आदिवासी नेता हिड़मा की सोशल मीडिया पर बहुत चर्चा है। वे पुलिस की गोलियों के शिकार हुए। उन्हें मुठभेड़ में मारा गया या फर्जी एनकाउंटर में, मेरे जैसे लोगों के लिए किसी एक निर्णय पर आना कठिन है। पुलिस इस संदर्भ में लीपापोती करती रहेगी। राजसत्ता जैसा चाहेगी, करेगी। मैं यह भी स्वीकार करता हूं कि इसके पूर्व मुझे उनके बारे में जरा सी भी जानकारी नहीं थी। सोशल मीडिया पर उनके पक्ष और विपक्ष में तर्क दिए जा रहे हैं।
सवाल यह है कि एक ऐसा समाज जो सामूहिकता और अहिंसा में भरोसा रखता हो, जंगलों के पेड़ों, पक्षियों, नदियों और नृत्यों के बीच पला हो, वह हथियार क्यों उठा रहा है? आदिवासी जो जंगलों और उसके आस-पास रहते आ रहे हैं, क्या उन जंगलों पर उनका कोई अधिकार नहीं है? जंगल और प्रकृति की जितनी समझ उनके पास है, शायद ही किसी नेता और अफसर के पास यह समझ हो। मगर फिलहाल सत्ता का व्यवहार ऐसा है कि आदिवासी न सभ्य होते हैं, न जानकार होते हैं, न समझ रखते हैं। उसी तरह से किसानों के बारे में है। जबर्दस्ती खेती-बाड़ी का ऐसा विकास करना है कि किसान आत्महत्या करने को विवश हो जायें।आदिवासियों के जंगल और जमीन को सरकार और उसके पिट्ठू पूंजीपति लगातार लूट रहे हैं। संसद में उल्टे-सीधे कानून बना कर या सत्ता पर दबाव डाल कर आदिवासियों को उनकी जमीन और जंगल से बेदखल कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ के हंसदेव में लहलहाते हजारों एकड़ जंगल को अडानी की कंपनी ने काट डाला।
सवाल यह है कि इस लोकतंत्र का मालिक कौन है? जनता या नेता या नौकरशाह?
यह बहुत ही मौजूं सवाल है। इस सवाल का हल किए बिना लोकतंत्र का और देश का कल्याण नहीं है।
यह सच्चाई है कि आजादी के बाद जनता कमजोर हुई है और तंत्र मजबूत हुआ है। लोकतंत्र के लिए यह बड़ा खतरा है। तंत्र की मजबूती के बाद शक्तियों का केंद्रीकरण होता है और यह शक्तियां एक व्यक्ति में निहित हो जाती हैं । इस प्रक्रिया में जनता पीछे छूटती जाती है। एक व्यक्ति अकूत शक्तियों से लैस हो जाता है और फिर अपनी सत्ता की रक्षा के लिए अनैतिक रास्ते अख्तियार करता है। इसलिए बहुत जरूरी है कि हम नीचे की लोकतांत्रिक इकाई को मजबूत करें। आदिवासियों का जो परंपरागत संगठन है जिसमें सर्वसम्मति नहीं, सबकी सहमति होती है, उसके आधार पर विकास का फैसला लें। लोकतंत्र में अगर जंगल और जमीन को पूंजीपतियों की लूट का साधन बनाते हैं, तो लोकतंत्र कभी भी मजबूत और स्थायी नहीं होगा।
लोकतंत्र की मजबूती के लिए जरूरी है – स्थानीय लोगों पर भरोसा। आजकल जो लोकल इकाई है, चाहे वह मेयर हो या मुखिया – उसे कोई वित्तीय अधिकार नहीं है। उसे कोई बजटीय अधिकार प्राप्त नहीं है। लोकल इकाई को अपने क्षेत्र के अंदर रहने वाली जनता के प्रति जिम्मेदार होना चाहिए। एस आई आर के क्रम में सत्रह बीएलओ आत्महत्या कर चुके हैं। अगर यह जिम्मेदारी स्थानीय इकाई को दे दी जाती तो यह पारदर्शी भी होता और जल्दी भी संपन्न होता। एक वार्ड पार्षद या मुखिया को अपने क्षेत्र के बारे में पता होता है। एक बीएलओ भटकता रह जाता है और मतदाता सूची भी पारदर्शी बन नहीं पाती।
लोकतांत्रिक इकाई पर भरोसा नहीं कर, नौकरशाही पर भरोसा करना लोकतंत्र के लिए बेहद ख़तरनाक है। यह बहुत सुखद अहसास है कि इसके निदान के लिए एक युवा सुकांत कुमार ने पब्लिक पालिका जैसी परिकल्पना की है। चाहें तो विस्तार से publicpalika.in पर इसका अध्ययन कर सकते हैं।

प्रोफेसर, पूर्व विभागाध्यक्ष, विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग
पूर्व डीएसडब्ल्यू,ति मां भागलपुर विश्वविद्यालय,भागलपुर







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