17 जून के विद्रोह के बाद
लेखक संघ के सचिव ने कहा –
स्टालिन एली की गलियों में पर्चे बाँटे जायें,
जिनमें लिखा हो :
जनता ने सरकार का विश्वास खो दिया है,
और अब उसे दोगुनी मेहनत करके
वह विश्वास फिर से पाना होगा।
पर क्या यह आसान न होगा,
कि सरकार ही जनता को भंग कर दे,
और कोई दूसरी जनता
चुन ले अपने लिए
(बर्टोल्ड ब्रेख़्त की कविता The Solution का अनुवाद)
आप चाहें तो इस लेख का विवेचन यहाँ सुन सकते हैं –
बिहार से शुरू किए गए मतदाता सूची के ‘विशेष गहन पुनरीक्षण’ में ‘शुद्ध’ की गई अंतिम सूची भी उसी तरह की अशुद्धताओं से भरी हुई है, जैसी मसौदा सूची थी और जिस पर भारी विवाद खड़ा हुआ था। इतने विवादों, दबावों और आंदोलनों के बाद भी वे अशुद्धियाँ आज भी बरकरार हैं। यद्यपि 5 अक्टूबर, 2025 को मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने घोषणा करते हुए यह दावा किया था कि “एसआईआर के सफलतापूर्वक पूरा होने के साथ बिहार में मतदाताओं की सूची शुद्ध हो चुकी है। 22 साल के अंतराल के बाद ऐसी सफ़ाई हुई है। अब यह अभियान पूरे देश में चलाया जाएगा।” लेकिन साक्ष्य और प्रमाण इस दावे को पूरी तरह झुठलाते हैं।
अनेक अध्ययन यह साबित करते हैं कि ‘शुद्ध’ कहकर परोसी जाने वाली अंतिम सूची ‘शुद्ध’ तो नहीं ही हुई है, बल्कि पिछली सूची की गड़बड़ियों को सुधारा नहीं गया, उसमें अनेक फेक नाम और पते के वोटर्स जोड़े गए और लाखों वास्तविक मतदाताओं की ‘सफ़ाई’ कर दी गई।
यह भी देखें –
एक ही दिन जारी दो सूचियों में मतदाताओं की कुल संख्या में अंतर
चुनाव आयोग के द्वारा एक ही दिन जारी दो सूचियों में मतदाताओं की संख्या अलग-अलग है और हर बार वह उसे ‘सही’ साबित करने की कोशिश करता रहा है। 1 जनवरी, 2024 को चीफ इलेक्टोरल ऑफिस, बिहार के द्वारा मतदाताओं की उम्र-सापेक्ष और ज़िलानुसार सूची जारी की गई। उम्र-सापेक्ष सूची में बिहार में 18 वर्ष से ऊपर के मतदाताओं की कुल संख्या 7,89,32,028 बतायी गई। लेकिन जिलानुसार मतदाताओं की जो सूची जारी की गई, उसमें पूरे बिहार के मतदाताओं की संख्या 7,64,33,329 बतायी गई। एक ही दिन जारी की गई दो सूचियों में करीब 23 लाख मतदाताओं का फर्क चुनाव आयोग की सतर्कता और जवाबदेही का पर्दाफाश करता है।
देखें दोनों सूचियों में तुलनात्मक संख्या –


मतदाताओं की संख्या में अंतर से उठे प्रश्न
चुनाव आयोग के द्वारा बिहार के मतदाताओं की सूची चार बार जारी की गई है। लेकिन प्रयेक बार मतदाताओं की संख्या अलग-अलग बतायी गई, जैसे –
दिनांक मतदाताओं की कुल संख्या
1 जनवरी, 2024 7,87,32,028 (उम्र सापेक्ष मतदाताओं की कुल संख्या) या 7,64,33,329 (जिलानुसार सूची में मतदाताओं की कुल संख्या)
24 जून, 2025 7.89 करोड़
1 अगस्त,2025 (जिसे मसौदा सूची कहा गया) 7.24 करोड़
30 सितंबर, 202 (जिसे ‘शुद्ध’ सूची कहा गया) 7,41,92,357
