बताना मना है

उच्च शिक्षा के वर्तमान परिदृश्य के अंतर्सत्य और प्रभाव को उदघाटित करने वाली संभवतः पहली कहानी।

जब सरकार ने यह घोषणा कर ही दी कि उत्तीर्ण हुए छात्रों के हिसाब से महाविद्यालयों को भुगतान किया जायेगा तो मेरे महाविद्यालय में भी मुंड-गणन की लोकतंत्रात्मक घोषणा के सशक्तिकरण के लिए बैठक बुलाई गई। बैठक में सचिव और प्राचार्य ने, जो सचिव के ही चचेरा भाई थे, बताया कि नई परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में हम सबके दो कर्त्तव्य हो गए हैं। पहला यहकि महाविद्यालय में अधिक-से-अधिक छात्रों का नामांकन हो ताकि अधिक-से-अधिक अनुदान प्राप्त हो सके। इसी में हम सबकी भलाई है। और, दूसरा यह कि सारे शिक्षक सप्ताह तीन दिन महाविद्यालय आयेंगे, जिससे लगे की कॉलेज चलता है।

छब्बीस वर्ष पहले प्रथम श्रेणी से एम० ए० करने के बाद बीस हजार रूपये डोनेशन देकर बिना वेतन के बहाल हुआ था, इस उम्मीद पर कि कुछ दिनों में वेतन आदि मिलने लगेगा। राज्य के आखिर सारे स्कूल-कॉलेज इसी तरह समाज के द्वारा स्थापित हुये हैं और बाद में सरकार ने उनका अधिग्रहण भी कर लिया है। कुछ दिनों तक तो कॉलेज में लेक्चरर होने के गुरुर में, चाहे वह अवैतनिक ही क्यों न हो, ठीक-ठाक चला। उस समय आँखों में तरुणाई के सपने थे। परन्तु दो-तीन साल होते-होते साऱी हवा निकल गई। इसी बीच पिताजी की भी मृत्यु हो गई और तब दिन में ही सारे तारे दिखाई पड़ने लगे। मैंने धरना, प्रदर्शन, हड़ताल करते हुए और पत्नी ने व्रत-उपवास में देवी-देवताओं से दुआ माँगते हुए एक रजत जयंती की अवधि को पार कर लिया। इस बीच मेरे सारे बाल उजले हो गए, आँखों पर चश्मा चढ़ गया, पत्नी की झुर्रियाँ लटक गईं, एक बेटी का जमीन बेचकर ब्याह कर लिया और दूसरी का सर पर है। इस घोषणा से लगा कि दूसरी के ब्याह में जमीन न बेचनी पड़ेगी और अपना तो नहीं हुआ, बुढ़ापे में बाल-बच्चों का सुख कुछ दिन देख लूँगा। परन्तु इन्श्योरेंस कम्पनी की तरह शिक्षा के मार्केटिंग की बात गले के नीचे नहीं उतरी। मैंने पूछा – “सर, विद्यार्थी हम लायेंगे कहाँ से ?”

प्रिंसिपल ने बड़े सपाट लहजे में कहा – “कहीं से लाइए। अपने गाँव से, पड़ोस के गाँव से, इलाके-जबार से, सम्बन्धियों के यहाँ से, कोचिंग से, कहीं से भी। नेपाल के भी बहुत सारे विद्यार्थी यहाँ से परीक्षा देते हैं। खोजिएगा तब मिलेगा विद्यार्थी। आखिर इतने छात्र परीक्षा दे ही रहे हैं न ! उनसे मिलिए और उन्हें अपने यहाँ नामांकन के लिए प्रेरित कीजिये। उन्हें यहाँ की अच्छाइयों और सुविधाओं के बारे में बताइए। किसी तरह नामांकन बढ़ाना ही है।”

मैंने कहा – “सर, जिनको पढना होता है, वे किसी के कहने की प्रतीक्षा किये बगैर स्वत: नामांकन ले लेते हैं और जिन्हें आगे नहीं पढना होता है, वे किसी काम-धंधे में लग जाते हैं। वे आयेंगे नहीं। फिर, हमको उन्हें पढ़ने के लिए पैसे मिलेंगे, इसलिए वे अपना खर्च कर पढने क्यों आयेंगे ?”

