बात की शुरुआत एक चर्चित खबर से करते हैं। हुरुन इंडिया रिच लिस्ट 2024 के मुताबिक़ गौतम अडानी की संपत्ति पिछले साल की अपेक्षा 95% बढ़कर 11.62 लाख करोड़ हो गई है। इसके बाद ये बर्नाल्ड अर्नाल्ट को पीछे छोड़कर दुनिया तीसरे सबसे अमीर बन गये। अब इनकी संपत्ति एलन मस्क और जेफ़ बेजोज के क़रीब पहुँच गई है।
भारत में क्रॉनी कैपिटलिज्म पर विचार करते हुए Julien Bouissou ने अपने आलेख “In India ‘crony capitalism’ is on the rise” में कहा है कि अडानी ने कोई क्रांतिकारी तकनीक या व्यवसाय मॉडल का आविष्कार नहीं किया। भारत के बाहर लगभग नहीं पहचाने जाने वाले गौतम अडानी की शानदार सफलता का श्रेय नवाचार को नहीं दिया जा सकता है। उनके व्यावसायिक समूह की गतिविधि के प्रत्येक क्षेत्र में – हवाई अड्डे, बंदरगाह, खनन, एयरोस्पेस, रक्षा उद्योग – सभी में भारत की सरकार महत्वपूर्ण भूमिका निभाती नज़र आती है, चाहे लाइसेंस आवंटित करने में हो या अनुबंध पर हस्ताक्षर करने में। उन्हें भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करीबी दोस्त के रूप में माना जाता है। प्रमाण तो इस बात तक के हैं कि अन्य देशों में उनका व्यवसाय पसारने के लिए ख़ुद प्रधानमंत्री ने कई देशों के शासनाध्यक्षों से उनके लिये पैरवी की।
द इकोनॉमिस्ट द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2016 में शीर्ष क्रॉनी कैपिटलिस्ट देशों में भारत जहाँ 9वें स्थान पर था, वहाँ 2021 में यह ऊपर सरककर 7वें स्थान पर पहुँच गया है। इस रैंकिंग में अमेरिका 19वें स्थान पर है। 22 देशों की सूची में 19वें स्थान पर होना बहुत बुरा नहीं था। लेकिन वहाँ इसी वर्ष संपन्न हुए चुनाव पर गौर करें तो वहाँ भी बहुत तेज़ी से हालात बदल रहे हैं। राष्ट्रपति के चुनाव में ख़ुद ट्रंप से भी ज़्यादा धन और प्रचार का इस्तेमाल एलन मस्क कर रहे थे। राजनीति के दंगल में एक व्यवसायी इतना खुलकर क्यों खेल रहा था? इसलिए कि डोनाल्ड ट्रंप ने उन्हें आश्वासन दिया था कि यदि वे राष्ट्रपति बनते हैं तो एलन मस्क को अपना प्रमुख सलाहकार बनायेंगे। एलन मस्क सलाहकार बनकर क्या सलाह देंगे?कोई सामान्य बुद्धि का आदमी भी इस बात को मानने से इनकार कर देगा कि कड़ाके की सर्द रात में खुले पार्क में अख़बार ओढ़कर सोने वाले लोगों के लिए वे समुचित आवास की व्यवस्था करने की मानवीय सलाह को प्राथमिकता देंगे या मुफ़्त सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार की सलाह देंगे या उच्चतर शिक्षा में फ़ीस कटौती करके निर्धन मेधावियों की भी उच्च शिक्षा तक पहुँच बढ़ाने की सलाह देंगे। यह सलाह देने के लिए तो उन्होंने अपना धन पानी की तरह बहाकर प्रचार में ट्रंप से भी ज़्यादा मुस्तैदी नहीं दिखाई है। निश्चय ही दुनिया के सबसे बड़े उद्यमी ने देश के सत्ता-शीर्ष के साथ गठजोड़ अपने निजी और व्यावसायिक हितों की पूर्ति के लिए किया है और, जैसा कि अनुमान किया जा सकता है, चुनाव में किए गए अपने निवेश को वे हज़ारों गुना अधिक बनकर लौटते हुए देखना चाहेंगे।