1 अगस्त, 2025 को जारी सूची में 24 जून, 2025 की सूची में से 65 लाख मतदाताओं के नाम काट दिए गए। सड़क से लेकर न्यायालय तक हुए भारी हंगामे के बाद पुनः गणना करवायी गयी, जिसे 30 सितंबर, 2025 को जारी किया गया। इसे ‘शुद्ध’ सूची कहा गया। इस ‘शुद्ध’ सूची में फिर से 3.66 लाख और मतदाताओं के नाम काट दिए गए। कहा गया कि इस बीच फॉर्म 6 भरने वाले 21.53 लाख मतदाताओं के नाम जोड़े भी गए हैं।
यह भी देखें –
अलग-अलग तिथियों को जारी सूची में मतदाताओं की संख्या में कई लाखों का बदलाव सूची की ‘शुद्धता’ पर गहरे सवाल खड़े करता है। जब तक, कम-से-कम, दो बार की गणना समान नहीं होती है, तब तक उस गणना की ‘शुद्धता’ पर यकीन करना मुश्किल है। लेकिन मुख्य चुनाव आयुक्त इसी अशुद्ध गणना को ‘शुद्ध’ बताकर आलोचनात्मक आँखों पर पट्टी बाँधने की कोशिश कर रहे हैं।
मसौदा सूची में जिन 3.66 लाख लोगों के नाम काटे गए और 21.53 लाख लोगों के नाम जोड़े गए, उनकी पहचान के प्रति भी पारदर्शिता नहीं है। इन नामों को छिपाये जाने की मंशा को भाँपकर ही 7 अक्टूबर, 2025 की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने उनकी पहचान स्पष्ट करने का आदेश दिया।
यह लिस्ट भी अंतिम नहीं है। चुनाव में नामांकन के समय तक लोगों के नाम जोड़े जा सकते हैं। यदि नाम जोड़े जाने की प्रक्रिया चालू रहेगी तो नाम काटे जाने की प्रक्रिया भी की जा सकती है। अब अंतिम रूप से कितने नाम जोड़े या काटे गए, यह चुनाव के दिन ही स्पष्ट हो पाएगा। इस तरह जब तक वास्तविक रूप से तैयार की गई अंतिम सूची की गड़बड़ियों का पता चलेगा, तब तक चुनाव संपन्न होकर नयी सरकार बन चुकी होगी।
बिहार में यह प्रक्रिया चुनाव होने के कुछ दिन पहले शुरू की गयी। जब तक यह सूची पूर्ण रूप से ठीक होती, इसकी गड़बड़ियाँ उजागर होतीं, उसके पहले ही चुनाव शुरू हो गया। चुनाव आयोग ने घोषणा की है कि ‘विशेष गहन पुनरीक्षण’ के नाम पर नाम जोड़े-काटे जाने का यह कार्य दूसरे राज्यों में भी उस समय शुरू किया जाएगा, जब उस राज्य का चुनाव नजदीक हो। चुनाव होने वाले राज्यों में चुनाव होने के ठीक पहले ‘विशेष गहन पुनरीक्षण’ कराया जाना, बिहार में अपनायी जाने वाली प्रक्रिया को देखते हुए, लोकतांत्रिक चुनावी शुचिता पर गंभीर सवाल खड़े करता है।
अंतिम ‘शुद्ध’ सूची में भी फर्जी पतों को नहीं सुधारा गया
मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने मसौदा सूची (draft list) में बड़े पैमाने पर नक़ली पते के विवाद पर कहा था कि चुनाव अधिकारियों को इसकी जानकारी दी गई है और नयी मतदाता सूची में ये ‘पूरी तरह नई’ दिखेंगे।
लेकिन अंतिम मतदाता सूची के प्रकाशन के बाद द रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने सभी 243 विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों के वोटर लिस्ट का विश्लेषण किया। उसके विश्लेषण में पाया गया कि इस ‘शुद्ध’ सूची में भी 1.32 करोड़ मतदाता संदिग्ध और अस्तित्वहीन फर्जी पतों पर एक साथ पंजीकृत हैं। यह बहुत बड़ी संख्या है। द रिपोर्टर्स कलेक्टिव के अनुसार “इन मामलों में विभिन्न परिवारों, जातियों और समुदायों से रैंडम मतदाताओं को काल्पनिक पतों के तहत ग़लत तरीक़े से एक साथ जोड़ा गया है”।
