जनतंत्र

आत्मज्ञानी महात्मा लोक-विमुख होकर निर्जन में दोनों आँखें बंद करके परमात्म-ध्यान में लीन थे। तभी चरणों पर स्पर्श के साथ ‘त्राहि माम’ की आवाज ने उनका ध्यान भंग कर दिया। उन्होंने धीरे-धीरे आँखें खोलीं तो पाया कि सामने मैले-कुचैले वस्त्र पहने एक साया भूलुंठित पड़ा है। उसके बाल, नाखून आदि बेतरतीबी से बढ़े हुए थे, कपड़े गंदे और जगह-जगह से आते हुए थे, जैसे काफी दिनों से वह साफ-सुथरा नहीं हुआ हो। वह सुखकर काँटा कि तरह हो गया था और होठों पर पपड़ियाँ पड़ी थीं, मानो वह बहुत दिनों से भूखा और प्यासा हो। उसे इस हाल में देखकर सांसारिक प्रपंचों से मुख मोड़े हुए महात्मा के मन में भी उसके प्रति दया उत्पन्न हो गई। उन्होंने पूछा - ‘तुम कौन हो?’

आत्मज्ञानी महात्मा लोक-विमुख होकर निर्जन में दोनों आँखें बंद करके परमात्म-ध्यान में लीन थे। तभी चरणों पर स्पर्श के साथ ‘त्राहि माम’ की आवाज ने उनका ध्यान भंग कर दिया। उन्होंने धीरे-धीरे आँखें खोलीं तो पाया कि सामने मैले-कुचैले वस्त्र पहने एक साया भूलुंठित पड़ा है। उसके बाल, नाखून आदि बेतरतीबी से बढ़े हुए थे, कपड़े गंदे और जगह-जगह से आते हुए थे, जैसे काफी दिनों से वह साफ-सुथरा नहीं हुआ हो। वह सुखकर काँटा कि तरह हो गया था और होठों पर पपड़ियाँ पड़ी थीं, मानो वह बहुत दिनों से भूखा और प्यासा हो। उसे इस हाल में देखकर सांसारिक प्रपंचों से मुख मोड़े हुए महात्मा के मन में भी उसके प्रति दया उत्पन्न हो गई। उन्होंने पूछा – ‘तुम कौन हो?’

भूलुंठित साये ने उत्तर दिया – ‘महाराज, मैं जनतंत्र हूँ।‘

महात्मा ने पूछा – ‘तुम तो जनता में रहते हो, सबके हो, सबके लिए हो। फिर तुम्हारी यह हालत कैसे हो गई?’

जनतंत्र ने कहा – ‘उसी जनता के कारण मेरी यह हालत हो गई है, जिसके लिए मैं हूँ। लोगों ने मेरी चिंता छोड़ दी, मेरी सफाई छोड़ दी, मेरा पोषण बंद कर दिया, जिससे मैं सूखकर काँटा हो गया।‘ जनतंत्र ने उन्हें याद दिलाया कि जनतंत्र का जन्म भी उनके ही कारण हुआ था। राजा भोगी और विलासी हो गए थे, जनता भूख और लाचारी से त्राहि-त्राहि कर रही थी, सामूहिक उत्पादन के उद्योग-धंधों में एकल राजतंत्र बाधक हो रहा था, उस समय उन्होंने पूरे राष्ट्र के सुख, चैन, उन्नति और भाईचारे के लिए जनतंत्र का आह्वान किया था। सबको लगा था कि जब जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा शासन हो जाएगा तो फिर सब बराबर हो जाएँगे। न कोई बड़ा होगा, न कोई छोटा, न कोई शोषक होगा और न कोई शोषित। सबके आनंद और आत्मीयता भरे दिन शुरू हो जाएँगे। उस समय वह नवोदित जनतंत्र सबकी आशाओं का केंद्र था, सबका दुलारा था। लेकिन, आज जब वह संकट में आ गया है तो फिर उनकी शरण में आया है।

उन्होंने पूछा – ‘तब तुम क्या चाहते हो?’

ज्जंतंत्र ने गुहार लगाइ – ‘महाराज, मेरे प्राण संकट में हैं। इस तरह तो मैं मर ही जाऊँगा। मैं कहाँ जाऊँ, कहाँ रहूँ? महाराज, मेरा ठौर बतायें। मेरी रक्षा करें।‘

महात्मा को जनतंत्र की हालत पर दया आई। उन्होंने उसे सुहाव दिया – ‘देखो, जनतंत्र की रक्षा के लिए राजनीतिक दल बने हुए हैं। उन्हीं के पास जनतंत्र के पोषण और उसे सा-सुथरा रखने की जवाबदेही होती है। वे जनतंत्र के सशक्तिकरण और सौंदर्यीकरण की फिक्र करते हैं। उनके साथ तुम सुख-चैन से जी सकोगे। तुम राजनीतिक दलों में ही जाकर रहो।‘

समझा-बुझाकर उन्होंने जनतंत्र को विदा किया। जनतंत्र ने उनकी बात मानी और राजनीतिक दलों में जाकर रहने लगा। महात्मा ने फिर अपनी आँखें मूँदीं और परमात्म-ध्यान में खो गए।

जनतंत्र की चिंता से मुक्त होकर महात्मा फिर से अपनी ध्यान-साधना में व्यस्त हो गए। लेकिन कुछ दिनों के बाद, जब महात्मा उसी तरह ध्यान-लीन थे तो जनतंत्र ने आकर उनके दोनों पैर पकड़ लिए और ‘त्राहि माम, त्राहि माम’ चिल्लाने लगा। घबराकर उन्होंने अपनी आँखें खोलीं तो देखा कि वही जनतंत्र उनके पैर पकड़े कराह रहा है और रक्षा की गुहार लगा रहा है। इस बार उसके सारे बदन पर जख्मों के निशान थे और उनसे खून बह रहा था। उसके कपड़े भी पहले से ज्यादा गंदे और आते हुए थे और बाल तथा नाखून बेहद बढ़े हुए थे। उसकी यह बुरी हालत देखकर वे दयार्द्र हो गए। पूछा – ‘तेरी ये हालत कैसे हो गई?’

