भूत या चेतना की प्राथमिकता का सवाल

भौतिक या भौतिक उत्पादन संबंधों में परिवर्तन जितना प्रत्यक्ष और द्रुत होता है, वहीं वैचारिक परिवर्तन अलक्ष्य और मंद होता है और उसे परिवर्तित होने में, कभी-कभी, सदियाँ लग जाती हैं। जैसे, भारत में जाति-विभाजन सामंती काल की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता था, लेकिन औद्योगिक और व्यावसायिक आर्थिक संबंधों के पूंजीवादी काल में आज भी वह जीवित ही है।

संसार में अब तक प्रचलित दर्शन की समस्त धाराओं को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है – भौतिकवादी और भाववादी। इन दोनों की भिन्नता भूत और चेतना की प्राथमिकता के प्रश्न के साथ जुड़ा हुआ है। भौतिकवादी दर्शन जहाँ भूत को प्राथमिक मानकर चेतना को भूत की व्युत्पत्ति मानता है, वहीं भाववादी दर्शन में चेतना को ही प्राथमिक मानकर भौतिक परिस्थितियों की उसकी व्युत्पत्ति के रूप में व्याख्या की जाती है। इसलिए भूत और चेतना की प्राथमिकता के प्रश्न को सुलझा लेना आवश्यक है। चूँकि इसकी गुत्थी ‘भूत’ और ‘चेतना’ है, इसलिए सबसे पहले ‘भूत’ और ‘चेतना’ का अभिप्राय क्या है, इसको समझ लेते हैं।

शाब्दिक दृष्टि से ‘भूत’ का सीधा अर्थ पदार्थ है। लेकिन दार्शनिक दृष्टि से ‘भूत’ का अर्थ केवल पदार्थ नहीं है। बल्कि हर वह चीज, जो हमारे इर्द-गिर्द मौजूद है, वह हर चीज, जो वस्तुगत अस्तित्व रखती है – अर्थात संपूर्ण विराट बाह्य भौतिक संसार भूत ही है। इस तरह दृश्यमान जगत की सारी वस्तुएँ ‘भूत’ के अंतर्गत हैं और इनकी होने वाली सारी क्रियाएँ भौतिक क्रियाएँ हैं। ‘भूत’ की प्राथमिकता को मानने वाले दर्शन की श्रेणियों को ‘भौतिकवादी दर्शन’ कहते हैं।

‘चेतना’ का अर्थ विचार, संवेदना, धारणा, इच्छा-शक्ति आदि है। यह मनुष्य में ऐसी महत्वपूर्ण क्षमता है, जिसकी सहायता से मनुष्य अपने इर्द-गिर्द की दुनिया की अनुभूति प्राप्त करता है, विश्व की घटनाओं को देखकर सचेत समझदारी प्राप्त करता है और हस्तक्षेप करने की भी कोशिश करता है। ‘चेतना’ की प्राथमिकता को मानने वाले दर्शन की श्रेणियों को ‘भाववादी दर्शन’ कहा जाता है। अब इनकी व्याप्ति, प्राथमिकता और दोनों में संबंध की बात करते हैं।

तमाम प्राचीन धार्मिक चिंतन की धाराएँ और उनसे उपजी हुई दर्शन की पद्धतियाँ, चाहे वे जिस किसी भी संस्कृति की हों, भाववादी दर्शन की श्रेणी में खड़ी हैं। गीता में कृष्ण ने जगत और ब्रह्म की व्याख्या करते हुए कहा है कि चेतना उच्चतर प्रकृति है, यह प्राण-जीव रूप है और इसी के द्वारा संसार धारण किया जाता है – ‘जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत’ (गीता, अध्याय 7, श्लोक 5)। इसीलिए कृष्ण स्वयं को अर्थात ब्रह्म को संसार का उत्पत्तिकर्ता, मूल और संहारक बताते हैं – ‘अहं कृत्सस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तया।‘ (गीता, अध्याय 7, श्लोक 6)। भारतीय दर्शन ही नहीं, यूरोपीय दर्शन में भी चेतना या भाव से जगत कि उत्पत्ति का वर्णन मिलता है। बाइबिल में कहा गया है कि परमात्मा ने कहा प्रकाश हो और प्रकाश हो गया – ‘Let there be light and there was light.’ (Genesis 1.3)। धार्मिक और प्राचीन दर्शनिकों के द्वारा परोसी गई दर्शन की दृष्टि लंबे समय तक दर्शन की दृष्टि बनी रही और आज भी धार्मिकों और अतार्किकों के बीच मान्य है। वे समाज को ‘चित’ (परमात्मा, ईश्वर) की उपज और लोगों के धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, कानूनी आदि क्रियाकलापों को उसी ‘चित’ का परिणाम मानते हैं। दर्शन की यह पद्धति इतनी प्रभावशाली रही कि अनेक भौतिकवादी दार्शनिक भी, समाज की विवेचना के प्रश्न पर, भाववादी दृष्टिकोण अपना लेते रहे हैं।