पिपरा विधानसभा क्षेत्र के 505 मतदाता, जो अलग-अलग परिवारों, जातियों और समुदायों के हैं, अंतिम ‘शुद्ध’ सूची में एक ही नक़ली पते पर पंजीकृत हैं और 442 मतदाता दूसरे पते पर। बाराचट्टी विधानसभा क्षेत्र में मकान न० 6 पर 877 मतदाता पंजीकृत हैं। मटिहानी विधानसभा क्षेत्र में एक ही काल्पनिक पते पर 855 मतदाता पंजीकृत हैं। परसा विधानसभा क्षेत्र में मकान न० 23 के पते से 853 मतदाता पंजीकृत हैं।
यह भी देखें –
ये तो कुछ नमूने भर हैं। पूरे बिहार में ऐसे सैकड़ों मामले हैं, जिन पर अब कोई सुनवाई नहीं होगी और इसी अशुद्ध सूची से लोकतंत्र की शुद्धता का अभिषेक किया जाएगा।
द रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने अनेक मतदाताओं से बात की। शिवनाथ दास एक ही पते पर पंजीकृत 509 मतदाताओं में एक हैं। उन्होंने कहा कि किसी ने उनसे कुछ नहीं पूछा। उन्होंने बीएलओ से संपर्क करके सुधार का अनुरोध किया। लेकिन कुछ नहीं हुआ। उन्हीं के पड़ोसी दशरथ राम भी ग़लत पते से पंजीकृत हैं। वे भी अपने पते में सुधार नहीं करवा सके। उनके अनुसार विपक्ष अच्छे के लिए मुद्दा उठा रहा है। लेकिन हंगामे के बाद भी कुछ ठीक नहीं किया गया।
इस तरह के करोड़ों उदाहरणों के बावजूद अधिकारी प्रत्यक्ष तथ्य को सिरे से ख़ारिज करते हुए कहते हैं कि “जब हमने रिपोर्ट में उद्धृत पतों की जाँच की तो हमें कोई नक़ली मतदाता नहीं मिला।” साक्ष्यों को सिरे से नकार देना पूर्व नियोजित उद्देश्य की पूर्ति का प्रयास प्रतीत होता है।
दोहरे-तिहरे मतदाताओं को भी नहीं सुधारा गया
केवल नक़ली पतों का ही मामला नहीं है। लाखों ऐसे मतदाता अभी भी ऐसे हैं, जो दोहरे-तिहरे मतदाता पहचान पत्र रखते हैं।
द रिपोर्टर्स कलेक्टिव को 243 विधानसभा क्षेत्रों में 14.35 लाख मतदाता समान जनसांख्यकीय विवरणों और 0 से 5 वर्षों के उम्र-अंतर से दोहरे आईडी के साथ पंजीकृत मिले। इनमें 3.4 लाख मामले ऐसे हैं, जिनके पंजीकरण में उम्र सहित सब कुछ समान है।
पिपरा विधानसभा क्षेत्र में ही 1,512 ऐसे मतदाताओं का पता चला है, जो अंतिम सूची में भी समान जनसांख्यिकीय विवरण और उम्र के साथ, अलग-अलग मतदान केंद्रों के लिए दोहरा मतदाता पहचान पत्र रखते हैं। उदाहरण के लिए देखें नीचे का चित्र –

साभार : द रिपोर्टर्स कलेक्टिव
अंकित कुमार के दोनों आईडी में मकान संख्या 111 है और पिता का नाम विनोद राम अंकित है। लेकिन उनका एक वोटर आईडी बूथ 338 के लिए है और दूसरा आईडी बूथ 339 के लिए है। जाले विधानसभा के मिथिलेश कुमार मसौदा सूची में भी दो पतों पर पंजीकृत थे। अंतिम सूची में भी उन्हीं दो पतों पर पंजीकृत हैं, जबकि उनके बीएलओ को इस बात का पता था। गोपालपुर विधानसभा क्षेत्र के बूथ न० 65 पर, तीन अन्य लोगों की तरह, समान विवरणों के साथ अंतिम सूची में भी गुलशन कुमार दोहरी मतदाता आईडी रखते हैं। मुजफ्फरपुर के वार्ड पार्षद शनत कुमार तमाम कोशिशों के बावजूद अपने दिवंगत माता-पिता का नाम नहीं हटवा सके। अंतिम सूची में भी उनके बूथ पर दसियों ऐसे नाम हैं।
