नो डिटेंशन पालिसी की समाप्ति के रूप में आने वाले परिणाम को समझने के लिए राज्य की प्रवृत्तिगत कार्यप्रणाली को समझना आवश्यक है।
ईसा के 1776 साल पहले बेबीलोन के बादशाह हम्मुराबी ने पहली विधि संहिता तैयार करके लिखित क़ानून के राज्य की शुरुआत की। इस संहिता का उद्देश्य बताया गया कि यह “मुल्क में न्याय की स्थापना के लिए” तथा “ताक़तवरों के द्वारा कमज़ोरों का दमन करने से रोकने” के लिए है। न्याय के उद्घोष और दमन से सुरक्षा के लिए जारी की गई इस संहिता की धारा 196 से 199 तक में व्यवस्था की गई कि यदि कोई कुलीन दूसरे कुलीन को अंधा कर दे तो उसे भी दंडस्वरूप अंधा कर दिया जाएगा। लेकिन वहीं कोई कुलीन किसी सामान्य नागरिक को चाँदी के 60 सिक्के देकर अंधा कर सकता था और ग़ुलाम को तो इससे भी आधा देकर। अर्थात् दमन से सुरक्षा के नाम पर तैयार की गई यह संहिता कुलीनों के द्वारा किए जाने वाले दमन का प्रतिषेध नहीं कर रही थी, बल्कि कुलीनों के हाथ में, पैसों के बल पर, दमन को संरक्षित कर रही थी।
ईसा के 1776 साल पहले राजतंत्र की बात थी। लेकिन इसके 1776 साल बाद स्वतंत्रता के घोषणापत्र में अमेरिका ने भी इससे मिलती-जुलती घोषणा जारी की – “हम इन वास्तविकताओं को स्वतःसिद्ध मानते हैं कि सारे मनुष्यों की रचना समान मानकर की गई है।” उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष से जन्मे लोकतांत्रिक अमेरिका में भी समानता के सिद्धांत को सिद्धांततः स्वीकार तो किया गया, लेकिन क़ानूनी व्यावहारिकता में औरतों को मर्दों के बराबर, अश्वेतों को श्वेतों के बराबर और यहाँ तक कि संपत्तिहीन श्वेतों को भी संपत्तिवान श्वेतों के बराबर नहीं माना गया। अब लोकतंत्र था। लेकिन यहाँ भी लैंगिक, सामाजिक, नस्ली और आर्थिक विषमता राजनीतिक रास्तों का निर्माण करती रही।
1789 में अमेरिका में लागू होने वाले दुनिया के पहले लोकतांत्रिक संविधान के डेढ़ सौ वर्षों से भी ज़्यादा समय के बाद 1950 में भारत जब दुनिया के सबसे बड़े संविधान को ‘आत्मार्पित” कर रहा था तो उसमें भी लगभग उसी तरह न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व की घोषणा की गई। ये शब्द आपस में मिलते-जुलते हैं। अमेरिकी संविधान से थोड़ा आगे बढ़कर, लैंगिक, आर्थिक, सामाजिक, नस्ली विभेद से परे, सभी वयस्क नागरिकों को मताधिकार का राजनीतिक अधिकार तो दिया गया, लेकिन स्त्री और पुरुष को समान काम के लिए समान वेतन, बालश्रम निषेध, समान और निःशुल्क विधिक सहाय, निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा, भूमि का वितरण आदि उपबंध, जो समानता, न्याय और मानव-गरिमा के लिए आवश्यक थे, ‘राज्य के नीति निदेशक तत्व’ कर दिये गये, जिन्हें पूरा करना राज्य के लिए अनिवार्य नहीं था, जिन्हें न्यायालय में चुनौती देकर प्राप्त नहीं किया जा सकता था और जिनमें से अनेक बातों के लिए आज भी संघर्ष जारी हैं।