हमारे सचिव महोदय बस कम्पनी के मालिक थे। कहते हैं, मैट्रिक में फेल होने के बाद वे बस में कंडक्टर हो गए थे और फिर धीरे-धीरे कई बसों के मालिक हो गए। रुद्राक्ष की माला और सोने की मोटी चेन पहने हुए, गर्दन और बाहों में कई गंडे -ताबीज लपेटे हुए और सर पर बड़ा-सा लाल टीका किये हुए जब वे बड़ी-बड़ी लाल-लाल आँखों से हमारी तरफ देखते तो, एक चौथाई शताब्दी से अवैतनिक काम करते रहने के बावजूद, हम सारे लोग सहम जाते थे। यह महाविद्यालय उन्होंने किसी ऑफिस में माली के पद पर काम करनेवाले अपने परम आदरणीय ब्रह्मलीन पिताश्री को अमरत्व प्रदान करने के लिए खोला था। मेरी बात सुनकर उन्होंने आँखें चढ़ाकर कहा – “चौधरीजी, बहस ही करते रहिएगा कि काम भी कीजियेगा ? बूढ़े हो गए, अभी तक अक्किल नहीं हुआ है। अरे, छात्रों को गिनकर ही अनुदान का पैसा मिलेगा न ! इसीलिए नामांकन बढ़ाना है, चाहे जैसे हो। बस।” और उन्होंने बुरा-सा मुँह बनाकर दूसरी तरफ सिर फेर लिया। मैं सकपकाकर बैठ गया।

सुधीर बाबू अंग्रेजी के प्राध्यापक थे। उन्होंने पूछा – सर, हमलोग आकर क्या करेंगे ? छात्र तो आते नहीं है।”

सचिव महोदय ने प्राचार्य की और मुखातिब होकर कहा – “देखते हैं, सब कितना निकम्मा हो गया है। आकर बैठने से भी भागता है।” फिर उसी तरह आँखें चढाकर और बुरा-सा मुँह बनाकर सुधीर बाबू को कहा – “ सुधीरजी घर पर बैठे-बैठे ही माल चाँपना चाहते हैं। पैसा काम करने का न मिलता है ? कि दहेज़ है, जो घर बैठे ससुरजी पहुँचा जायेंगे। समझिये, टीचर आयेंगे तो लोगों को लगेगा कि कॉलेज चल रहा है। इससे एडमिशन होगा।” प्रिंसिपल साहब को कहा – “चलिए, ई सब इसी तरह बहस करते रहेगा।” और, वे उठ गए। दूसरे लोग भी कुछ कहना चाहते थे, परन्तु किसी की हिम्मत नहीं हुई। बैठक ख़त्म हुई।

और, कल से मैं कॉलेज-कैम्पस की लोकोन्मुखता के उन्नयन के लिए सप्ताह में तीन दिन नियमित रूप से जाने लगा। पता नहीं चल सका कि कई पुराने साथी अब क्यों नहीं आ रहे हैं, मगर कई नए शिक्षक नियमित रूप से आने लगे थे। उनसे परिचय हुआ। काफी दिनों तक नियमित रूप से कॉलेज जाने के बाद भी जब कोई छात्र पढने नहीं आया तो आखिरकार मैंने ही, नामांकन कराने आये, एक छात्र को पकड़कर कॉलेज आकर पढने के लिए प्रेरित किया। उस समय तो उसके “हाँ-हाँ” कहने पर विश्वास हुआ कि इस तरह प्रयास करते रहने पर गाड़ी पटरी आ जाएगी और कॉलेज में कक्षाएँ शुरू हो जाएँगी। परन्तु पता नहीं क्या हुआ कि इसके बाद वह छात्र फिर दिखाई ही नहीं पड़ा।

नियमित रूप से कॉलेज जाने के साथ ही मैं उच्च शिक्षा के लोकव्यापीकरण के महा अभियान में भी लगा हुआ था। सबसे पहले मैंने अपने गाँव में नजर दौड़ाई। मन-ही-मन उन लड़के-लड़कियों की लिस्ट तैयार की जो मैट्रिक या इंटर पास हुए थे या उसके बाद पढना छोड़ दिया था। उनमें कई से संपर्क किया। परन्तु किसी ने अभिरुचि नहीं दिखाई। किसी तरह एक लड़की के पिता को नामांकन के लिए राजी भी किया तभी उसकी शादी की बात चल पड़ी और नामांकन की बात रद्द हो गई। दूसरे जिस लड़के को तैयार किया, एक सप्ताह के बाद वह भी कुछ ले-देकर फौज में भरती हो गया। वहाँ भी बात नहीं बनी। लगा कि अपने गाँव में इस तरह नामांकन के लिए घूमना ठीक नहीं।

तब सोचा कि कोचिंग संचालकों से मिलना चाहिए। बगल के कस्बे में इलाके का सबसे बड़ा कोचिंग था – “शारदा कोचिंग संस्थान”.पहुँचा तो आदर के साथ बैठाकर चाय भी पिलाई। फिर आने का कारण पूछा। मैंने अपने आने का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए कहा – “शर्माजी, आपके यहाँ तो बहुत सारे बच्चे इण्टर के कोचिंग के लिए आते हैं। उनमें से कुछ ऐसे भी होंगे, जिन्होंने कहीं नामांकन न लिया हो। आपसे अनुरोध है कि उन अनामांकित बच्चों को हमारे महाविद्यालय में नामांकन के लिए कहा जाए।”

