क्या हमारे देश के वजूद का भूगोल जाति और धर्म के बीना पर है? क्या यह सच नहीं कि हमने अपने शारीरिक और मानसिक श्रम के बदौलत देश को नींव और विकास का पायदान दिया है?
देश का हर नागरिक अभावग्रस्त होकर भी कर दाता है, जिससे विकास की ये मीनारें खड़ी हुई हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी तक निर्मित दर्शनीय और पर्यटन के स्थलों की आय राष्ट्र की समृद्धि में योगदान कर रही है। मंदिर- मस्जिद- गुरूद्वारा वो दरगाहों की आस्थाएँ भी राष्ट्रीय विकास की पूँजी हैं। हमारे स्थापन्न, विस्थापन और पलायन से भी विकास की राष्ट्रीय पूँजी एकत्र हो रही है। भौतिक विकास की ऊबड़-खाबड़ इस जमीन से ऊपर उड़ते वायुयान के विकास में हम शामिल नहीं हैं?
तो विकास पुरुष कौन है, इसकी चर्चा कौन करता है, श्रेय कौन लेता है और उपभोक्ता कौन है?
देश के इस भूगोल को क्या किसी पार्टी या सरकार ने बनाया है या उन्होंने जाति और धर्म की सीढ़ियों से सत्ता और सरकार का महल बनाया है? देश में गैर बराबरी और जन विखंडन द्वारा इस महल का ये मेंटेनेंस और विस्तार करते हैं और दीवारों पर संविधान व लोकतंत्र के नारे लिख देते हैं।
संविधान, लोकतंत्र, जातीय समीकरण, धार्मिक ध्रुवीकरण की ईंटों पर खड़ी संसद कानून बनाती है। और यही देश के भूगोल को परिभाषित व निर्धारित करता है। इस भूगोल पर हस्ताक्षर करता है, हिरोशिमा और नागासाकी! इसका दर्शन रचता है , बीते दिनों के हिटलर और मुसोलिनी और आज के उनकी ही प्रजातियाँ और इस्ट इंडिया कम्पनी के कॉरिडोर से होता हुआ सैकड़ों वर्ष का अंग्रेजी हुकूमत। फिर शुरू होता है सैकड़ों वर्ष के हमारे जिल्लत और जहालत की जिंदगी को बदलने के लिए बलिदानी संघर्षों की अनवरत श्रृंखला। शहादतों के मीनार पर खड़ा जाति, धर्म और सम्प्रदाय के एकताबद्ध राष्ट्र की सोच में खुद का ही नहीं, बल्कि ब्रह्माण्ड का भूगोल निहित था।
आतंक और आतंकवाद के भेद का भूगोल हम अमरीका, रूस, चीन, कोरिया, इजराइल, पाकिस्तान, अफगानिस्तान आदि के शासकों की नजर से देखते हैं और अनुसरण करते हैं। आतंकवादी संगठनों का नामकरण करते हैं, उसे बनाते और उसका संहार करते हैं– क्यों? – सत्ता की सीढ़ियों के बतौर!
हमारे मुल्क में भी शासन पोषित आतंकी बाहुबली का इस्तेमाल धन बल से वोट बटोरने के लिए, संसद में पहुँचने के लिए, सत्ता पाने के लिए किया गया और फिर वही आतंकी अपने आतंक एवं इससे जमा धन बल से स्वयं संसद और सत्ता में पहुँच गए। इतना ही नहीं, वक्त बदलता गया और जीवन दुरूह होता गया। वक्त आजादी और गुलामी का फर्क मिटाता चला गया — हमें विकास की मीनारें दिखाता, संसद से सपने परोसता, संविधान के ककहरे में लोकतंत्र का पाठ पढ़ाता!
क्या यह सच नहीं कि आज भी हम राजा और प्रजा के युग के एहसास लिए हैं, स्वतंत्रता और जीवन की मूलभूत अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं?
महाभारत मैंने पढ़ा है और आज पाते हैं कि हस्तिनापुर शकुनि के कुचालों के संकेत पर शतरंज की बिसात लिए बैठा है, जहाँ राजाज्ञा से कौरव – पांडव अपने अपने मोहरे चल रहे हैं। दरबार में सरेआम द्रौपदी के चिरहरण का मूक दर्शक हस्तिनापुर शांत है और पांडव संवैधानिक शासनादेश के आगे बेबस सिर झुकाये बैठा वनवास के लिए सज्जित है।
इस अमानवीय निर्लज्ज शासन के खिलाफ नागरिक, राजाओं में ही सत्ता के असहाय, विपक्ष को सहारा देने के लिए बाध्य हो जाता है। इतना ही नहीं, महाकाव्य के अवतारी भगवान कृष्ण भी विपक्ष के साथ न्याय दंड लेकर खड़े होते हैं। भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि मनुष्य की आत्माएँ मेरे ही अंश हैं। वह अजर अमर है – मेरे दृष्टिकोण से हमारे बलिदानी शहीदी हुतात्माओं की तरह।
तो हे भारतीय भगवान कृष्णो, तुम्हारी राजनीतिक- रणनीतिक कूटनीति की दृष्टि “गीता” के अध्यायों को स्मरित करने के लिए बेचैन नहीं हो रही है? ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ उदघोष के हस्ताक्षर नर- नारी द्वारिका और हस्तिनापुर छोड़ कुरूक्षेत्र कब पधारेंगें?
अट्ठारहवें अध्याय की स्मृति और अट्ठारह दिनों के इंतजार में जनमानस का संविधान और लोकतंत्र अपने संसद के दरवाजे पर है।