तात्पर्य यह कि राज्य, चाहे वह राजतांत्रिक हो या लोकतांत्रिक, सदैव न्याय और समता का उद्घोष करता रहा है, लेकिन क़ानूनों और प्रावधानों के माध्यम से और उन्हें लागू करने के मामलों में लैंगिक, सामाजिक, नस्ली, आर्थिक आदि असमानताओं को पोषित करने की कोशिश करता रहा है, जिसे समाप्त करने की अपेक्षा, कम-से-कम, लोकतांत्रिक राज्य से तो की ही जाती है। ये संवैधानिक आश्वासन व्यवहार में ठीक उसी तरह हैं, जैसे ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता’ के गरिमामय वक्तव्य के साथ उन्हें बाल्यावस्था, यौवनावस्था और वृद्धावस्था में क्रमश: पिता, पति और पुत्र के अधीन रहने की व्यवस्था की जाती है। गरिमा और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे लोगों के लिए यह खबर हतोत्साहजनक है। मगर सच है।
इसका कारण होता है कि जिस वर्ग का सामाजिक वर्चस्व होता है, राजनीतिक सत्ता भी उसी वर्ग और उसी मानसिकता से नियंत्रित होती है। इसे समझने के लिए वर्तमान संदर्भ से उदाहरण लेते हैं। पिछड़े वर्ग से आये हुए बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव जी के कार्यकाल में राज्य के दलितों-पिछड़ों के लिए राजनीतिक बयानबाज़ियाँ तो खूब हुईं। इन बयानबाज़ियों का उद्देश्य अपने वोट बैंक के रूप में उन्हें संगठित करना भर रहा। लेकिन जिस शिक्षा के माध्ययम से उन दलितों-पिछड़ों के जीवन में परिवर्तन की संभावना का प्रवेश हो सकता था, उनके लिए महज़ 1500/- रुपये मासिक पर अप्रशिक्षित और ग़ैर ज़िम्मेदार शिक्षकों की नियुक्ति की गई तथा प्राय: भवनहीन या एक कमरे के चरवाहा विद्यालय और पहलवान विद्यालय खोले गये ताकि हज़ारों वर्षों से मुख्यधारा से निष्कासित वह वर्ग अगली कई पीढ़ियों तक भी उसी तरह चरवाहा बना रहकर अभाव, अपमान, दयनीय और पिछड़ा जीवन जीता रहे। पिछड़े समुदाय से निकलकर सत्ता के शीर्ष पर पहुँचे हुए इस मुख्यमंत्री के द्वारा जिस समय दलितों-पिछड़ों के लिए चरवाहा विद्यालय और पहलवान विद्यालय खोले जा रहे थे, उसी समय दूसरी ओर संभ्रांत और कुलीन परिवारों के बच्चों के लिए डीपीएस आदि राष्ट्रीय स्तर के निजी विद्यालयों को खोले जाने की स्वीकृति भी दी जा रही थी। पिछड़े वर्ग से ही आये हुए अगले मुख्यमंत्री ने भी अपने को प्रगतिशील प्रदर्शित करने की क़वायद में समान स्कूल प्रणाली आयोग का गठन तो किया, मगर उसकी रिपोर्ट को कूड़ेदान में डाल दिया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फ़ैसले पर, जिसमें कहा गया था कि सरकार से पैसा लेने वाले सभी लोगों के लिए अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाना अनिवार्य है, पिछड़े वर्ग के ही तत्कालीन मुख्यमंत्री ने, जिनकी पार्टी नाम भी ‘समाजवादी’ है, कभी सोचा भी नहीं; बल्कि विरोध ही किया। वचन और व्यवस्था का फ़र्क़ ही मुख्य धारा की राजनीतिक सत्ता की स्वाभाविक प्रवृत्ति है।
राजनीतिक षड्यंत्र में वचन (क़ानून आदि भी) और व्यवहार के इस फ़र्क़ को समझे बिना ‘नो डिटेंशन पालिसी’ की समाप्ति के अभिप्राय को नहीं समझा जा सकता है।
