भारत में शिक्षा को अक्सर सामाजिक परिवर्तन और समानता का सबसे महत्वपूर्ण माध्यम माना जाता है। परंतु वास्तविकता यह है कि शिक्षा प्रणाली, विशेषकर उच्च शिक्षा संस्थान (Higher Education Institutions – HEIs), सामाजिक असमानताओं और भेदभाव से मुक्त नहीं हैं। हाल के वर्षों में हुए अध्ययन और रिपोर्टें यह दर्शाती हैं कि जाति-आधारित भेदभाव और बहिष्कार केवल समाज के निचले स्तर तक सीमित नहीं, बल्कि विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा के प्रतिष्ठित परिसरों में भी गहरे पैठे हुए हैं।
जातिगत भेदभाव की निरंतरता
2023 में हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी से एक RTI रिपोर्ट ने खुलासा किया कि पीएचडी प्रवेश में जातिगत भेदभाव मौजूद है। और, राज्यसभा में केंद्र सरकार ने बताया कि 2018 से 2023 के बीच लगभग 19,000 अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के छात्र केंद्रीय विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा संस्थानों से पढ़ाई छोड़ चुके हैं।
यह केवल आंकड़े नहीं हैं, बल्कि यह उस अदृश्य लेकिन घातक सामाजिक तंत्र की ओर इशारा करते हैं जो वंचित समुदायों को धीरे-धीरे शिक्षा प्रणाली से बाहर धकेल देता है।
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रोज़मर्रा के अनुभव और सूक्ष्म भेदभाव
दलित और वंचित छात्रों के लिए विश्वविद्यालय का अनुभव केवल अकादमिक नहीं होता, बल्कि यह उनकी सामाजिक पहचान के आधार पर लगातार प्रभावित होता है। कक्षा में, हॉस्टल में, पुस्तकालय में या अन्य जगहों पर उन्हें मिलने वाले व्यवहार में अक्सर भेदभाव छिपा होता है—
- भाषा का प्रयोग (जैसे उनकी मातृभाषा को कमतर आंकना),
- सूक्ष्म टिप्पणियाँ और मज़ाक,
- हाव-भाव और अलगावपूर्ण रवैया।
ये बातें धीरे-धीरे इस भेदभाव को सामान्य बना देती हैं, जिससे पीड़ित छात्र के आत्मविश्वास, प्रदर्शन और मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
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शिक्षा प्रणाली और सामाजिक पुनरुत्पादन
फ्रांसीसी समाजशास्त्री पियरे बोरदियू का सिद्धांत यहां बेहद प्रासंगिक है। उन्होंने बताया कि शिक्षा प्रणाली केवल ज्ञान नहीं देती, बल्कि सामाजिक ढांचे को पुनः उत्पन्न (Reproduce) करती है।
विशेषाधिकार प्राप्त पृष्ठभूमि के छात्र अक्सर सांस्कृतिक पूंजी (Cultural Capital) लेकर आते हैं—जैसे भाषा-कौशल, उच्च गुणवत्ता के संसाधनों तक पहुंच, आत्मविश्वास और नेटवर्क—जो उन्हें शिक्षा में आगे बढ़ने में मदद करते हैं।
इसके विपरीत, वंचित पृष्ठभूमि के छात्रों के पास यह पूंजी नहीं होती। नतीजा यह कि संस्थान के पाठ्यक्रम, मूल्यांकन और शिक्षण शैली उनके अनुभवों और ज्ञान को महत्व नहीं देती।
अध्यापक और अवसरों का असमान वितरण
यही असमानता केवल छात्रों तक सीमित नहीं है। शिक्षकों और शोधकर्ताओं के चयन, पदोन्नति और अवसरों में भी यह दिखाई देती है। नियुक्ति और मूल्यांकन के मानक वंचित पृष्ठभूमि के शिक्षकों की सामाजिक वास्तविकताओं को नहीं पहचानते और अंततः यह विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग को ही लाभ पहुंचाते हैं।
बहिष्कार के नेटवर्क (Networks of Exclusion)
बोरदियू ने आगे बताया कि विश्वविद्यालयों में “छिपा हुआ पाठ्यक्रम” (Hidden Curriculum) और शिक्षण के भीतर की अदृश्य धारणाएँ, जाति-आधारित प्रतीकात्मक हिंसा को बनाए रखती हैं।
दलित नारीवादी विद्वान शर्मिला रेगे के अनुसार, जब वंचित समुदायों के छात्र विश्वविद्यालय में आते हैं, तो वे “कक्षा की सामाजिक एकरूपता” और शैक्षणिक संस्थाओं के बोर्ड व समितियों की संरचना को चुनौती देते हैं। इससे घर्षण भी पैदा होता है, लेकिन साथ ही यह असमानताओं पर बहस के नए अवसर खोलता है।