ये लाखों मतदाता मतदान की शुचिता को बुरी तरह प्रभावित कर सकते हैं।
नाम कटने का एक पैटर्न है
अंतिम ‘शुद्ध’ सूची के प्रकाशन के बाद द क्विंट ने समुदाय आधारित एक विश्लेषण किया। इस विश्लेषण में जिन 6.05 प्रतिशत लोगों के नाम कटे हैं, उसमें एक पैटर्न देखा जा सकता है कि जिन जिलों में मुस्लिम आबादी अधिक है, वहाँ नाम काटने की दर भी औसत से अधिक है।
यह भी देखें –
उदाहरण स्वरूप किशनगंज में मुस्लिम आबादी 68% है और वहाँ 9.69%लोगों के नाम काटे गए हैं। कटिहार में मुस्लिम आबादी 44% है और वहाँ 7.12% मतदाताओं के नाम कटे हैं। पूरे सीमांचल क्षेत्र, जिसमें किशनगंज, कटिहार, पूर्णिया और अररिया जिले आते हैं, वहाँ SIR के पहले 78,11,890 मतदाता थे। लेकिन अंतिम शुद्ध सूची में यह संख्या घटकर 72,27,772 हो गई। अर्थात् इन चार जिलों में ही 5,84,718 मुस्लिम मतदाताओं के नाम काट दिए गए। SIR में कुल कटे नामों में इन चार जिलों से कटे नामों का प्रतिशत 12.24% है।
इसके उलट हिंदू आबादी वाले जिलों में, सिवाय भोजपुर के, 6.05% मतदाताओं के नाम ही कटे हैं।
नीचे तुलनात्मक चार्ट देखें –


नाम कटने के संदर्भ में एक और बात दिलचस्प है कि लालू प्रसाद के गृह जिले गोपालगंज में 12.13% मतदाताओं को मतदान सूची से बाहर कर दिया गया है। वहीं नीतीश कुमार के गृह जिले नालंदा में केवल 3.54% मतदाताओं के नाम ही कटे हैं।
इस तरह ‘विशेष गहन पुनरीक्षण’ में ‘शुद्धता’ के नाम पर गड़बड़ियों से गड्डमड्ड, जाली और पक्षपातपूर्ण (biased) सूची परोस दी गई है। बिहार में यह प्रयोग, तमाम विरोधों के बावजूद, सफल हो गया है। अब यही प्रयोग घूम-घूमकर उन राज्यों में भी दुहराया जाएगा, जहाँ-जहाँ चुनाव होने वाले हैं। बिहार में इसी सूची पर चुनाव होने हैं, जो लोकतांत्रिक हितों का गला घोंटने के साथ ही लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति शंका और अविश्वास का पोषण करेगी। यह सिकुड़ते हुए लोकतंत्र की महज एक बानगी है।
स्रोत :
1. https://www.reporters-collective.in/trc/ecis-final-voter-list-for-bihar-hin
2. https://www.reporters-collective.in/trc/repeated-attempts-made-to-delete-muslim-voters-hin
5. https://www.pib.gov.in/PressReleasePage.aspx?PRID=2173316

कार्यकर्ता और लेखक
डॉ. अनिल कुमार रॉय सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों के लिए अथक संघर्षरत हैं। उनके लेखन में हाशिए पर पड़े लोगों के संघर्ष और एक न्यायसंगत समाज की आकांक्षा की गहरी प्रतिबद्धता परिलक्षित होती है।








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