‘मुफ़्त एवं अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009’ भारत के राजनीतिक-सामाजिक इतिहास में, कई तरह की दुर्बलताओं को अपने में समेटे रहने के बावजूद, एक क्रांतिकारी कदम है, जब सरकार ने 6 से 14 आयु वर्ग के तमाम बच्चों को, शारीरिक क्षमता बाधितों को भी, पढ़ाने के संकल्प का बीड़ा उठाया था। इसी क़ानून का एक प्रावधान ‘नो डिटेंशन पालिसी’ था। ‘था’, इसलिए कि अब इसे नोचकर इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया गया है। इस पालिसी का प्रावधान था कि प्रारंभिक शिक्षा (आठवीं तक) पूरी किए जाने तक न तो किसी बच्चे को किसी कक्षा में रोका जाएगा और न ही निष्कासित किया जाएगा। (1)
क़ानून समस्याओं को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं। शिक्षा के लिए क़ानून भी समस्याओं को ध्यान में रखकर बनाया गया। इस देश में प्रारंभिक शिक्षा की दो प्राथमिक समस्याएँ रही हैं – पहला तो शत-प्रतिशत नामांकन का और दूसरा विद्यालय में ठहराव का। मुफ़्त एवं अनिवार्य शिक्षा अधिकार शत-प्रतिशत नामांकन को संबोधित कर रहा था। इसके परिणाम भी सकारात्मक आये। जिस आबादी ने कभी स्कूल का मुँह नहीं देखा था, उनके बच्चे भी स्कूल की चहारदीवारी के भीतर हँसने-मुस्कुराने लगे। सकल नामांकन दर 100 के आँकड़े को पार गया और शायद ही कोई बच्चा नामांकित होने से (नियमित आने से नहीं) वंचित रह गया। वंचित समुदाय के जीवन में परिवर्तन का यह ऐतिहासिक कालखंड था। दूसरी ओर छीजन की समस्या को ‘नो डिटेंशन पालिसी’ ने संबोधित किया। शिक्षा अधिकार लागू किए जाते वक्त छीजन दर 42.5% था। उसमें भी अनुसूचित जाति का 51.8% और अनुसूचित जनजाति का 56.8%। इस भयानक छीजन के पीछे कई कारक काम कर रहे थे, जिसके कारण नामांकन के अवरोध को पार करके किसी तरह स्कूल में दाखिल होने वाले बच्चे भी बाहर ढकेले (push out) जा रहे थे। इसमें से एक महत्वपूर्ण कारक परीक्षा-प्रणाली का वह अवरोध था, जिस परीक्षा-प्रणाली को शिक्षा के स्वरूप-निर्धारण और संचालन के लिए औद्योगिक और कार्यालयी आवश्यकताओं के अनुरूप तैयार किया गया था और जिसमें सामाजिक-आर्थिक रूप से भारत के पिछड़े समूह के बच्चे बिलकुल अनफिट बैठते थे। परीक्षा की इस स्वरूप-संरचना में इस समूह के बच्चों के लिए चिंता भी नहीं थी। जो वर्ग शिक्षा-परीक्षा के स्वरूप निर्धारित कर रहे थे, वे कार्यालयी और औद्योगिक आवश्यकताओं की पूर्ति के हिसाब से शिक्षा को गढ़ रहे थे। उनके सामने वंचित समूह के बच्चों के हित नहीं थे। इसलिए उन्होंने जानकारी को जाँचने की प्रणाली औद्योगिक और कार्यालयी हितों के अनुरूप ही रखी। शिक्षा अधिकार क़ानून को बनाये जाते वक्त सरकार भी इस दबाव से उबर नहीं सकी। लेकिन उसके ऊपर लोकतांत्रिक हितों की पूर्ति का भी दबाव था, जो सरकारी बुद्धिजीवियों के ऊपर एकदम नहीं था। इसलिए एक बीच का रास्ता निकालते हुए बच्चों को स्कूल में रोके रखने के उद्देश्य से इस समूह ने जानकारी को जाँचने की जिस सतत एवं व्यापक मूल्यांकन पद्धति को आधार बनाकर स्कूल में रोके जाने के उस बैरियर को हटा दिया, शिक्षा के रास्ते में जो डरावनी दीवार की तरह खड़ा था ताकि वे बच्चे ‘पुश आउट’ नहीं हों, स्कूल में टीके रहें और न्यूनतम जानकारी और समझदारी हासिल कर सकें। इसका लाभ भी हुआ कि छीजन दर 42.5% से घटकर 2024 में 12.6% पर आ गया। लेकिन इसे समाप्त किए जाते वक्त इस उपलब्धि को ध्यान में नहीं रखा गया, केवल गुणवत्ता की चर्चा की गई।