रेगे ने यह भी कहा कि जातिगत विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के लिए सबसे बड़ी समझ यह होनी चाहिए कि वे उन संस्कृतियों और ज्ञान प्रणालियों से अनभिज्ञ हैं, जिन्हें लंबे समय से हाशिये पर धकेल दिया गया है।
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विविधता की कमी और उसका प्रभाव
जब उच्च शिक्षा संस्थानों में समाज की पूरी विविधता का प्रतिनिधित्व नहीं होता, तो impart किया गया ज्ञान अधूरा और वास्तविक जीवन से कटा हुआ होता है। इससे छात्रों को केवल सीमित और रेखीय दृष्टिकोण मिलता है।
शोध से यह सिद्ध हुआ है कि विविध कक्षाएँ न केवल बौद्धिक क्षमता (Intellectual Enhancement) बढ़ाती हैं, बल्कि नेतृत्व क्षमता और आलोचनात्मक सोच (Critical Thinking) को भी विकसित करती हैं।
विडंबना यह है कि हाल के कुछ प्रस्ताव विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम से जाति, भेदभाव, स्त्रीद्वेष जैसे विषयों को हटाने या कम महत्व देने की दिशा में हैं। यह रुझान ज्ञान उत्पादन को और भी सीमित व पक्षपाती बना सकता है।
रिक्त पद और प्रतिनिधित्व का संकट
HEIs में बड़ी संख्या में फैकल्टी पद रिक्त हैं। यह केवल प्रशासनिक समस्या नहीं, बल्कि बौद्धिक परिदृश्य पर गहरा असर डालने वाला मुद्दा है। जब वंचित समुदायों से आने वाले शिक्षकों की नियुक्ति नहीं होती, तो छात्रों को विविध दृष्टिकोण और अनुभवों से वंचित रहना पड़ता है।
इन रिक्तियों को भरना सिर्फ संख्या बढ़ाने का मामला नहीं है, बल्कि यह ज्ञान उत्पादन को लोकतांत्रिक और प्रतिनिधिक बनाने का आवश्यक कदम है।
आगे की दिशा
यदि उच्च शिक्षा को वास्तव में लोकतांत्रिक, समावेशी और न्यायसंगत बनाना है, तो हमें—
- प्रवेश और नियुक्ति में आरक्षण नीतियों का कड़ाई से पालन करना होगा।
- पाठ्यक्रम में विविधता लानी होगी, जिसमें वंचित समुदायों के अनुभव और दृष्टिकोण शामिल हों।
- शिक्षकों और छात्रों के लिए संवेदनशीलता प्रशिक्षण अनिवार्य करना होगा।
- समुदाय-आधारित निगरानी तंत्र (Community Oversight Mechanisms) लागू करने होंगे ताकि संस्थान जवाबदेह बने रहें।
निष्कर्ष
उच्च शिक्षा का उद्देश्य केवल डिग्री प्रदान करना नहीं, बल्कि समाज के सभी वर्गों को समान अवसर और प्रतिनिधित्व देना है। जब संस्थान जातिगत पूर्वाग्रहों और बहिष्कार के नेटवर्क से मुक्त होंगे, तभी वे ज्ञान-उत्पादन के वास्तविक लोकतांत्रिक केन्द्र बन पाएंगे। अन्यथा, वे केवल विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों के लिए शक्ति और अवसर के दुर्ग बने रहेंगे।
(स्पष्टीकरण : यह आलेख डेक्कन हेराल्ड में मूल रूप से अंग्रेजी में ‘Discrimination and the knowledge production crisis in higher education’ शीर्षक से पूर्व प्रकाशित है। इस आलेख के मूल लेखक प्रो० रवि कुमार साउथ एशियन यूनिवर्सिटी, दिल्ली में सेंटर फॉर एक्सलेंस इन टीचिंग एंड लर्निंग के निदेशक हैं।)

मैं इधर कुछ दिनों से एक मित्र के सौजन्य से “लोकजीवन” में छपे कुछ आलेखों, विश्लेषणात्मक लेखों आदि को पढ़ा। आपकी पत्रिका में छपे आर्टिकल काफी समयोचित और ज्ञानवर्धक लगे। इसके लिए संपादक सहित लोकजीवन के समस्त परिवार को धन्यवाद सहित ढेर सारी शुभकामनायें
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धन्यवाद मनोरथ महाराज जी! आपके सहयोग और समर्थन की सदैव आवश्यकता है। आशा करता हूँ कि आपका लोकजीवन को इसी तरह आपका प्यार मिलता रहेगा।