लेकिन जिस प्रकार, शासन-पद्धति के रूप में, राजतंत्र के समानान्तर गणतंत्रात्मक शासन की पद्धति भी प्रचलित थी, उसी प्रकार, प्राचीन काल से ही, भाववादी दर्शन के समानान्तर, भौतिकवादी दर्शन की धारा भी चलन में थी। भारत में चार्वाक दर्शन के स्रोत उतने ही पुराने कहे जाते हैं, जितने कि स्वयं वेदों के। बौद्ध दर्शन की भौतिकीय दृष्टि का पर्यवसान भले ही निर्वाण की परिकल्पना में होता है, परंतु चार्वाक ने ‘न स्वर्गों नापवर्गों वा नैवात्मा पारलौकिक:’ कहकर स्वर्ग, निर्वाण, परलोक आदि को पूर्णत: नकार कर पंच महाभूतों – पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि – से ही चेतना की उत्पत्ति स्वीकार की थी। प्रत्यक्षवादी, अनीश्वरवादी, देहात्मवादी और वेदविरुद्ध दर्शन-परंपरा के रूप में चर्चित लोकायत (चार्वाक) दर्शन की परंपरा का विस्तार सर्वदर्शनसंग्रह, सर्वदर्शनशिरोमणि, पदमपुराण, वृहस्पतिसूत्र, नैषध आदि अनेक ग्रन्थों तक मिलता है। परंतु पंच महाभूतों से चेतना की उत्पत्ति मानकर भी चार्वाक उस कारण-कार्य संबंध की व्याख्या नहीं कर पाते हैं, जो व्याख्या उसे वैज्ञानिक बना पाती। ऐसा प्रतीत होता है कि ईश्वरवादी दर्शन की प्रतिक्रिया में यह अनीश्वरवादी लोकायत (चार्वाक) दर्शन अनुभव के आधार पर विकसित मान्यता के रूप में प्रचलित रही। भारत की ही तरह पाश्चात्य दर्शन-परंपरा में भी हीगेल से लेकर लुडविग फायरबाख तक भौतिकवादी दर्शनिकों की पुष्ट परंपरा रही है। लेकिन जैसा कि एंगेल्स ने ड्यूहरिंग मत खंडन में कहा “प्राचीन तथा मार्क्स के पूर्ववर्ती दर्शनिकों ने पदार्थ को चरम तत्व के रूप में स्वीकार कर लिया था, जो कि उचित नहीं है। ऐसा इसलिए हुआ कि उनका सिद्धान्त यांत्रिक था। वे किसी भी तत्व कि ऐतिहासिक या द्वन्द्वात्मक व्याख्या नहीं कर सके।“ (पृष्ठ 13)। इसी का परिणाम है कि फायरबाख जैसे दार्शनिक हीगेल के दर्शन के प्रत्यक्षवाद के खंडन के साथ-साथ उसमें निहित बुद्धिसंगत द्वन्द्ववाद को भी ठुकरा देते हैं।