आज इस पालिसी की समाप्ति, इसके लागू होने के प्रारंभिक समय से ही, इसके विरुद्ध चलाये जाने वाले अभिजात्य अभियान का परिणाम है। वर्ष 2024 के अंत में परिणाम तक पहुँची इस घटना की तैयारी 2012 में तभी होने लगी थी, जब यह सभी राज्यों में लागू भी नहीं हुआ था। इस पालिसी के कारण बच्चे में पढ़ने और शिक्षकों में पढ़ने के प्रति उदासीनता का जो तर्क दिया जाता रहा है, उसका असर उस समय दिखाई पड़ने की भी संभावना भी नहीं थी। लेकिन तभी, 6 जून, 2012 को केंद्रीय शिक्षा सलाहकार समिति (CABE) की 59वीं बैठक में इस विषय में प्रस्ताव लिया गया। इसका अर्थ है कि शासन में बैठे हुए नीति निर्धारकों का एक तबका शुरुआत से ही इस वृहद् एवं ऊँचे अभिप्राय के विरुद्ध तथ्य-संग्रह और वैचारिक वातावरण निर्मित करने के लिए कटिबद्ध था। 2015 में केब ने सभी राज्यों से इस विषय पर राय आमंत्रित की। जिन 28 राज्यों ने इस विषय पर अपनी राय दी, उनमें से 23 राज्यों ने इस नीति के संशोधन की आवश्यकता जतायी। वर्ष 2016 में राजस्थान के तत्कालीन शिक्षामंत्री प्रो० वसुदेव देवनानी की अध्यक्षता में हुई बैठक में इस नीति में संशोधन के प्रस्ताव पारित किए गया –
- 5वीं कक्षा में परीक्षा हो। राज्य सरकारें यह तय करें कि परीक्षा स्कूल, ब्लॉक, ज़िला या राज्य स्तरीय होगी।
- बच्चे के फेल होने की स्थिति में उसे अतिरिक्त सहायता प्रदान कर उसकी दूसरी परीक्षा ली जाये। उसमें भी अनुत्तीर्ण होने पर उसे उसी क्लास में रोक लिया जाये।
- कक्षा 6 और 7 में स्कूल आधारित परीक्षा हो।
- कक्षा 8 में बाह्य परीक्षा हो। फेल होने पर बच्चे को अतिरिक्त सहायता प्रदान कर दूसरी बार परीक्षा ली जाये। पुन: फेल होने पर रोक लिया जाये। [3]
इसके अलावा भी राष्ट्रीय उपलब्धि सर्वेक्षण (2012), न्यूपा की ‘नई शिक्षा नीति के विकास के लिए समिति की रिपोर्ट (2016), आर्थिक सर्वेक्षण (2016-17), ‘असर’ की हर साल आने वाली रिपोर्ट आदि दर्जनों और बौद्धिक लहरों ने इस पालिसी से टकरा-टकराकर इसे हानिकारक साबित करने की ज़मीन तैयार की, जिसके परिणामस्वरूप 10 जनवरी, 2019 को तत्कालीन राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के द्वारा संशोधित करके पहले लागू करने, न करने को ऐच्छिक बनाया गया और फिर 21 दिसंबर, 2024 को समाप्त कर दिया गया।
शिक्षा अधिकार के इस तीसरे संशोधन में छह बातें हैं –
- नियमित परीक्षा में प्रोन्नति में असफल रहने पर दो मास की अवधि के भीतर पुनः परीक्षा होगी।
- पुनः परीक्षा में भी असफलता के बाद बालक 5वीं या 8वीं कक्षा में रोक दिया जाएगा।
