Dr. Anil Kumar Roy

Dr. Anil Kumar Roy

कार्यकर्ता और लेखक
डॉ. अनिल कुमार रॉय सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों के लिए अथक संघर्षरत हैं। उनके लेखन में हाशिए पर पड़े लोगों के संघर्ष और एक न्यायसंगत समाज की आकांक्षा की गहरी प्रतिबद्धता परिलक्षित होती है।

शिक्षा नीति 2020 और सामाजिक विभेद

नीति राजसत्ता की वह परिकल्पना होती है, जो यह दिखाती है कि व्यवस्था को किन रास्तों से होकर कहाँ तक ले जाना है। इसकी भूमिका दिशा-निर्देशक की होती है। राज्य नीतियाँ बनाता है और फिर उन नीतियों को अमल में लाने के लिए क्रियान्वयन की योजना का निर्माण करता है। यद्यपि नीतियाँ न तो बाध्यकारी होती हैं और न ही उनका कोई कानूनी आधार होता है। फिर भी एक नैतिक दवाब बनाने में इसकी भूमिका होती है। अन्य नीतियों की तरह इस शिक्षा नीति का भी यही महत्व है यह शिक्षा का अवसर मुहैया कराने और उसका परिणाम प्राप्त करने के दृष्टिकोण को उजागर करती है।

जनतंत्र

आत्मज्ञानी महात्मा लोक-विमुख होकर निर्जन में दोनों आँखें बंद करके परमात्म-ध्यान में लीन थे। तभी चरणों पर स्पर्श के साथ ‘त्राहि माम’ की आवाज ने उनका ध्यान भंग कर दिया। उन्होंने धीरे-धीरे आँखें खोलीं तो पाया कि सामने मैले-कुचैले वस्त्र पहने एक साया भूलुंठित पड़ा है। उसके बाल, नाखून आदि बेतरतीबी से बढ़े हुए थे, कपड़े गंदे और जगह-जगह से आते हुए थे, जैसे काफी दिनों से वह साफ-सुथरा नहीं हुआ हो। वह सुखकर काँटा कि तरह हो गया था और होठों पर पपड़ियाँ पड़ी थीं, मानो वह बहुत दिनों से भूखा और प्यासा हो। उसे इस हाल में देखकर सांसारिक प्रपंचों से मुख मोड़े हुए महात्मा के मन में भी उसके प्रति दया उत्पन्न हो गई। उन्होंने पूछा - ‘तुम कौन हो?’

चेतना-निर्माण की राजनीतिक आर्थिकी

मानव-सभ्यता का यह स्वभाव रहा है कि वह आगे की ओर गति करती रही है। लाखों वर्षों के जद्दोजहद के बाद लगभग 500 साल पहले मानव-जाति जब वैज्ञानिक क्रांति के नए युग में प्रविष्ट हुई तो चेतना के स्तर पर उसके अंधविश्वास, जड़ मान्यताएँ और बद्ध धारणाएँ धीरे-धीरे तिरोहित होती गईं। ऐसा लगने लगा कि मानव-चेतना की बंद पलकें धीरे-धीरे खुल रही हैं और दैवी, रहस्यमयी और अबूझ परतें उघररही हैं।अब देहात के मिडिल स्कूल में पढ़ने वाला बच्चा भी, खेतों में काम करने वाला अनपढ़ किसान भी जान गया कि वर्षा इंद्र की कृपा से नहीं, बल्कि वाष्पीकरण और वायु-दबाव की प्राकृतिक प्रक्रियाओं से होती है; वह जान गया कि चंद्रमा कोई देवता नहीं है, बल्कि सौरमंडल का एक उपग्रह है। वह यह भी जान गया कि चेचक शीतला देवी के प्रकोप का परिणाम नहीं है, बल्कि एक वायरल इंफ़ेक्शन है। अब वह प्राकृतिक क्रियाओं और वस्तुओं को अंधविश्वास और आस्था की दृष्टि से नहीं, बल्कि वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टि से देखने लगा।

नारद-गूगल संवाद (पीएम केयर्स फंड)

गूगल नारद के देशप्रेम से परिचित था। इसलिए उसे पक्का विश्वास था कि जवाब जानके नारद का माथा घूम जाएगा। इसलिए विनयपूर्वक उसने जवाब दिया — महाराज, इस पीएम केयर्स के अध्यक्ष राष्ट्रनायक स्वयं हैं। अन्य ट्रस्टी हैं श्री अमित शाह, श्री राजनाथ सिंह और श्रीमती निर्मला सीतारमैया। ये चारों व्यक्ति एक ही सत्ताधारी राजनीतिक दल के हैं और अभी आर्यावर्त की सरकार के विभिन्न विभागों के मंत्रीपद पर विराजमान हैं। इस तरह इस ट्रस्ट में एक ही राजनीतिक दल के व्यक्ति सदस्य हैं। किसी अन्य दल या सामाजिक संगठन को इसमें शामिल नहीं किया गया है। इस पारदर्शिता के अभाव में बुद्धिजीवी, जो अब विलुप्तप्राय प्रजाति की श्रेणी में हैं, यह अनुमान लगाते हैं कि यह सत्ताधारी दल के निजी फ़ंड की तरह इस्तेमाल किया जाएगा।