जनतंत्र ने बताया – ‘महाराज, राजनीतिक दलों ने मेरी यह हालत कर दी।‘

उन्होंने जिज्ञासा व्यक्त की – ‘कैसे?’

जनतंत्र ने बताया – ‘महाराज, वहाँ किसी को मेरी फिक्र नहीं है। सब राजनीतिक दल यह दिखाने के लिए परेशान हैं कि केवल वे ही जनतंत्र कि रक्षा कर सकते हैं। इसलिए जनतंत्र को उनके साथ होना चाहिए। अपनी-अपनी तारा मुझे करने की खींच-तान और उठा-पटक में मैं इतना लहू-लुहान हो गया हूँ कि ये घाव अब बर्दाश्त नहीं होते हैं। मेरी रक्षा कीजिये महाराज, मेरा ठौर बताइये।‘

महात्मा को अब सचमुच जनतंत्र कि चिंता होने लगी। उन्हें लगा कि इस तरह तो यह मर ही जाएगा बेचारा! उन्होंने उसके घावों को धोया, मरहम-पट्टी कि, खाना खिलाया और बाल-नाखून सँवारे। जनतंत्र को थोड़ी राहत मिली और कुछ बल मिला। उन्होंने देखा कि जनतंत्र कुछ स्वस्थ महसूस कर रहा है तो उससे कहा – ‘देखो, जनतंत्र के रहने के लिए घर बना हुआ है। उसको संसद कहते हैं। वहाँ जनतंत्र कि ही फिक्र कि जाती है। तुम वहाँ सुख और चैन से जी सकोगे। वहाँ न तो तुम्हें पोषण का अभाव होगा और न ही गंदा रहने की लाचारी होगी। वहाँ कोई तुम्हें तंग करेगा या तुम्हारी देख-भाल की उपेक्षा करेगा तो दूसरे उसका विरोध करेंगे। इस तरह वहाँ तुम सुरक्षित और हृष्ट-पुष्ट रह सकोगे। इसलिए तुम संसद में ही जाकर रहो।‘

बात मानकर जनतंत्र संसद में रहने चला गया और वे फिर अपने ध्यान में चले गए।

कुछ दिनों के बाद रास्ते में एक साये ने आकर उनके चरण-स्पर्श किए। उन्होंने उसे गौर से देखा। मुँह आगे की ओर निकाला हुआ, आँखें धँसी हुईं, लंबी पूंछ, गले में घण्टियों वाला पत्ता और उससे लगी हुई बड़ी-सी पकड़ने वाली रस्सी। वह मेले में तमाशा करने वाले बंदर की तरह लग रहा था। वे उसे पहचान नहीं पाये। पूछा – ‘तुम कौन हो?’

उसने जवाब दिया – ‘पहचाना नहीं महाराज, मैं जनतंत्र हूँ।‘

महात्मा तो उस बंदरनुमा जनतंत्र को अवाक होकर देखते ही रह गए। जिस जनतंत्र से उम्मीद थी कि वह शोषितों-पीड़ितों को विमुक्ति रास्ता देगा, वह तो खुद मदारी के इशारे पर नाचने वाला बंदर होकर रह गया है।

अब महात्मा को लगा कि जनतंत्र को समय के रहमो-करम पर नहीं छोड़ा जा सकता है। कपड़ा कितना भी साफ हो, बार-बार धोने से ही वह साफ रह पाता है। इसलिए जनतंत्र की बेहतरी के लिए भी लगातार उसकी हिफाजत और सफाई करने की जरूरत है, नहीं तो समयान्तराल में वह बीमार, गंदा या बंदर होकर रह जाता है।

महात्मा ने फिर लोगों को जमा किया। उन्होंने बताया कि जनतंत्र जनता के लिए ही है। जनता के द्वारा उसकी चिंता और हिफाजत नहीं किए जाने के कारण उसे इशारों पर नाचने वाला बंदर बनाकर छोड़ दिया गया है। वह इस तरह का नहीं है, उसे इस तरह का बना दिया गया है। इसलिए हमारा कर्तव्य उसके गले से घंटी का पट्टा और रस्सी को खोलना है और उसे फिर से दो पैरों पर चलना सिखाना है।

लोगों को बात समझ में आई। उन्हें अपने कर्तव्य का बोध हुआ और सब लोग मिलकर जनतंत्र को जनता का बनाने के लिए दौड़ पड़े।

Dr. Anil Kumar Roy
Dr. Anil Kumar Roy

कार्यकर्ता और लेखक
डॉ. अनिल कुमार रॉय सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों के लिए अथक संघर्षरत हैं। उनके लेखन में हाशिए पर पड़े लोगों के संघर्ष और एक न्यायसंगत समाज की आकांक्षा की गहरी प्रतिबद्धता परिलक्षित होती है।

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