यही है क्रॉनी कैपिटलिज्म – सत्ता और चुनिंदा पूँजीपतियों का अनैतिक गठबंधन, जिसमें सरकार कुछ पूँजीपतियों के पक्ष में खड़ी रहकर अनुदान, टैक्स में छूट, परमिट आवंटन, टेंडर में पक्षपात और कभी ऋण माफ़ी के द्वारा समर्थन प्रदान करती है और उसके बदले में पूँजीपति चुनाव तथा अन्य प्रयोजनों में खर्च के लिए धन मुहैया कराते हैं। यह व्यवस्था उस दोमंज़िले भवन के सदृश है, जिसके निचले तल्ले पर राजनीति का ठेका लगता है और ऊपरी तल्ले पर व्यापारियों के ठुमके। नीचे की ज़रूरतों के लिए ‘स्नेह’ ऊपर से मिलता है और ऊपर के ठुमके के लिए ‘मृदंग’ नीचे से भेज दिया जाता है।
क्रॉनी कैपिटलिज्म सत्ता की व्यापरवादी नीति नहीं है, जिसमें व्यापार की परिस्थितियों को सुगम और सुविधापूर्ण बनाने के यत्न किए जाते हैं। स्पष्ट रूप से यह कुछ चुनिंदा पूँजीपतियों के साथ सत्ता का गठबंधन है। इस तरह अपने चरित्र में यह आर्थिक नाज़ीवाद है। जिस तरह नाज़ीवाद में नस्लवाद पर ज़ोर था और एक विशेष नस्ल की श्रेष्ठता ही स्वीकार्य थी, उस तरह क्रॉनी कैपिटलिज्म में कुछ चुनिंदा पूँजीपतियों को ही सत्ता का ‘स्नेह’ प्राप्त होता है और उन्हीं की श्रेष्ठता स्थापित की जाती है।
कारण :
क्रॉनी कैपिटलिज्म क्यों विकसित होता है और यह बदसूरत संबंध दिन-ब-दिन प्रगाढ़ क्यों होता चला जाता है, जैसा कि द इकोनॉमिस्ट की रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत 9वें स्थान से ऊपर चढ़कर 7वें स्थान पर चला गया है? उत्तर रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन के शब्दों में –
“कुटिल राजनीतिज्ञ को ग़रीबों को संरक्षण देने और चुनाव लड़ने के लिए व्यवसायी की ज़रूरत होती है। भ्रष्ट व्यवसायी को सार्वजनिक संसाधन और अनुबंध सस्ते में प्राप्त करने के लिए कुटिल राजनीतिज्ञ की ज़रूरत होती है। और राजनीतिज्ञ को ग़रीबों और वांछितों के वोटों की ज़रूरत होती है। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र निर्भरता के चक्र में बँधा हुआ है, जो सुनिश्चित करता है कि यथास्थिति बनी रहे।” (एमवी राजीव गौड़ा और नंदन शारालय द्वार लिखित ‘Crony Capitalism and India’s Political System’ से उद्धृत।)
2014 के चुनाव में ही कांग्रेस के पूर्व वित्तमंत्री पी० चिदंबरम ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा था – “Never before did India’s election to the Lok Sabha witness such mastery combination of organization, money and technology.”

पी० चिदंबरम जब आश्चर्य व्यक्त कर रहे थे तो राजनीतिक दलों के द्वारा चुनावों में व्यय किए जाने वाले धन का काँटा 50,000 करोड़ से नीचे था। अगले ही चुनाव में यह 60,000 करोड़ पहुँच गया और 2024 के चुनाव में तो यह अपने पिछले सारे कीर्तिमान को ध्वस्त करते हुए 1.35 लाख करोड़ तक पहुँच गया। अर्थात् अगले चुनाव तक पहुँचते-पहुँचते यह राशि दोगुनी से अधिक हो गई। पानी की तरह बहने वाला यह अपरिमित धन राजनीतिक दल न तो वेतन से कमाए होते हैं, न दुकानदारी करके और न ही खेत बेचकर खर्च कर रहे होते हैं। यह राशि उन्हें पूँजीपतियों से प्राप्त होती है, जिसके बदले उन्हें उन पूँजीपतियों को लाभ पहुँचाने की विवशता होती है। लाभ पाकर पूँजीपति और अधिक धन कमाते हैं और राजनीतिक दलों को और अधिक चंदा देते हैं। यह दुश्चक्र चलता चला जाता है। इसी दुश्चक्र के परिणामस्वरूप अडानी की संपत्ति एक साल में 95% बढ़ती है और चुनावी खर्च दोगुना होता है।
