादृत और उपेक्षित वर्ग भी सत्ता, शासन और समाज में काबिज कुलीन वर्ग के समानांतर खड़ा हो सकता है। इसलिए ऐसी परिस्थितियाँ सृजित की जाती हैं कि इन सार्वजनिक विद्यालयों में नामांकन, ठहराव और सीखने की परिस्थितियाँ ही नहीं बचें। इसीलिए नामांकन को जटिल बनाया जा रहा है, विषयवार शिक्षक उपलब्ध नहीं कराए जा रहे हैं, शिक्षकों को महीनों तक ग़ैर शैक्षणिक कार्यों में संलग्न रखा जा रहा है, पुस्तकें नहीं दी जा रही हैं और नामांकित बच्चों के नाम भी काटे जा रहे हैं। इसी कारण नामांकन घट रहा है, छीजन बढ़ रहा है और सीखने की परिस्थितियाँ समाप्त हो रही हैं।
निजी विद्यालय-महाविद्यालय समाज की शैक्षैक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकते। गाँव में दुकान खोलकर कोई दुकानदार पैसेवालों को राशन उपलब्ध कराकर मुनाफा कमा सकता है। परंतु वह गाँव की भूख और कुपोषण की समस्या का समाधान नहीं कर सकता। उसके दुकान खोलने का यह उद्देश्य ही नहीं है। उसी प्रकार निजी शिक्षा संस्थान समृद्ध परिवार के कुछ चुनिंदा बच्चों को पढ़ाकर मुनाफा कमा सकते हैं, परंतु वे न तो समाज की शैक्षिक समस्याओं का समाधान कर सकते हैं और न ही शिक्षा को सर्वव्यापी बना सकते हैं। यह केवल सरकार ही कर सकती है। यह सरकार का संवैधानिक दायित्व भी है। वर्तमान स्थिति में सरकार अपने संवैधानिक और नैतिक – दोनों ही दायित्वों का पालन करने में विफल है।
भारतीय समाज सदियों से सामाजिक असमानता की त्रासदियों को झेलता रहा है। सदियों के संघर्ष के बाद वंचित वर्ग में जागृति और साहस का संचार हो रहा था। परंतु अब शैक्षिक अवसरों का विभेद क़ायम करके सामाजिक असमानता की नयी जमीन तैयार की जा रही है। ऐसे में मानवतावादी प्रबुद्ध वर्ग का दायित्व असमानता बनाये रखने की इस मंशा को पहचानकर समावेशी और समतामूलक शैक्षिक परिस्थितियों का पुनर्निर्माण है।