शर्माजी ने अफ़सोस के साथ कहा – “चौधरीजी, कुछ नहीं, अधिकांश बच्चे परीक्षा और प्रथम श्रेणी दिलवाने की हमारी ही गारंटी पर यहाँ नामांकन लेते हैं। इसके लिए कोचिंग में नामांकन के साथ ही उनसे फ़ीस ले ली जाती है। परन्तु वे परीक्षा ‘इंदिरा गाँधी कॉलेज’ से देते हैं।”

मुझे लगा कि यहाँ बात कुछ बन सकती है। मैंने कहा – “तो उन्हें हमारे ही कॉलेज से नामांकन कराकर परीक्षा दिलवाइए।”

शर्माजी ने बात स्पष्ट की – चौधरीजी, ‘इंदिरा गाँधी कॉलेज’ में हमारे कोचिंग के बच्चों से नामांकन एवं परीक्षा शुल्क नहीं लिया जाता है। वह पैसा मुझे बच जाता है। आपका कॉलेज ऐसा करेगा ?”

मैं चुप होकर चला आया, लेकिन उच्च शिक्षा के लोकव्यापीकरण के लिए युक्तियाँ तलाशता और नजरें दौड़ाता रहा। एक दिन बस से उतरते वक्त उसी बस के खलासी लड़के पर नजर पड़ी। वह यात्रियों को जल्दी-जल्दी उतारने-चढाने के साथ ही ‘पटना !-पटना !’ चिल्लाने में बेहद व्यस्त था। उसके व्यस्ततम समय में दखल देकर मैंने पूछा – “कितना पढ़े हो ?”

बस के भाड़े और गंतव्य की जगह पर पढ़ाई के असमय और अनपेक्षित प्रश्न से वह क्षण भर अवाक रह गया। एक बार उसने ऊपर से नीचे तक मेरा मुआयना किया और फिर अपने काम में व्यस्त हो गया। किसी भीड़-भाड़ स्टॉपेज पर बस का रुकना खलासी का सबसे व्यस्ततम समय होता है। कुछ देर मैं उसके उत्तर की प्रतीक्षा करता रहा। वह कभी किसी महिला को उतारने में सहायता करता, कभी किसी चढ़नेवाले को उसका बैग पकडाता, कभी किसी आदमी से पूछने चलाजाता कि उसे कहाँ जाना है और इस बीच-बीच में ‘पटना !-पटना !’ भी चिल्लाता रहता। उसके कार्यों के अंतराल को पहचानकर फिर मैंने पूछा – “बोले नहीं, कितना पढ़े हो ?”

इस बार वह अपने पान-मसाला वाले गंदे दाँतों को निकालकर थोडा मुस्कुराया। मुझे लगाकि अब वह कुछ कहेगा। लेकिन तभी एक पैसेंजर का सामान पीछे डिक्की में रखना था। वह उसे उठाकर पीछे चला गया। मैं भी उसके पीछे-पीछे गया। डिक्की को बंद करते हुए उसने कहा – “मैट्रिक। क्या बात है ?”

उत्साहित होकर मैंने कहा कि इंटर कर लो। तभी बस का हॉर्न बजा और वह यात्रियों को आगे की ओर सरकने के लिए कहते हुए दरवाजे से लटक गया।

बस के खुलते-खुलते मैंने उसका नाम और गाँव पूछ लिया था। सो कल सुबह-सुबह उसके यहाँ पहुँच गया। उसे और उसके पिता को बुलाकर अपना परिचय दिया और शिक्षा के महत्व के बारे में बताया। कई ऐतिहासिक उदाहरण भी दिए कि कैसे शिक्षा ग्रहण करके कई सामान्य आदमी भी अमर हो गए हैं। अनमने भाव से सबकुछ सुनने के बाद उसने बिना किसी लाग-लपेट के कहा – “सर, पढने-लिखने में हमारा मन नहीं लगता है। जैसे-तैसे मैट्रिक पास कर गया। आगे पढ़कर क्या करूँगा ? हमारे पेशे में डिग्री और सर्टिफिकेट का क्या काम है ? फुर्सत भी पढने की कहाँ है ? सुबह से रात तक बस पर ही रहना होता है। यह पढना-लिखना हमसे न होगा।” उसे बस पर जाने में देर हो रही थी। वह चला गया।

