उच्च शिक्षा में भेदभाव और ज्ञान-उत्पादन का संकट : एक विश्लेषण

यह आलेख प्रो० रवि कुमार के विचारों पर आधारित है। इस आलेख में बताया गया है कि भारत के उच्च शिक्षा संस्थान, जो ज्ञान, समानता और प्रगतिशील सोच के केंद्र माने जाते हैं, आज भी जाति-आधारित भेदभाव और बहिष्कार की गहरी चुनौतियों से जूझ रहे हैं। वंचित समुदायों के हज़ारों छात्र सामाजिक पूर्वाग्रह, सूक्ष्म भेदभाव और संसाधनों की कमी के कारण बीच में ही पढ़ाई छोड़ने को मजबूर हो जाते हैं। यह स्थिति केवल छात्रों तक सीमित नहीं है, बल्कि शिक्षकों और शोधकर्ताओं के अवसरों तथा प्रतिनिधित्व में भी गहरे असमानता के रूप में दिखाई देती है। विविधता की कमी से न केवल ज्ञान-उत्पादन का दायरा संकुचित होता है, बल्कि छात्रों के बौद्धिक, नेतृत्व और आलोचनात्मक सोच के विकास पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस संदर्भ में, आरक्षण नीतियों का सख़्ती से पालन, समावेशी पाठ्यक्रम और संवेदनशीलता प्रशिक्षण जैसे ठोस कदम अनिवार्य हो जाते हैं, ताकि उच्च शिक्षा वास्तव में लोकतांत्रिक और समान अवसर प्रदान करने वाली बन सके।

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(स्पष्टीकरण : यह आलेख डेक्कन हेराल्ड में मूल रूप से अंग्रेजी में ‘Discrimination and the knowledge production crisis in higher education’ शीर्षक से पूर्व प्रकाशित है। इस आलेख के मूल लेखक प्रो० रवि कुमार साउथ एशियन यूनिवर्सिटी, दिल्ली में सेंटर फॉर एक्सलेंस इन टीचिंग एंड लर्निंग के निदेशक हैं।)

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lokjivan
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2 Comments

  1. मैं इधर कुछ दिनों से एक मित्र के सौजन्य से “लोकजीवन” में छपे कुछ आलेखों, विश्लेषणात्मक लेखों आदि को पढ़ा। आपकी पत्रिका में छपे आर्टिकल काफी समयोचित और ज्ञानवर्धक लगे। इसके लिए संपादक सहित लोकजीवन के समस्त परिवार को धन्यवाद सहित ढेर सारी शुभकामनायें
    🌹🙏

    • धन्यवाद मनोरथ महाराज जी! आपके सहयोग और समर्थन की सदैव आवश्यकता है।

      धन्यवाद मनोरथ महाराज जी! आपके सहयोग और समर्थन की सदैव आवश्यकता है। आशा करता हूँ कि आपका लोकजीवन को इसी तरह आपका प्यार मिलता रहेगा।

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