- इस रोकी गई अवधि में शिक्षक बालक के साथ, यदि आवश्यक हो तो, माता-पिता का मार्गदर्शन करेगा तथा अधिगम के अंतरालों की पहचान के पश्चात विशेषज्ञीय इनपुट प्रदान करेगा।
- प्रधानाध्यापक अधिगम के अंतराल की व्यक्तिगत मॉनिटरिंग करेगा।
- परीक्षा समग्र विकास के लिए और सक्षमता-आधारित होंगी, न कि याद करने या प्रक्रियात्मक कौशल पर आधारित।
- प्रारंभिक शिक्षा पूरी किए बग़ैर बालक को स्कूल से नहीं निकाला जायेगा।
इस संशोधन में परीक्षा में असफल बच्चों, और, यदि आवश्यक हो तो, माता-पिता का भी, शिक्षक अतिरिक्त मार्गदर्शन करेंगे तथा प्रारंभिक शिक्षा पूरी किए बग़ैर उन्हें स्कूल से नहीं निकाला जायेगा। इस व्यवस्था के आने वाले वास्तविक परिणाम को समझने वाले ‘सभ्य’ लोग इस पर मुस्कुराकर दूसरी तरफ़ देखने लग जाएँगे। जो शैक्षिक व्यवस्था शिक्षकों और संसाधनों की भारी कमी से कराह रही हो, वह इस अतिरिक्त कार्यभार का व्यावहारिक वहन कितना कर पाएगी, ज़मीन को जानने वाला कोई भी इसे आसानी से समझ सकता है। और, दूसरा यह कि ‘प्रारंभिक शिक्षा पूरी किए बग़ैर स्कूल से निकाला नहीं जाएगा’ भी आँख में धूल झोंकने का वागाडंबर है। असफल होकर स्कूल के परिवेश में तिरस्कृत और अपने से छोटी उम्र के बच्चों के साथ बैठा हुआ वह गौरवहीन बच्चा स्कूल में कैसे रुक पाएगा और रुककर ही क्या करेगा? काग़ज़ी तौर पर स्कूल उसे भले ही न निकाले, लेकिन स्कूल से ख़ुद बाहर निकल जाने की परिस्थिति तैयार हो जाएगी। यह व्यवस्था किए जाते समय इस बात का भी ख़्याल नहीं रखा गया कि शिक्षा अधिकार उम्र-सापेक्ष कक्षा में नामांकन की व्यवस्था करता है। अगर वह बच्चा अगले साल या फिर उसके अगले साल भी अनुत्तीर्ण रह जाये तो क्या किया जायेगा? क्या उसे 18 वर्ष की अवस्था पूरी होने तक उसी कक्षा में जबरन रखा जाएगा? इस तरह की संभावना है और ‘नो डिटेंशन पालिसी’ के पहले ऐसा खूब होता रहा है। ये व्यावहारिक प्रश्न हैं। लेकिन यह संशोधन इस मसले से टकराने की ज़हमत नहीं उठाता है।
शिक्षा के व्यक्तिगत, सामाजिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक, संरचनात्मक, प्रशिक्षणात्मक, कार्यात्मक आदि मसलों से जूझने के बदले यह संशोधन इस बात की उद्घोषणा करता है कि हम चाहते हैं कि “छात्रों के सीखने के परिणाम बेहतर हों।” [4]
यह ‘छात्रों के सीखने के परिणाम’ का क्या मानक है? यह मानक कौन तय करता है? वह कौन-सी रेखा है जिसके इस पार आने वाले को ही सीखा हुआ माना जा सकता है और उस पार रह जाने वाले के बारे में कह सकते हैं कि वह कुछ नहीं सीख सका या कुछ नहीं सीख सकता है? सीखना किसे कहेंगे? सीखने का मानक क्या हो? परीक्षा-प्रणाली के ये जलते हुए प्रश्न हैं, जिनसे शिक्षाशास्त्री अक्सर टकराते रहे हैं। शिक्षाशास्त्रियों के लाख मगजमारी के बावजूद वास्तविकता तो यह है कि छात्र सीख सके हैं या नहीं, इसका मानक कार्यालयों, औद्योगिक और व्यावसायिक संस्थानों की आवश्यकताएँ हैं, जहाँ की ज़रूरतों की पूर्ति के लिए शिक्षा-परीक्षा, विषय, पाठ्यक्रम आदि विकसित किए जाते