परिणाम :
पूँजीपतियों और सत्ताधारियों का गठबंधन राष्ट्र और समाज के हित में भी काम कर सकता था। परंतु नहीं। इस अपवित्र गठबंधन का उद्देश्य केवल पैसा कमाना होता है – दोनों ओर। जहाँ ऐसा निषिद्ध गठबंधन स्थापित हो जाता है, वहाँ व्यवसायियों के आगे बढ़ने का आधार इनकी उत्पादकता और उद्यम की दक्षता नहीं होती, वरन् सत्ताधारी के द्वारा प्रदान किया गया अनुचित लाभ, अनेक बार अनैतिक और कई बार ग़ैर क़ानूनी भी, होता है। सत्ता के द्वारा प्रदान किए गए इस अनुचित, अनैतिक और ग़ैर क़ानूनी लाभ का परिणाम स्पर्धात्मक व्यावसायिक वातावरण की हानि, आर्थिक और सामाजिक हानि तथा राष्ट्र के पिछड़ेपन के रूप में प्राप्त होता है। कुछ चुनिंदा पूँजीपतियों को ही सत्तायी समर्थन और प्रोत्साहन प्राप्त होने के कारण उससे वंचित पूँजीपतियों में निराशा व्याप्त होती है, वे अन्य कुटिल उपायों को अपनाने की ओर अग्रसर होते हैं और इस तरह स्वस्थ एवं प्रतिस्पर्धात्मक व्यावसायिक वातावरण को क्षति पहुँचती है। कम व्याज दर में मिलने वाला ऋण, संदिग्ध कर्ज, कर्ज माफ़ी और टैक्स में छूट आदि – ये आर्थिक लागत हैं, जो कुछ चुनिंदा पूँजीपतियों की निजी हितपूर्ति में इस्तेमाल होता है। यह हितपूर्ति आमजन के टैक्स के पैसे से होती है। सार्वजनिक वित्तीय संसाधनों का निजी हित में इकतरफ़ा इस्तेमाल सार्वजनिक स्वास्थ्य, शिक्षा, ग़रीबी उन्मूलन, भुखमरी निवारण, आवासहीनता आदि मानव-विकास के क्षेत्रों में निवेश में कमी लाता है। मानव-विकास में निवेश की कमी के कारण देश एक पिछड़े देश के रूप में अपनी पहचान बनाये ठिठुरते हुए खड़ा रह जाता है। इस पिछड़ेपन का स्वाभाविक दुष्परिणाम उच्च असमानता के रूप में सामने आता है। इस उच्च असामनता को छिपाने के लिए सरकार के द्वारा प्रति व्यक्ति आय का झाँसा उत्पन्न किया जाता है, जिसमें सैकड़ों-हज़ारों करोड़ प्रति घंटे कमाने वाले अडानियों-अंबानियों की आय में प्रति माह पाँच हज़ार या उससे भी कम कमाने वाले करोड़ों झम्मन माँझियों की आय को मिलाकर औसत प्रस्तुत करके प्रति व्यक्ति आय 2.28 लाख रुपये बताया जाता है। इस तरह सत्ताधारियों-पूँजीपतियों के निजी लाभ, उससे उत्पन्न व्यावसायिक वातावरण, आर्थिक, सामाजिक और राष्ट्रीय हानि और उस हानि को झाँसा की चादर से ढँकने का क्रम चलता रहता है।
