संघ अपनी स्थापना के शताब्दी वर्ष पूरा कर चुका है। लेकिन, बीते सौ वर्षों में संघ की विचारधारा को महज सांस्कृतिक खोल के दायरे में परिभाषित करने का प्रयास किया गया है। संघ भी यही चाहता है कि आम जनमानस उसे सांस्कृतिक रूप में ही जाने-समझे। हालाँकि, संघ केवल सांस्कृतिक एवं राजनीतिक संगठन भर नहीं है, बल्कि इसका दायरा इससे ज्यादा विस्तृत है। ऐसा इसलिए कि संघ बिना आर्थिक विचारधारा के इतने वर्षों तक न तो अपनी प्रासंगिकता बनाए रखता और न ही अपने आधिपत्य की चरम स्थिति तक पहुँच पाता। आज संघ का सांस्कृतिक एवं राजनीतिक वर्चस्व है। ऐसे भी संघ के पास संगठन के नाम पर कई शाखाएं हैं – जैसे ,भाजपा, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय किसान यूनियन एवं भारतीय मजदूर यूनियन आदि। इस प्रकार से देखें तो संघ को महज एक सांस्कृतिक संगठन समझना इसका सरलीकरण होगा। ऐसे संगठन को महज सामान्य शब्दावलियों से ना तो परिभाषित किया जा सकता है और ना उसे समझा जा सकता है। प्रश्न उठता है कि आखिर संघ है क्या? इसकी विचारधारा क्या है? क्या यह महज एक सांस्कृतिक संगठन है? क्या सचमुच में यह भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सच्चा प्रतिनिधि है? अगर यह सचमुच में भारतीयता की बात करता है तो इसकी आर्थिक विचारधारा क्या है? क्या इसकी आर्थिक विचारधारा पूँजीवाद का विकल्प है? या इसका पूँजीवादी व्यवस्था से कोई गहरा सम्बन्ध है? इत्यादि।
उपरोक्त प्रश्नों के आलोक में मैं संघ की विचारधारा को लेकर पिछले दो दिनों से लगातार सोच रहा था। कई सारे शोध पत्रों से होकर गुजरा अंततः इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि संघ महज एक सांस्कृतिक संगठन नहीं है। इसके पास कोई सांस्कृतिक विचारधारा नहीं, बल्कि यह पूँजीवाद का ही बाईप्रोडक्ट है। ऐसे भी बचपन से ही संघ के बारे में बिलकुल अनजान था। क्योंकि संघ की कोई भी ऐसी लोकतान्त्रिक गतिविधि हमारे क्षेत्र में नहीं थी, जिससे इसे समझा जा सकता था। संघ का एक विद्यालय था – सरस्वती शिशु मंदिर। लेकिन उसे महज निजी विद्यालय के रूप में जानता था। चूँकि यह विद्यालय घर के कुछ दूरी पर ही था एवं शाम में वहाँ पर शाखा लगती थी, जिसमें व्यायाम सिखाया जाता था। उस स्कूल में सरस्वती पूजा बड़े धूमधाम से मनाया जाती थी। हो सकता है कि यह क्षेत्र कम्युनिस्ट का गढ़ था, इस वजह से यहाँ संघ उतना लोकप्रिय नहीं हो। आज भी बिहार में संघ के पास उतने सदस्य नहीं हैं, जितना उत्तरप्रदेश, केरल एवं पूर्वोत्तर भारत में हैं। संघ को थोड़ा-बहुत जाना-समझा 1998 के बाद, जब भाजपा की सरकार केंद्र में बनी। वो भी लोकप्रिय जनविमर्श के माध्यम से – जैसे, आडवाणी जी की रथयात्रा तथा शत्रुधन सिन्हा के चुनावी जनसभा आदि के द्वारा। उस समय ऐसा लगता था कि वाक़ई संघ भारत का सच्चा प्रतिनिधि है। क्योंकि मीडिया उसे उसी रूप में दिखाती थी। लेकिन अब जब मीडिया की राजनीति को देखता हूँ तो यह समझने में मदद मिली कि यह पूँजीवाद का बायप्रोडक्ट कैसे है? कल संघ के वार्षिक प्रस्ताव को उसके वेबसाइट पर देख रहा था। 1950 से लेकर 2025 तक – कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि संघ पूँजीवाद की खुलकर आलोचना कर रहा है या उसके खिलाफ कोई प्रस्ताव पारित किया हो। हाँ, केवल एक बार छोड़कर, जब इसने WTO की सख्त आलोचना की थी। लेकिन, आज जब अमेरिका अपनी पूँजीवादी शर्तों को भारत पर थोप रहा है तो संघ छुपे रूप से औरंगजेब की क़ब्र खोद रहा है। आज जब भारत कि अधिकांश जनता पूँजीवादी व्यवस्था से त्रस्त है तो संघ उसके साथ आँख -मिचौली का खेल कर रहा है।