हैं। यही एकमात्र मानक व्यावहारिक दर्जा प्राप्त कर सका है। इसके केंद्र में वह छात्र है ही नहीं, जिसे सिखाया जा रहा है। सामान्य स्थिति में ऐसा कदापि संभव नहीं है कि एक साल सिखाते रहने के बावजूद कोई बच्चा कुछ नहीं सीख सके, यदि वह सिखाना बच्चा-केंद्रित हो। लेकिन यह संभव है कि इस एक साल में हम जिस ज़रूरत की पूर्ति के लायक़ उसे बना लेना चाहते थे, वह उस स्तर तक नहीं पहुँच सका। वह स्तर भी क्या होगा, यह भी कार्यालय आदि की ज़रूरतों के आधार पर तय होता है। जैसे, 30 अंक अर्जित कर सकने वाला सफल बच्चों की पंक्ति में खड़ा किया जाता है और 29 अंक अर्जित कर पाने वाले को असफल घोषित किया जाता है। जबकि 30 अंक और 29 अंक पाने वाले के स्तर में कोई मौलिक अंतर नहीं पाया जा सकता है। मूल्यांकन की इस पूरी प्रक्रिया में उस बात को परखने की कोई कोशिश नहीं होती है, जो इस दौरान छात्र ने सीखी है; क्योंकि छात्र के द्वारा अर्जित ज्ञान और बौद्धिकता की कोई ज़रूरत उन संस्थानों को नहीं है। इन संस्थानों को उस ज्ञान, बौद्धिकता और अनुशासन की ज़रूरत है, जिस ज़रूरत की पूर्ति के लिए उसने पाठ्यक्रम तैयार किया है। इस तरह मूल्यांकन की यह पूरी पद्धति ही छात्र को बाहर ढकेलने, वंचित करने, नकारा साबित करने और हतोत्साहित करने की पद्धति है। परीक्षा छँटाई की प्रक्रिया है, समावेशन की नहीं। और, इस छँटाई की प्रक्रिया में वंचित और कमजोर समूह ही निष्कासन का शिकार होता है। शासन, सत्ता, अर्थव्यवस्था, वैचारिकता आदि समस्त क्षेत्रों में आच्छादित इस मानसिकता का शिकार अभिवंचित समूह होता है।
आज अधिकतर लोग इस पालिसी को समाप्त करने के पक्ष में खड़े दिखाई देंगे। वे दलील देते मिलेंगे कि इस पालिसी ने शिक्षा की गुणवत्ता की कमर तोड़ दी है। सत्ता के षड्यंत्र ने यह धारणा आमजन के भीतर आरोपित कर दी है। जिसने इस पालिसी की विफलता की अवधारणा को स्थापित किया, उसने कभी इस संवाद को पनपने नहीं दिया कि ‘सतत और व्यापक मूल्यांकन पद्धति’ इसी विफलता का चेकपोस्ट थी, जिसे न तो कभी ठीक ढंग से लागू किया गया और न ही लागू किए जाने की प्रतिबद्धता प्रदर्शित की गई। यह प्रणाली है, जिसमें जानकारी, समझ, विश्लेषण, मूल्यांकन, सृजन, आकलन, मापन, परीक्षण आदि अनेक आयाम शामिल हैं, जो परीक्षा को समग्र अधिगम की ओर ले जाती है और शैक्षिक उत्कृष्टता के संपन्न एक स्वस्थ, समझदार और कुशल मानव संसाधन को तैयार करती है। लेकिन कभी किसी ने इसे ठीक से लागू करने का दायित्व नहीं उठाया, कभी इस संवाद को खड़ा नहीं होने दिया गया कि बच्चे का मूल्यांकन ‘सतत एवं व्यापक मूल्यांकन पद्धति’ के उद्देश्यों के अनुरूप हो। यह अपनी असफलता को दूसरे के सिर मढ़ देने जैसा है। इसी प्रवृत्ति के कारण व्यवस्थागत सारी असफलताओं का ठीकरा बच्चे के माथे पर फोड़ा गया है और उसे स्कूल से बाहर निकालने का रास्ता तैयार किया गया है।
