Dr. Anil Kumar Roy

Dr. Anil Kumar Roy

कार्यकर्ता और लेखक डॉ. अनिल कुमार रॉय सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों के लिए अथक संघर्षरत हैं। उनके लेखन में हाशिए पर पड़े लोगों के संघर्ष और एक न्यायसंगत समाज की आकांक्षा की गहरी प्रतिबद्धता परिलक्षित होती है।

सामाजिक न्याय के अस्पताल में शिक्षा की शव-परीक्षा

‘सामाजिक न्याय’, ‘सबका साथ, सबका विकास’ आदि आजकल बास्केट बॉल खेल की गेंद की तरह हर राजनीतिज्ञ के हाथ में उछलता हुआ जुमला है और हर दल इस गेंद को अपने पाले में करने की कोशिश में लगातार लगा हुआ है. यह जुमला/नारा/वादा इतना लोक-लुभावन और प्रभावी है कि जो कोई भी इस नारे का अपने पक्ष में जितना ज्यादा उपयोग कर लेता है, वह सत्ता पर उतनी मजबूती के साथ कायम हो जाता है. अर्थात अवाम को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए राजनीतिक दलों के पास यह परीक्षित और कामयाब हथियार है.

आपातकाल का पुनरावलोकन -1 : क्या संविधान की हत्या हुई थी?

12 जून, 2024 को केंद्र सरकार ने घोषणा की कि 25 जून को ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में मनाया जायेगा। ज्ञात हो कि 25 जून, 1975 को ही आपातकाल की घोषणा की गई थी। 25 जून, 1975 से 21 मार्च, 1977 तक अर्थात् 21 महीने की इस कालावधि को ‘लोकतंत्र की हत्या’, भारतीय इतिहास का काला अध्याय’ आदि विशेषणों से अभिहित किया जाता रहा है। इस घटना के व्यतीत हुए 49 वर्ष बीत चुके हैं। उस आंदोलन में भाग लेने वाली पीढ़ी के अनेक लोग अब नहीं हैं और जो बचे हैं, वे जीवन के अंतिम पड़ाव पर हैं। आम जीवन की स्मृतियों में वह प्रसंग धुँधला हो गया है। फिर आज वह कौन-सी विशेष बात हो गई, जिसके कारण आधी शताब्दी पूर्व के प्रसंग को पुनर्जीवित करने की ज़रूरत आ पड़ी?

हिन्दी साहित्य में विद्यापति का स्थान

यह आलेख हिन्दी साहित्य में विद्यापति के महत्व पर प्रकाश डालता है। वे एक ओर ‘वीरगाथकाल’ के सर्वाधिक प्रामाणिक कवि हैं, वहीं दूसरी ओर भक्तिकाल और शृंगारकाल के भी उपजीव्य हैं। हिन्दी-साहित्य में गीत की परंपरा के स्रोत-पुरुष भी विद्यापति ही ठहरते हैं। इस तरह हिन्दी साहित्य में जितना दीर्घगामी प्रभाव विद्यापति का है, उतना किसी दूसरे कवि का नहीं है। ………. यह आलेख पहली बार मुजफ्फरपुर से प्रकाशित होने वाली आनंद मंदाकिनी के जनवरी-मार्च, 1990 अंक में प्रकाशित हुआ था और पुनः इसका मैथिली अनुवाद 2005 में चेतना समिति, पटना की स्मारिका में प्रकाशित हुआ।

धार्मिक बयानों की कुहेलिका और राजनीतिक कर्तव्य

People in a Concert
लोकतंत्र की अवधारणा इस तरह यह गढ़ी गयी है कि सत्ता और उसकी मशीनरी नागरिक हितों की पूर्ति के लिए होती हैं। परंतु व्यवहार में ऐसा नहीं होता है। राज्य के कर्मचारी सत्ता की इच्छाओं की पूर्ति के लिए होते हैं और सत्ता स्वयं पूँजीपतियों के के हितों के संरक्षण में लगी रहती है।

भूत या चेतना की प्राथमिकता का सवाल

भौतिक या भौतिक उत्पादन संबंधों में परिवर्तन जितना प्रत्यक्ष और द्रुत होता है, वहीं वैचारिक परिवर्तन अलक्ष्य और मंद होता है और उसे परिवर्तित होने में, कभी-कभी, सदियाँ लग जाती हैं। जैसे, भारत में जाति-विभाजन सामंती काल की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता था, लेकिन औद्योगिक और व्यावसायिक आर्थिक संबंधों के पूंजीवादी काल में आज भी वह जीवित ही है।

अंधेरा कायम है

green leafed tree
बहुत पुराने जमाने की बात है। चारों ओर ऊँचे-ऊँचे पहाड़ थे, दूर-दूर तक फैला हुआ सघन जंगल था और उस जंगल में मारकर खा जाने वाले तथा मरकर खाये जाने वाले जानवरों की भरमार थी। उसी जंगल के बीच पहाड़ों की तलहटी में एक बस्ती थी। ऊँचे पहाड़ों और भयावह दुर्गम जंगलों से घिरी हुई उस बस्ती में न तो कभी कोई बाहर से आता था और न ही उस बस्ती के लोग बाहर जा पाते थे।

भारतीय संदर्भ में नई तालीम का प्राणालिक औचित्य

यदि भारत को शिक्षा का सिरमौर होना है, बेरोजगारी की समस्या को दूर करना है, उत्पादन में बढ़ोत्तरी करनी है, गाँवों का विकास करना है और समाज में नैतिकता का वर्चस्व स्थापित करना है तो उसे ‘नई तालीम’ की अवधारणा को स्वीकार करना ही पड़ेगा।

द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद क्या है?

मार्क्सवाद की पूरी इमारत ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ की नींव पर खड़ी है। इसलिए मार्क्सवाद को समझने के लिए ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ को समझ लेना आवश्यक है, अन्यथा मार्क्सवाद की व्याख्याएँ अबूझ रह जायेंगी। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए सरल तरीके से इस गूढ़ दर्शन को बताने की कोशिश की गई है।

बालश्रम की राजनीतिक आर्थिकी और बिहार

African Boy Working on Desert
निजी मुनाफे पर आधारित पूँजीवाद और राजनीतिक सत्ता का अपवित्र गठबंधन बाल श्रम को कायम रखता है। जब तक पूँजीवादी शक्तियों के मुक़ाबले सामाजिक शक्तियाँ अपनी अधिक मजबूती नहीं दिखाती है, तब तक तमाम क़ानूनों के बावजूद बालश्रम का धब्बा कायम रहेगा।

मार्क्सवादी इतिहास दृष्टि क्या है?

मार्क्सवादी इतिहास-दृष्टि ने इतिहास-चिंतन को एक नया और पूर्व की दृष्टि से सर्वथा भिन्न आयाम प्रदान किया। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धान्त के आधार पर विकसित इस इतिहास-दृष्टि ने पहले-पहल वैश्विक इतिहास की गति की वैज्ञानिक समझ प्रदान की। ऐतिहासिक भौतिकवाद के नाम से अभिहित इस सिद्धान्त को जाने बिना इतिहास के पदानुक्रमों को नहीं समझा जा सकता है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए इस जटिल दर्शन को सरल भाषा में प्रस्तुत करने की कोशिश की जा रही है।