एक बौद्ध भिक्षु था। वह आराम से भिक्षा हर दिन मांगता और साधना में डूबा रहता। उसके आश्रम में चिड़िया कूजन करतीं। गायें रंभातीं। गांव वाले आते। गायों का पोषण करते और बौद्ध भिक्षु का प्रवचन सुनते। वहां किसी को किसी से कोई खतरा न था। ऊपर विस्तृत आकाश था, नीचे हरी भरी धरती थी। उन दिनों पूंजीपतियों का आगमन नहीं हुआ था। सूदखोरों का भी अता-पता नहीं था। लोग भी अतिरिक्त लोभी नहीं थे। एक दिन दूसरे इलाके से एक आदमी आया। वह थोड़ा परेशान दिखता था। भिक्षु ने उससे पूछा – ‘क्या बात है, क्यों परेशान हो?’ परेशान आदमी ने कहा कि मैं वर्षों से विभिन्न आश्रमों में जा रहा हूं और अपने प्रश्न का उत्तर ढूंढ रहा हूं, मगर मुझे उत्तर नहीं मिल रहा। मैं अपने प्रश्न से बेचैन हूं। भिक्षु ने पूछा – ‘क्या प्रश्न है?’ आदमी ने कहा कि मेरे प्रश्न है कि मैं कौन हूं? भिक्षु ने कहा कि ऐसा करो। एक वर्ष संसार में घूमो। संसार को देखो। समझो। साल भर बाद मेरे पास तुम आना। वह आदमी चला गया। साल भर गलियों की खाक छानता रहा। साल के अंत मैं वह वापस लौटा। भिक्षु ने पूछा कि तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मिला?
आदमी ने कहा- ‘नहीं। मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं मिला।’ इसके बाद बौद्ध भिक्षु ने उसे दो तमाचा लगाया और कहा- ’अबे मूढ़! तुम कौन हो, इस प्रश्न का उत्तर दूसरा कैसे दे सकता है? इस प्रश्न का अगर कोई उत्तर दे सकता है, तो वह सिर्फ और सिर्फ तुम हो।’
हर रविवार को मेरी सामग्री असम से निकलने वाला दैनिक पत्र ‘पूर्वोदय’ में छपता है। वहां से फ़ोन आता रहता है। कल शाम को एक फोन आया। उसने बताया कि मैं असमी हूं। अपर असम में मेरा घर है। वैसे मैं गुवाहाटी में नौकरी करता हूं। मैं आपका लेख हर रविवार को पढ़ता हूं। हिंदी ठीक से पढ़ लेता हूं, लेकिन ठीक से बोल नहीं पाता। उसने कई सवाल किए, जिनमें से एक था कि क्या आप अलौकिक सत्ता को मानते हैं? मैंने उत्तर दिया – ‘नहीं। लेकिन मैं आध्यात्मिक व्यक्ति हूं।’ उसने पूछा कि जब आप अलौकिक सत्ता को नहीं मानते तो आध्यात्मिक कैसे हो सकते हैं? मैंने प्रति उत्तर दिया – ‘मुझे प्रकृति में भरोसा है। आकाश, चांद, तारे, समुद्र, नदियां, पहाड़, पौधे, जीव जंतु और मनुष्य में भरोसा है।’ वह संतुष्ट हुआ या नहीं। मैं जो जीवित हूं और उदासी में भी भरोसा नहीं खोता, उसकी वजह प्रकृति में विश्वास ही है। ऐसा नहीं है कि कठिनाइयां नहीं आयीं। लेकिन ठहरा रहा।
राजनीति ऐसी ही मांग कर रही है। एक तो खुद की पहचान और दूसरे लोक से संवाद। लोक की ताकत छीजती जा रही है। उसे भीड़ की तरह हांका जा रहा है। उसे उस हालत में पहुंचा दिया गया है कि वह महज लाभार्थी बने रहे। हम सब भी क्या कर रहे हैं? हमारी जमात के लोगों को सरकार से कोई आफर आ जाय, तुरंत नत मस्तक हो जाते हैं। लोक की तो बात ही अलग है। जो अभावों में रह रहा है। वह देख रहा है कि देश में बड़े-बड़े पूंजीपति मुफ्तखोर हैं तो उसका भी जी ललचता है। जो एजुकेशन सिस्टम है, वह सम्मान के साथ जीने के तरीके नहीं सिखाती। वह लोभ जगाती है। वैसे सपने दिखाती है जिसमें संवेदना नहीं होती। प्रेमचंद की कहानी ‘नमक का दारोगा’ याद करें। वंशीधर को जब नौकरी मिलती है तो उसका परिवार इसलिए खुश होता है कि इस पद में ऊपरी आमदनी बहुत है। आज ऊपरी आमदनी वाली पढ़ाई है। हम अपने बच्चे को उसी दिशा में ठेल रहे हैं। तब हम आप अच्छी राजनीति और अच्छा समाज कहां से पायेंगे?
अच्छी राजनीति के लिए अच्छी शिक्षा चाहिए।

प्रोफेसर, पूर्व विभागाध्यक्ष, विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग
पूर्व डीएसडब्ल्यू,ति मां भागलपुर विश्वविद्यालय,भागलपुर







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अपने देश और समाज में शिक्षा का स्वरुप इसी कोई बढ़ावा देता है.
देश का राजा कौन है कोई मैंने नहीं रखता है -राजा राजा है और प्रजा बेचारी 🙏
यह दोस सिर्फ शिक्षा का नहीं है, हमारा समाज पीढ़ियों से ऐसा करता आया है -यहां राजा कौन है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, राजा राजा है और प्रजा बेचारी है.
इसमें बदलाव कैसे होगा गहन चिंतन का विषय है 🙏