भारत में शिक्षा एक ग़ैरज़िम्मेदाराना, उत्तरदायित्वविहीन कार्य रहा है। शिक्षा अधिकार ने स्कूल तक बच्चों की पहुँच की ज़िम्मेदारी तो थोड़ी-सी निर्धारित की, जिसका फ़ायदा भी हुआ। लेकिन सीखने-सिखाने की गुणवत्ता की जवाबदेही निर्धारित नहीं हुई। बच्चा नहीं सीख सका है, इसके लिए न तो शिक्षक जवाबदेह है, न अधिकारी और न ही जन प्रतिनिधि या समुदाय के प्रतिनिधि। इस तरह बच्चा नहीं सीख सका, इसके लिए ख़ुद बच्चा को ही उत्तरदायी घोषित करके शैक्षिक व्यवस्था और प्रक्रिया की नाकामियों पर हमले के तमाम तीर उसकी ओर मोड़कर उसे कलंकित और हतगौरव जीने की परिस्थितियाँ तैयार की जाती हैं। यह पीड़ित को ही अपराधी घोषित किए जाने जैसा है। इस तरह शक्ति और सत्ता को नियंत्रित करने वाले और दिशा देने वाले तथाकथित ‘सभ्यों’ का शिकार वंचित समाज हो जाता है। वंचित समाज ही इसलिए, क्योंकि इस वंचना के शिकार अधिकतर बच्चे इसी वर्ग के होते हैं। इसलिए भी कि वे न तो सत्ता-संरचना के इस षड्यंत्र को समझ पाते हैं और न ही इसके विरुद्ध आवाज़ उठाने के लिए उनके पास जानकारी, तर्क और मंच होते हैं। इस तरह शिक्षकों की कमी, दक्षता की कमी, प्रशासनिक उदासीनता, सीमित बुनियादी ढाँचा, लचर और अक्षम प्रशिक्षण संस्थान, छात्रों की सामाजिक-पारिवारिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को उन्नत बनाना, स्कूल की भाषा का सवाल, पाठ्यक्रम की जीवनोपयोगिता, पाठ्यवस्तु की व्यावहारिकता, व्यापक मूल्यांकन पद्धति का अभाव, जवाबदेही का प्रश्न, भ्रष्टाचार आदि शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित करनेवाले तमाम मुद्दे नेपथ्य में डाल दिये जाते हैं।
अमेरिका जैसा देश भी, अपने शैक्षिक कर्मियों के द्वारा, बच्चों के सीखने की जवाबदेही उठाता है। वहाँ स्कूल के स्तर की माप छात्रों के सीखने के परिणाम से जुड़ी है। ‘नो चाइल्ड लेफ्ट बिहाइंड एक्ट’ के तहत कक्षा 3 से 8 तक छात्रों के पढ़ने और गणित का वार्षिक मूल्यांकन आवश्यक है। इस मूल्यांकन में न्यूनतम स्कोर प्राप्त नहीं करने पर शिक्षक-प्रधानाध्यापक को हटाना, स्कूल का पुनर्गठन या दूसरे स्कूल में छात्रों के स्थानांतरण आदि के प्रावधान हैं। परंतु भारत में इसके लिए किसी जवाबदेही की कभी ज़रूरत नहीं समझी गई। इसका कारण है कि, संविधान के शब्द चाहे जितने भी समाजवादी और जनवादी दिखाई पड़ते हों, परंतु सत्ता पर सामंती, औद्योगिक, धार्मिक और कुलीन विचारधारा का क़ब्ज़ा रहा है। विभेद को बरकरार रखकर ही विशिष्टता बचायी जा सकती है। इसलिए समाजवादी संविधान की राजनीतिक रचना के इतने वर्षों के बाद भी समाजवाद के सूरज को नहीं लाया जा सका। सामाजिक-धार्मिक लौह-जकड़ में बिलबिलाते इस देश को जब कभी इस जकड़न से मुक्त कराने की थोड़ी-बहुत राजनीतिक कोशिश की भी गई तो जकड़न को बनाये रखकर अपने वर्गीय हित-साधना के लिए वर्गीय शक्तियों ने संगठित होकर उसे सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया। इसलिए, जैसे शहरों के सौंदर्यीकरण के लिए ग़रीबों के जीवन-स्तर को उन्नत बनाने के बदले उन्हें शहर से भगा देने, उजाड़ देने का आसान और बिना खर्च का रास्ता ढूँढ लिया जाता है, उसी प्रकार बच्चों के शैक्षिक स्तर को ऊपर उठाने के लिए लगने वाले धन और श्रम के बदले उन्हें शैक्षिक प्रक्रिया से बाहर करने का रास्ता अख़्तियार कर लिया गया है। यह संवैधानिक लोकतंत्र की अभिजात्यतांत्रिक कार्यप्रणाली है।
