
मार्क्सवादी इतिहास-दृष्टि ने इतिहास-चिंतन को एक नया और पूर्व की दृष्टि से सर्वथा भिन्न आयाम प्रदान किया। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धान्त के आधार पर विकसित इस इतिहास-दृष्टि ने पहले-पहल वैश्विक इतिहास की गति की वैज्ञानिक समझ प्रदान की। ऐतिहासिक भौतिकवाद के नाम से अभिहित इस सिद्धान्त को जाने बिना इतिहास के पदानुक्रमों को नहीं समझा जा सकता है। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए इस जटिल दर्शन को सरल भाषा में प्रस्तुत करने की कोशिश की जा रही है।

मार्क्सवादी उपन्यासों में वस्तु-तत्व की प्रमुखता के बावजूद रूप-तत्व की भी सापेक्षिक सक्रियता स्वीकृत हुई है। इन उपन्यासकारों ने कला-मूल्यों एवं जीवन-मूल्यों को परस्पर असंपृक्त न मानकर एक वृहत प्रक्रिया का ही अंग माना है। इन उपन्यासों का वर्ण्य यथार्थ है।

हिन्दी-साहित्य यदि अपनी परंपरा ढूँढने निकलेगा तो उसे विद्यापति अपना आदिकवि दिखाई देगा।

कवि-कुल शिरोमणि ‘कनिष्ठिकाधिष्ठित’ कालिदास संस्कृत वाङ्ग्मय के ही नहीं, भारतीय मनीषा के भी सर्वश्रेष्ठ निदर्शन हैं। वर्षा-काल में अनायास फूट पड़े निर्झरों की भाँति हृदय के अंतस्तल से उमड़कर बहते हुए उनके काव्य ने विश्व भर के काव्य रसिकों को संतृप्त किया है।

यह कैबिनेट द्वारा स्वीकृत है, संसद द्वारा नहीं। अर्थात एक पार्टी की शिक्षा नीति है।…यह शिक्षा नीति अनौपचारिकता, सांप्रदायिकता, केन्द्रीयता और निजीकरण की बढ़ोत्तरी के चार पायों पर खड़ी है। इन पायों को ही मजबूत करने का निहितार्थ इस शिक्षा नीति में छिपा हुआ है।

दिल्ली के सिंघू बॉर्डर पर किसान केवल इसलिए नहीं आंदोलनरत हैं कि उनकी अस्मिता ख़तरे में है। अस्मिता तो ख़तरे में है ही। बल्कि वे इसलिए भी लड़ रहे हैं ताकि इस देश को भूख और तबाही से बचाया जा सके। इस तरह यह लड़ाई पूरे देश के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाई है।

कोरोना आज विश्व की एकमात्र और सबसे बड़ी समस्या है। दुनिया में आज न तो सेंसेक्स का उतार-चढ़ाव सनसनी पैदा करता है, न जीडीपी बढ़ाने की होड़ है, न घटते जलस्तर की चिंता है और न ही स्कूल बंद बच्चों की बदहाली की फ़िक्र है। मानव-सभ्यता के इतिहास में शायद यह पहली बार हुआ है कि एक बीमारी की चपेट में एक ही साथ पूरी दुनिया आ गई हो। इसलिए दुनिया के तमाम देशों में जिस एक बात के भूत, वर्तमान और भविष्य की सर्वाधिक चर्चा और चिंता की जा रही है, वह कोरोना है।

नीति राजसत्ता की वह परिकल्पना होती है, जो यह दिखाती है कि व्यवस्था को किन रास्तों से होकर कहाँ तक ले जाना है। इसकी भूमिका दिशा-निर्देशक की होती है। राज्य नीतियाँ बनाता है और फिर उन नीतियों को अमल में लाने के लिए क्रियान्वयन की योजना का निर्माण करता है। यद्यपि नीतियाँ न तो बाध्यकारी होती हैं और न ही उनका कोई कानूनी आधार होता है। फिर भी एक नैतिक दवाब बनाने में इसकी भूमिका होती है। अन्य नीतियों की तरह इस शिक्षा नीति का भी यही महत्व है यह शिक्षा का अवसर मुहैया कराने और उसका परिणाम प्राप्त करने के दृष्टिकोण को उजागर करती है।

आत्मज्ञानी महात्मा लोक-विमुख होकर निर्जन में दोनों आँखें बंद करके परमात्म-ध्यान में लीन थे। तभी चरणों पर स्पर्श के साथ ‘त्राहि माम’ की आवाज ने उनका ध्यान भंग कर दिया। उन्होंने धीरे-धीरे आँखें खोलीं तो पाया कि सामने मैले-कुचैले वस्त्र पहने एक साया भूलुंठित पड़ा है। उसके बाल, नाखून आदि बेतरतीबी से बढ़े हुए थे, कपड़े गंदे और जगह-जगह से आते हुए थे, जैसे काफी दिनों से वह साफ-सुथरा नहीं हुआ हो। वह सुखकर काँटा कि तरह हो गया था और होठों पर पपड़ियाँ पड़ी थीं, मानो वह बहुत दिनों से भूखा और प्यासा हो। उसे इस हाल में देखकर सांसारिक प्रपंचों से मुख मोड़े हुए महात्मा के मन में भी उसके प्रति दया उत्पन्न हो गई। उन्होंने पूछा - ‘तुम कौन हो?’

मानव-सभ्यता का यह स्वभाव रहा है कि वह आगे की ओर गति करती रही है। लाखों वर्षों के जद्दोजहद के बाद लगभग 500 साल पहले मानव-जाति जब वैज्ञानिक क्रांति के नए युग में प्रविष्ट हुई तो चेतना के स्तर पर उसके अंधविश्वास, जड़ मान्यताएँ और बद्ध धारणाएँ धीरे-धीरे तिरोहित होती गईं। ऐसा लगने लगा कि मानव-चेतना की बंद पलकें धीरे-धीरे खुल रही हैं और दैवी, रहस्यमयी और अबूझ परतें उघररही हैं।अब देहात के मिडिल स्कूल में पढ़ने वाला बच्चा भी, खेतों में काम करने वाला अनपढ़ किसान भी जान गया कि वर्षा इंद्र की कृपा से नहीं, बल्कि वाष्पीकरण और वायु-दबाव की प्राकृतिक प्रक्रियाओं से होती है; वह जान गया कि चंद्रमा कोई देवता नहीं है, बल्कि सौरमंडल का एक उपग्रह है। वह यह भी जान गया कि चेचक शीतला देवी के प्रकोप का परिणाम नहीं है, बल्कि एक वायरल इंफ़ेक्शन है। अब वह प्राकृतिक क्रियाओं और वस्तुओं को अंधविश्वास और आस्था की दृष्टि से नहीं, बल्कि वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टि से देखने लगा।