यह यहीं नहीं रुकता। अपने पहले चरण में यह राजनीतिक सत्ता को ख़रीदता है, धन मुहैया कराकर अपने व्यावसायिक हितों के लिए। लगभग पूरी दुनिया का पूँजीवाद अपने इस चरण को पूरा कर चुका है। अपने दूसरे चरण में यह राजनीतिक सत्ता में भागीदार होता है, वह भी बिना किसी राजनीतिक जवाबदेही के, जनता के प्रति उत्तरदायित्व के बिना। पूँजीवाद अब इस अवस्था में प्रवेश कर चुका है। अमेरिका इसका उदाहरण है। बहुत जल्द दूसरे देशों में भी उदाहरण मिलने लगेंगे। इस अवस्था में लोकतंत्र का लोकतांत्रिक नक़ाब पूरी तरह उतर जाएगा और उसकी जगह एक बेरहम और बेशर्म शासन-प्रणाली स्थान ले लेगी, जिसका उद्देश्य केवल नागरिकों को – नागरिकों की भूख, गतिविधि और विचार-प्रक्रिया को – नियंत्रित करना होगा। कैपिटलिज्म की यह चरम अवस्था होगी।
समस्या की जड़ की पड़ताल :
सत्य सदैव वही नहीं होता है, जो प्रत्यक्ष होता है। वह अक्सर प्रच्छन्न होता है, पर्दे के भीतर। रघुराम राजन ने ‘कुटिल राजनीति’ और ‘भ्रष्ट व्यवसायी’के अनैतिक गठबंधन का जो उद्घाटन किया है, वह प्रत्यक्ष दिखाई पड़ने वाला सत्य है, पर्दे के पीछे का नहीं। वास्तव में इस भ्रष्ट गठबंधन का प्रतिफलन पूँजीवाद की जड़ में सन्निहित है।
लोकतंत्र और पूँजीवाद, राजतंत्र और सामंतवाद के विध्वंस के गर्भ से उपजी हुई जुड़वा संतानें हैं। व्यक्तिगत और असंगठित उत्पादन प्रणाली जब मैन्यूफ़ैक्चरिंग प्रथा से होते हुए फैक्ट्रियों और कारख़ानों के रूप में सामूहिक और संगठित उत्पादन प्रणाली के रूप में विकसित होती है तो उस प्रणाली के संचालन के लिए सामूहिक शासन प्रणाली, जिसे लोकतंत्र कहते हैं, का उदय होता है। राजतंत्र की व्यक्तिगत शासन प्रणाली पूँजीवाद की सामूहिक उत्पादन प्रणाली की व्यवस्था के भार-संवहन में असमर्थ होती है। इसीलिए दुनिया में जहाँ-जहाँ और जैसे-जैसे पूँजीवाद का विकास हुआ, वहाँ-वहाँ और वैसे-वैसे लोकतंत्र की राजनीतिक व्यवस्था आती गई। इस तरह लोकतंत्र की राजनीतिक व्यवस्था पूँजीवाद की आर्थिक व्यवस्था के मैनेजर की तरह काम करती है। इसलिए लोकतंत्र की राजनीतिक व्यवस्था पूँजीवाद के संवर्धन और पोषण का काम उसी तरह करेगी, जैसे राजतंत्र की राजनीतिक व्यवस्था जागीरदारों और सूबेदारों के हितों का संरक्षण करती थी। यह लोकतंत्र का अंतर्निहित, अघोषित, मगर वास्तविक दायित्व है। क्रॉनी कैपिटलिज्म के रूप में राजनीतिक महत्वाकांक्षा की भ्रष्टता इसे कुछ बड़े और मज़बूत जबड़ों में अपने को चबा जाने के लिए समर्पित करने को विवश होती है।
दुनिया के अधिकांश देशों में लोकतंत्र का जन्म क्रांति, आंदोलन या जन संघर्ष की प्रसव-पीड़ा झेलकर हुआ है। इन संघर्षों के जन दबाव के कारण लोकतंत्र के प्रारंभिक चरणों में पूँजीवाद भी सहमा-सहमा-सा था, बाल्यावस्था में होने के कारण पूरी तरह समर्थ भी नहीं था और शासन-प्रणाली के सम्मुख संघर्षों से उत्पन्न जनाकांक्षाओं का सम्मान करने की विवशता भी थी। धीरे-धीरे जन दबाव भी घटता गया और पूँजीवाद भी सयाना होता चला गया। अब यह परिपक्व पूँजीवाद अपने मैनेजर को अपने काम पर मुस्तैदी के साथ लगाने लगा। इसलिए अपने प्रारंभिक चरण में जो लोकतंत्र लोकतन्त्रात्मक दिख रहा था, जनोन्मुखता का आवरण धारण किए था, अब आवरणविहीन होकर जनता को नियंत्रित और नव उदारवादी नीति की आड़ लेकर समर्थ पूँजीपतियों के हित-पालन में, अपने होने के वास्तविक उद्देश के पालन में, निष्ठा से लग गया है।
तो क्या यह इसी तरह चलता रहेगा?