ग़ौरतलब है कि वर्ष 2019 में पहली बार संशोधित करके इस पालिसी को रखने या हटाने का निर्णय राज्य सरकारों पर ही छोड़ दिया गया था तो आनन-फ़ानन में दिल्ली, गुजरात, असम, मेघालय आदि 18 राज्यों ने अपने-अपने यहाँ इसे उसी साल ख़त्म कर दिया। ऊपरी नज़र से देखने पर शिक्षा को सुधारने की उनकी प्रतिबद्धता प्रशंसनीय दिखाई पड़ेगी। लेकिन विद्यालयों को उसी शिक्षा अधिकार के अनुरूप बनाने में उनकी शिथिलता का ही परिणाम है कि अधिकार दिये जाने के 12 वर्षों के बाद भी राष्ट्रीय स्तर पर अनुपालन (compliance) महज़ 25.5% ही हो सका है। इस नीति को समाप्त करने में तत्परता तो उस मेघालय ने भी दिखाई, जिसने महज़ 1.3% ही अनुपालन किया। [5] ये वे बातें हैं, जो स्कूल को स्कूल बनाती हैं, पढ़ने-सीखने का परिवेश तैयार करती हैं। लेकिन बेहद ज़रूरी इस बात की ज़रूरत किसी राज्य ने नहीं समझी। उन्होंने ज़रूरत समझी ‘नो डिटेंशन’ को जल्दी-से-जल्दी समाप्त करने की, जिससे कमजोर समूह का कोई बच्चा संभ्रांत समूह के बच्चे के साथ आकर खड़ा न हो जाये। राजनीति के इस प्रपंच को और क़रीब से जानना-समझना हो तो तमिलनाडु का उदाहरण रोचक होगा। तमिलनाडु ने 2019 में पहले इस पालिसी को ख़त्म कर दिया था। लेकिन 2024 के संशोधन पर उसकी प्रतिक्रिया है कि वह इस ‘नो डिटेंशन पालिसी’ को जारी रखेगा। स्पष्ट है कि राजनीतिक चिंता के केंद्र में न तो शैक्षिक हित हैं और न ही बच्चे। राजनीति के शीर्ष पर बैठे लोगों के अपनी-अपनी राजनीतिक रोटियाँ हैं।
आज यह पालिसी समाप्त हो चुकी है। यह उन सारे लोगों के लिए शोक का विषय है, जो सत्ता की राजनीति का पुर्जा बने बिना ‘सबके लिए समान और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा’ की पहुँच के जद्दोजहद में लगे हुए हैं। लेकिन यह उन लोगों के लिए भी सोचने का समय है कि वक्त रहते उन्होंने अधिगम परिणामों की बेहतर प्राप्ति के लिए प्रयास नहीं किए। और, यह समझने का भी वक्त है कि राजसत्ता किस प्रकार अच्छाइयों को भी निंदनीय और बुराइयों को भी स्वीकार्य बना देती है।
संदर्भ-स्रोत :
- मुफ़्त एवं अनिवार्य शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009, धारा 16
- Express view on No Detention Policy: Scraping it will aggravate problem, The Indian Express, 26 December,2024
- PIB, 9 मार्च, 2017
- संजय कुमार, शिक्षा सचिव, केंद्रीय विद्यालय (“Centre scraps ‘no detention’ policy for classes 5, 8, lays stress on remedial measures”, The Hindu, 23 December, 2023)
- लोकसभा में दिनांक 02-08-2021 को केंद्रीय शिक्षामंत्री श्री धर्मेन्द्र प्रधान के द्वारा दिये गये अतारांकित प्रश्न संख्या 2186 के जवाब के आधार पर।