सवाल उठता है कि संघ अगर एक सांस्कृतिक संगठन है तो भारतीय संस्कृति में पिछले सौ वर्षों में इसका क्या योगदान रहा है? क्या महज भारतीय संस्कृति का संरक्षक मात्र है? कोई संगठन अपनी उपलब्धियों के बगैर यह दावा प्रस्तुत नहीं कर सकता है कि वो अमुक संस्कृति का संरक्षक है, क्योंकि संस्कृति एक लचीली अवधारणा है एवं स्टेटस-को वालों को कभी भी संरक्षक नहीं माना जा सकता है। ऐसे भी कला, साहित्य एवं धर्म को समझे बगैर संस्कृति को नहीं समझा जा सकता है। तब यह प्रश्न उठता है भारत के धर्म, साहित्य एवं कला में संघ का क्या योगदान है? संघ के पास सौ वर्षों में धर्म के नाम पर राम मंदिर के अलावा कुछ ढोंगी बाबा मिलेंगे, जो कि हिन्दू धर्म को व्यवसाय के रूप में रूपांतरित कर चुके हैं। जिनका काम है आस्था के नाम पर अंधविश्वास को बढ़ावा देना। इसी कारण आज भारत में बाबाओं का व्यापार एक लाख करोड़ से ज्यादा का है। तो क्या धर्म को इन्हीं दायरों में समेट कर देखे जाने की जरुरत है? या इसका कोई विस्तृत फलक भी है? पूँजीवाद की खासियत है कि वो धर्म को महज मुनाफा का साधन मानता है। वह इसे केटेगरिकली देखता है। इसलिए वो तीसरी दुनिया के देशों में कट्टरता को अप्रत्यक्ष रूप से संरक्षण देता आया है। जबकि धर्म को यूनिवर्सली देखे जाने की जरुरत है। अगर इसे भारतीय अवधारणा में भी देखेंगे तो संघ की धर्म की अवधारणा कहीं से फिट नहीं बैठती है। भारत में धर्म को एक ऐसे नैतिक बल के रूप में देखा जाता है, जो कि कर्तव्य के समानंतर व्याख्यायित होता है। यानि एक ऐसा बल, जो आपको सही एवं गलत कार्यों का विवेक प्रदान करता हो। इसके अलावे इसका अपना एक दार्शनिक आधार है, जो कि आत्मा एवं परमात्मा के संबंधों के महीन धागों को विश्लेषित करता है। क्या संघ इस बात का दावा कर सकता है कि उसके पास ऐसा कोई धार्मिक दर्शन है, जिसने भारत के धार्मिक दर्शन पर कोई ऐसा काम किया हो, जिससे उसके योगदान को रेखांकित किया जा सके? हाँ, आधुनिक काल में विवेकानंद एवं राधाकृष्णन दो ऐसे दार्शनिक हुए। एक ने धर्म की नववेदांती व्याख्या की तो दूसरे ने धर्म के षडदर्शन को आसान शब्दों में आम लोगों तक पहुँचाया। लेकिन, इन दोनों का संघ से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है।
अब अगर कला एवं साहित्य को देखा जाय तो यहाँ भी आपको संघ से निराशा हाथ लगेगी। कला क्या है? कला एक ऐसी विधा है, जिसको देखने के बाद मन को तृप्ति मिलती है। जिसके क़रीब जाने भर से आप गहरे अवसाद से मुक्त हो जाते हैं। भारत में कला का प्राचीनतम रूप नाट्य एवं शास्त्रीय संगीत रहा है। लेकिन संघ के पास ऐसा कोई कलाकार नहीं है, जो इस विधा का पारंगत हो। किसी ऐसे गाँव में ऐसा कोई रंगमंच नहीं है, जिसे संघ से प्रेरित माना जा सकता है। हाँ, संघ ने इंडो-इस्लामिक संगीत एवं स्थापत्य पर गहरा आघात जरूर पहुँचाया है। संगीत एवं फिल्मों में इसके पास प्रोपगंडा एवं अश्लीलता के आलावा कुछ नहीं है। साहित्य में इसका कोई भी लेखक समाज का प्रतिबिम्ब खड़ा नहीं करता। भला साहित्य शून्य संगठन सांस्कृतिक संगठन कैसे हो सकता है? क्या राम मंदिर की अपनी कोई नई स्थापत्य शैली है? अगर है तो संघ को उस पर दावा प्रस्तुत करना चाहिए।
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर संघ को देखे जाने की जरुरत है। तभी संघ के द्वारा प्रचारित धार्मिक हुल्लरबाज़ी को समझा जा सकता है। संघ का ढाँचा कहीं से लोकतान्त्रिक नहीं है। आज भी संघ हायरर्की को मानता है। यह एक दबाव समूह के रूप में प्रत्यक्षतः पूँजीवाद के लिए काम कर रहा है। यह भारत में पूँजीवाद का सेफ्टी वॉल्व है, जो अपने स्थापना के काल से ही उसके लिए काम कर रहा है। यही कारण था कि इसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से खुद को न केवल अलग रखा, बल्कि अंग्रेजों की नीति ‘फूट डालो और राज करो’ का अनुसरण भी करता रहा। कभी यह जमींदारों से संरक्षित होता रहा तो कभी बड़े पूँजीपतियों के साथ मिलकर आगे बढ़ता रहा। इसकी अपनी कोई आर्थिक नीति या विचारधारा नहीं है। अगर है तो 17 वर्षों तक भारत में राज करने के बावजूद इसने नवउदारवादी विचारधारा के विकल्प के रूप में क्या परोसा है? सड़कों का निर्माण और निजीकरण ही इसकी उपलब्धि है। आज शिक्षा एवं स्वास्थ्य के निजीकरण का सबसे बड़ा पैरोकार है यह। स्थानीय स्तर पर सबसे ज्यादा अगर जनता शोषित है तो शिक्षा एवं स्वास्थ्य के निजीकरण से। इसके खुद के स्कूल शिशु मंदिर आज महँगे प्राइवेट विद्यालय के रूप ले चुके हैं। इसलिए इनके साथ अगर संस्कृति और अर्थव्यवस्था पर बात कीजिए तो यह भाग जाएगा या मौन धारण कर लेगा। क्योंकि, यह जानता है कि पूँजीवाद से ही इसे खाद पानी मिलता रहता है।
आज संघ का वर्चस्व पॉपुलीज्म एवं पॉपुलर साहित्य के बल पर है, न कि यथार्थ के धरातल पर।

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