स्वामी विवेकानंद वेदांत लेकर विदेश पहुंचे थे, लेकिन उन्हें इस बात का गहरा अहसास था कि सभी धर्म एक ही राह के राही हैं। जब वे शिकागो में विश्व धर्म संसद में भाग ले रहे थे तो उन्होंने एक किस्सा सुनाया था, जिसे बार-बार दुहराने की जरूरत है। उन्होंने 15 सितंबर 1993 को विश्व धर्म संसद के पांचवें दिन यह किस्सा सुनाया था।
यह किस्सा कुछ यों था।
एक कुआं था । इस कुएं में एक मेंढक का जन्म हुआ। मेंढक इसी कुएं में पला-बढ़ा। यह कुआं ही उसकी दुनिया थी। वह कुएं में कीटों का शिकार करता और मौज में रहता। एक दिन एक समुद्री मेंढक भटकता हुआ आया और कुएं में गिर पड़ा।
कुएं वाले मेंढक ने समुद्री मेंढक से पूछा – ‘कहां से आये हो?’
‘समुद्र से।’ दूसरे मेंढक ने जवाब दिया।
कुएं वाले मेंढक ने एक छलांग मारी और समुद्री मेंढक से पूछा – ‘क्या समुद्र इतना बड़ा होता है?’
समुद्री मेंढक भौंचक था।
उसने कहा- ‘समुद्र की तुलना कुएं से कैसे हो सकती है?’
कुएं वाला मेंढक तो गर्व से भरा था। उसने दूसरी छलांग मारी और पूछा- ‘क्या समुद्र इतना बड़ा होता है?’
समुद्री मेंढक ने कहा – ‘तुम बेवकूफ हो। समुद्र की तुलना तुम्हारी छलांग से नहीं की जा सकती।’
कुएं वाले मेंढक का अभिमान आहत हुआ और उसने समुद्री मेंढक को कुएं से निकाल बाहर किया।
इसी तरह हर धर्म के लोग अपने-अपने कुएं में बंद हैं। मुसलमान कहता है कि हमारा कुआं बड़ा, हिन्दू कहता है हमारा। ईसाइयों का भी अलग राग है।
स्वामी विवेकानंद की हू-बहू पंक्तियां हैं – ‘मैं हिन्दू हूं। मैं अपने क्षुद्र कुएं में बैठा यही समझता हूं कि मेरा कुआं ही संपूर्ण संसार है। ईसाई भी अपने क्षुद्र कुएं में बैठे हुए यही समझता है कि सारा संसार उसी के कुएं में है और मुसलमान भी अपने क्षुद्र कुएं में बैठा हुआ उसी को सारा ब्रह्माण्ड मानता है।’
जिस काल में यह दावा है कि ज्ञान का विस्फोट हो गया है, उस काल में धार्मिक क्षुद्रताएं बढ़ी हैं। स्वामी विवेकानंद की तस्वीर लगाए जो घूमते हैं, वे कट्टरता परोस रहे हैं। तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोगों ने भी विवेकानंद को लेकर भारी भूल की है कि उन्हें बौद्धिक विमर्श का आधार भी नहीं बनाया। जो धार्मिक होगा, वह सभी धर्मों का आदर करेगा। वह धार्मिक कट्टरता से परहेज़ भी करेगा और उसका आलोचक भी होगा। देश गुलाम था। भारत के लोगों से गोरी चमड़ी वाले घृणा करते थे। भारतीयों को ब्लैक कह कर पुकारा जाता था। वैसे वक्त में स्वामी विवेकानंद धर्म संसद में पहुंचे और धार्मिक कट्टरता की तीखी आलोचना की। आज भारत इसी धार्मिक कट्टरता का शिकार हो रहा है। धर्म का मतलब ही कट्टरता बनता जा रहा है। आप धर्म को मानें या ना मानें, धरती पर से धर्म फिलहाल जा नहीं रहा है।
हमारे पास चार रास्ते हैं – एक – धर्म को मानें, लेकिन धार्मिक कट्टरता से परहेज़ करें। दूसरे – धार्मिक कट्टरता को ही धर्म समझ लें। तीसरे- धर्म को न मानें, लेकिन धार्मिक लोगों से नफ़रत न करें। चौथा – धर्म को न मानें और धर्म से घृणा भी करें। समाज के लिए कौन सा रास्ता सही है, यह आप चुन लें।
देश की आत्मा को जीवित रखना है तो स्वामी विवेकानंद का रास्ता सही है। विश्व इतिहास में बहुत कम लोग हुए हैं कि वे धार्मिक भी हों और अन्य धर्मों के प्रति सदय रहें। भारत को यही रास्ता चुनना होगा। आप जिस धर्म को मानना चाहते हैं, मानें, लेकिन दूसरे को भी अपना धर्म मानने दें। हां, धार्मिक कट्टरता के प्रति सजग रहें और उसके आंतरिक सुधार के प्रति सचेत रहें।

प्रोफेसर, पूर्व विभागाध्यक्ष, विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग
पूर्व डीएसडब्ल्यू,ति मां भागलपुर विश्वविद्यालय,भागलपुर






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इस सार्थक पहल के लिए शुक्रिया! मेरी कामना है यह प्रयास सफल हो।
आभार
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