आतंकवाद की जंग हम हार रहे हैं

Woman in Black Dress Standing on Grass Field
अभी हाल ही में 14 फरवरी, 2019 को जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में CRPF के जवानों पर विस्फोटक हमले में 40 से अधिक जवानों के मारे जाने के बाद एक बार फिर आतंकवाद के विरुद्ध हमारी जंग सवालों के घेरे में आ गई है. यह सवाल इसलिए भी ज्यादा गहरा हो गया है, क्योंकि वर्तमान सरकार पिछली सरकार की क्षमता पर प्रश्नचिह्न लगाकर लोगों का यह विशवास जीतने में सफल हुई थी कि आतंकवाद के खिलाफ और देश की सुरक्षा के लिए वह चाक-चौबंद व्यवस्था करेगी.

भारत में बढती असमानता पर ऑक्सफेम की रिपोर्ट

grayscale photo of people holding banner
जब जोंक पूँजीपति खून चूसने में मशगूल होते हैं, राजसत्ता उन रक्त्जीवियों की हिफाजत में सन्नद्ध होती है और बुद्धिजीवी भी सत्ता के दरबार में सारंगी बजाकर चारण-गान करने में विभोर होते हैं तो घने अंधेरों में घिरे भूखे और अधनंगे लोग, रोशनी की तलाश में, सड़कों पर उतर आते हैं. दुनिया में अब तक जितनी भी क्रांतियाँ हुई हैं, वहाँ भी इसी तरह का फर्क रहा है. एक तरफ बेतहाशा अमीर रहे हैं और दूसरी तरफ अन्न और वस्त्र के लिए बिलबिलाते लोगों का हुजूम रहा है. और, इन दोनों के बीच खड़ी सत्ता अमीरों की तरफदारी में बिलबिलाते लोगों को क़ानून का पाठ पढ़ा-पढ़ाकर डंडे बरसाती रही है.

धार्मिक दंतकथाओं की कुहेलिका में खोती जाती वैज्ञानिक बहस

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हम "मेरा भारत महान" का नारा लगाते हुए आदिम युग में प्रवेश कर रहे हैं।सा किया जा सकता है? क्या दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सारी शीर्षस्थ संस्थाएं अप्रामाणिक और अविश्वसनीय हो गई है?

लोकसभा में उपलब्ध कराई गई जानकारी ऐसी भी होती है

शिक्षा में अभिरुचि रखने वाले हर शख्स के लिए यह जानना दिलचस्प होगा कि लोकसभा के अतारांकित प्रश्न संख्या 1094 के उत्तर में दिनांक 17 दिसंबर, 2018 को शिक्षा राज्य मंत्री डॉ. सत्यपाल सिंह ने क्या जवाब दिया। आर टी…

लोकतंत्र, पुलिस और हम (लोकतंत्र की शव-परीक्षा – 1)

street, road, people
यही लोकतंत्र है. राजतंत्र और लोकतंत्र में बहुत फर्क नहीं है. प्रवृत्ति वही है, प्रक्रिया में थोडा-सा बदलाव करके झाँसा उत्पन्न किया गया है. राजतंत्र में जहाँ सामंतों और सैनिकों के बल पर जनता में दहशत उत्पन्न करके सिंहासन पर काबिज हुआ जाता है, वहीँ लोकतंत्र में पूँजीपतियों, अपराधियों के बल पर जनता की भावनाओं और संवेदनाओं को नियंत्रित करके समर्थन प्राप्त कर लिया जाता है.

निजी विद्यालयों की लूट पर लगाम लगाने का माँगपत्र

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इतना ही नहीं। ये विद्यालय शिक्षा-बिक्री केन्द्र के साथ ही वस्तु-विक्रय के रूप में भी धंधा करते हैं। इन विद्यालयों ने पोशाक, टाई, बेल्ट, डायरी, कॉपी, कलम के साथ ही निजी प्रकाशकों की हर साल बदली जाने वाली किताबों को अपने यहाँ से या निर्दिष्ट दूकान से ही खरीदने के लिए विवश करके शिक्षा के मंदिर को परचून की दूकान से भी बदतर बना दिया है।