दो दिनों के बाद मैं फिर उसी समय उसके यहाँ पहुँचा। मुझे देखकर वह असमंजस में इधर-उधर देखने लगा। मैंने उसे व्यावहारिक बातें समझायीं – “देखो, तुम्हें कुछ करना नहीं है। जो करते हो, करते रहो। क्लास भी नहीं करना है। परीक्षा के समय थोड़ा-बहुत किताब देख लेना, बस।”

खैर, किसी तरह समझाने पर वह राजी हुआ और सर्टिफिकेट और नामांकन-शुल्क दिया। विश्व विजयी की तरह महाविद्यालय में पहुँचकर उसका नामांकन कराया और प्रशंसा पायी।

होते-होते दो साल गुजर गए। इस बीच न मैंने उससे संपर्क किया और न ही उसने भेंट करने की कोई जरुरत समझी। परीक्षा के लिए फॉर्म भरने का समय आ गया। मैं फिर उसके यहाँ उसे सूचित करने गया। परीक्षा की बात सुनकर वह फिर हिचकिचाने लगा। किसी तरह समझाकरकि उसे परीक्षा में कोई दिक्कत नहीं होगी और वह पास कर जायेगा, मैंने उससे फॉर्म भरवाया। मैंने उसे गेस पेपर खरीदकर फुर्सत के समय उलटते-पुलटते रहने का सुझाव दिया और बाजार जकर उसे गेस पेपर खरीदवा दिया।

परीक्षा का समय भी आ गया। एडमिट कार्ड भी मैंने ही पहुँचाया। उस समय भी उसका वही रोना कि वह परीक्षा में क्या लिखेगा। उसने जो गेस पेपर ख़रीदा था, उसे खोलकर देखा भी नहीं था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि बिना पढ़े वह लिखेगा क्या और फेल होना जब निश्चित है तो वह परीक्षा दे ही क्यों। मैंने उसे ठीक से समझाया – “देखो, इसमें घबराने की कोई बात नहीं है। नाम, रोल नंबर आदि ठीक से लिख देना। गेस पेपर साथ लेते जाना। जो प्रश्न गेस पेपर में मिल जाये, उसे लिख देना। यदि गेस पेपर में वह प्रश्न नहीं मिले तो भी कॉपी में प्रश्न-संख्या लिखकर गेस पेपर से किसी भी प्रश्न का उत्तर उतार देना। यदि बाहर का कोई आ गया और गेस पेपर छिन जाये तो ऊपर लिखे गए उत्तरों को ही प्रश्न-संख्या बदलकर फिर से लिख देना। यदि यह सब भी कुछ कर सकने का मौका नहीं मिले तो प्रश्न-संख्या लिखकर सारे प्रश्नों को ही दस बार लिख देना। किसी तरह सारे प्रश्न टच किये गये होने चाहिए और कॉपी भरी हुई होनी चाहिए।”

सच्चे शिष्य की तरह सर हिलाकर उसने अपने महान गुरु के अनुदेशों का पालन किया और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया। अंकपत्र देते समय मैंने उसके कान में फुसफुसाकर कहा – “शंकर, यह रहस्य किसी को बताना मत। एक बार फिर सच्चे शिष्य की तरह सर हिलाकर उसने हामी भरी।

कुछ दिन और गुजर गए। एक दिन हाथ में मिठाई का डब्बा लिए वह मेरे घर आया। साफ़-सुथरे कपड़े में देखकर मैं उसे सहसा पहचान नहीं पाया। उसने पैर छूकर प्रणाम किया और मिठाई का डब्बा दिया। मैंने पूछा – “क्या शंकर, कैसे हो ? शादी कर लिए हो क्या ?”

“नहीं सर, शिक्षक में मेरी बहाली हो गई है। सब आप ही की कृपा से हुआ है।” उसने बताया।

अपनी कृपा के प्रभाव के ऐसे परिणाम को जानकर अच्छा नहीं लगा। कुछ देर इधर-उधर की बातें मैं अन्यमनस्क ढंग से करता रहा। शाम का धुंधलका छाने लगा था। गाँव की सड़कों और दरवाजों पर अँधेरा पसरता जा रहा था। सामर्थ्यवान लोग अपने-अपने दरवाजे पर लालटेनें टाँगने लगे थे। उसे आये हुए काफी देर हो गयी थी। वह फिर मिलने की बात कहकर चलने को हुआ। चलते समय नजदीक में आकर उसने कहा – “सर, यह रहस्य किसी को बताइयेगा नहीं।”

Dr. Anil Kumar Roy
Dr. Anil Kumar Roy

कार्यकर्ता और लेखक
डॉ. अनिल कुमार रॉय सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों के लिए अथक संघर्षरत हैं। उनके लेखन में हाशिए पर पड़े लोगों के संघर्ष और एक न्यायसंगत समाज की आकांक्षा की गहरी प्रतिबद्धता परिलक्षित होती है।

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