नहीं। ऐसा मानना विकास की अवधारण को ही नकारना होगा। सदैव ऐसा ही नहीं रहेगा। इसके दो कारण हैं। पहला यह कि क्रॉनी कैपिटलिज्म पूँजीवाद के व्यापक चरित्र के विरुद्ध है। यह भटका हुआ व्यवहार है। जिस लोकतांत्रिक राजसत्ता का उदय समग्र पूँजीवाद के समर्थन के लिए हुआ था, क्रॉनी कैपिटलिज्म के रूप में अब वह कुछ हाथों का खिलौना बनकर रह जाती है। इससे इस दायरे से बाहर पूँजीपतियों में असंतोष उत्पन्न होता है, वे हतोत्साहित होते हैं और सत्ता-समर्थित पूँजीपतियों से प्रतिस्पर्धा में पिछड़ जाते हैं। इससे पूँजीवाद के व्यापक परिवेश पर नकारात्मक असर होता है और वह कमजोर होता है। इस तरह क्रॉनी कैपिटलिज्म की अवस्था केकड़े की तरह मातृहंता के रूप में अपनी जन्मदात्री परिस्थिति का ही संहार करने लग जाता है।
दूसरी ओर राजनीतिक दलों की आपसी प्रतिस्पर्धा जन-प्रशिक्षण का कार्य करती है। इसलिए सत्ता के प्रतिस्पर्धी राजनीतिक दल जन-झुकाव को अपने पक्ष में करने के लिए इस मुद्दे को उठायेंगे, उठाने भी लगे हैं। संसद और बाहर विपक्षी राजनीतिक दलों के द्वारा ‘मोदी-अडानी भाई-भाई’ आदि के नारे लगने भी लगे हैं। राजनीतिक प्रतिस्पर्धा से उपजा यह संदेश जनता तक संप्रेषित होता है। इसी के परिणामस्वरूप किसान आंदोलन के भागीदारों के द्वारा जिओ के मोबाइल टावरों को ढाह दिया जाता है और जिओ सिम का बहिष्कार करने का आह्वान किया जाता है।
यह इस क्रॉनी कैपिटलिज्म के विरुद्ध विद्रोह की प्रारंभिक अवस्था है। विरोध के इस प्रारंभिक चरण में इस व्यवस्था को बनाये रखने के लिए पूँजीवादी थिंक टैंक कुछ सुधारात्मक उपाय लेकर सामने आते हैं। जैसा कि अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के चिरंजीव सेन के द्वारा क्रॉनी कैपिटलिज्म को नियंत्रित करने के उपाय सुझाये गये हैं –
- राजनीतिक वित्त पोषण प्रणाली में सुधार किया जाना चाहिए।
- नीति बनाने की प्रक्रियाओं में सुधार किया जाना चाहिए।
- ऑडिट संस्थानों को मज़बूत बनाया जाना चाहिए।
- कारोबारी माहौल में सुधार लाया आना चाहिए। आदि-आदि।
जन दबाव में राजनीतिक सत्ता ऐसे ही कुछ उपायों को अपनाकर अपना चेहरा बचाने और असंतोष को दबाने की कोशिश करेगी। परंतु यह दस कदम आगे बढ़कर दो कदम पीछे हटने जैसा होगा। इन उपायों के सहारे जन असंतोष के उभार को थोड़ी देर के लिए कम तो किया जा सकेगा। लेकिन जन असंतोष के थोड़ा कम होते ही राजनीतिक सत्ता फिर से अपने वास्तविक काम (जो करों में भारी बढ़ोत्तरी और कल्याणकारी मदों में कटौती करके पूँजीपतियों को लाभ पहुँचाना है) में लग जाएगी। यह थोड़ी देर के लिए दो कदम पीछे हटकर फिर से दस कदम आगे बढ़ जाने जैसा होगा। इसके बाद फिर से जन असंतोष की लहरों के थपेड़े उठ-उठकर सत्ता की दीवारों से टकराने लगेंगी। प्रतिस्पर्धात्मक राजनीति इस असंतोष को उभारने में फिर से सहायक होगी। इस अभिक्रिया के कई दौर चलेंगे। अंतिम परिणाम के रूप में पूँजीवादी लोकतंत्र समाजवादी लोकतंत्र का चरित्र धारण कर सकेगा। क्रॉनी कैपिटलिज्म पूँजीवाद की उच्चतर अवस्था है। इस दीवार के ढहते ही समाजवादी लोकतंत्र की संभावनाओं की कोंपलें निकल सकेंगी।
इस बदलाव तक पहुँचने के लिये जन-चेतना का लगातार विस्तार और असंतोष का इज़हार होते रहने की आवश्यकता है। लोहिया का प्रसिद्ध सूक्ति-वाक्य है – सड़कें जब सूनी हो जाती हैं तो संसद आवारा हो जाती है। सड़क का शोर ही संसद को आवारा होने से रोकता है।
(यह आलेख सबलोग के जनवरी, 2025 अंक में पूर्व प्रकाशित है।)

This article defines Crony Capitalism in India.
How are people of India Trap in the net of Crony Capitalism.
This article doesn’t defines only capitalism in India. It defines character of the capitalism. Character is all over same with some differences from country to country.
यह बहुत शानदार लेख है।
यह केपीटलाइज्म का नया दौर है।
धन्यवाद!