ऊपर हमने भाववादी और भौतिकवादी दर्शन की समृद्ध ऐतिहासिक परंपरा और पूर्व के भौतिकवादी दर्शन से द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दर्शन के अंतर को देखा। अब विभिन्न कसौटियों पर दोनों दर्शन-धाराओं की प्राथमिकता को परखने की कोशिश करते हैं। व्यवहार की ऊपरी सतह पर भाव या कल्पना या मनोवृत्ति की प्राथमिकता दिखाई पड़ती है। जैसे, कोई इंजीनियर जब कोई ग्राफ या पुल या भवन बनाने चलता है तो पहले उसके मन में उसकी एक रूपरेखा बनती है और तब वह उसे वास्तविक वस्तुगत आकार देता है। कोई कलाकार भी इसी प्रकार अपनी किसी कल्पना को चित्र या मूर्ति की भंगिमाओं में आकार देता है। एक दूकानदार भी दूकान खोलने के पहले वैचारिक या भावात्मक परिकल्पना करता है या उस तरह के व्यवसाय की उसकी मनोवृत्ति होती है और तब वह उसे व्यावहारिक दूकान में परिणत करता है। अर्थात सामान्य दृष्टि से यही दिखायी देता है कि वैचारिक या भावात्मक अवधारणाएँ आधार होती हैं और वे ही वस्तुगत रूप ग्रहण करती हैं। इसी आभासी सत्य के कारण अधिकतर सामान्य लोग, किसी-न-किसी प्रकार से, भाववादी होते हैं और इसी कारण भाववादी दर्शन का प्रचलन भी व्यापक हुआ।

लेकिन क्या वास्तव में ऐसा ही होता है? सूक्ष्मता से देखने पर पता चलता है कि पुल-निर्माण या मूर्ति-निर्माण की भावात्मक कल्पना का आधार कोई-न-कोई भौतिक रूप अवश्य होता है। कल्पनाएँ आकाश में उत्पन्न नहीं होती हैं। उस इंजीनियर ने, जिसने किसी अभूतपूर्व पुल या भवन की कल्पना की, भौतिक पुलों या भवनों को देखकर ही या कई अलग-अलग प्रकार के पुलों या भवनों के सम्मिश्रण के आधार पर अपनी कल्पना को आकार दिया होगा। यही कलाकार या दूकानदार के साथ भी होता है। अर्थात किसी वास्तविक निर्माण के पहले कल्पना होती है जरूर। परंतु उस कल्पना के पीछे भी वास्तविकता होती है, कोई ठोस वस्तुगत आधार होता है। इस तरह वस्तुगत ठोस आधार ही मूल में होता है, जिससे कल्पना उद्भूत होती है।

केवल तर्क के आधार पर ही नहीं, राहुल सांकृत्यायन ने प्रमाण एवं साक्ष्य के आधार पर भी ‘भूत’ अर्थात भौतिक स्थितियों का आदि-अस्तित्व, प्राथमिकता प्रतिपादित की है। उनके अनुसार पृथ्वी की आयु 20,000 लाख वर्ष होगी, जबकि आधुनिक विचारशील मानव का पता 40-50 हजार वर्ष से पूर्व एकदम नहीं चलता। (वैज्ञानिक भौतिकवाद, पृष्ठ 155)। अर्थात विकासक्रम में भी भूत की प्राथमिकता प्रमाणित होती है।

केवल तर्क और साक्ष्य के आधार पर ही नहीं, विज्ञान के आधार पर भी ‘भूत’ की प्राथमिकता प्रमाणित होती है। इस ब्रह्मांड का आधार ही भौतिक है। उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत तक जिन अणुओं को ब्रह्मांड की आधारभूत ईंटें कहा जा रहा था, उन अणुओं की प्रकृति ही भौतिक है। बाद में चलकर इलेक्ट्रॉन, प्रोटोन आदि जिन तीस से अधिक ‘प्राथमिक’ कणों को खोजा गया, उनका स्वरूप भी भौतिक ही है। इन ‘प्राथमिक’ कणों का अस्तित्व और बाद में उनसे विकसित हुई प्रकृति उस समय भी मौजूद थी, जब चेतना की उत्पत्ति नहीं हुई थी। यह मानव-शरीर, जिसके भीतर मस्तिष्क है और जहाँ चेतना उत्पन्न होती है, उस मस्तिष्क का स्वरूप ही भौतिक है। चेतना का अस्तित्व मस्तिष्क के भौतिक अस्तित्व पर अवलंबित है, न कि चेतना के कारण मस्तिष्क का निर्माण होता है। मनुष्य के संकल्प, उसकी अनुभूतियाँ, आकांक्षाएँ, मस्तिष्क, चिंतन, विचार आदि मनुष्य के अस्तित्व से अलग नहीं रह सकते। इस तरह अस्तित्व प्राथमिक है और चेतना व्युत्पादित है।

इस तरह तर्क, साक्ष्य और विज्ञान के आधार पर ‘भूत’ (पदार्थ) की प्राथमिकता प्रमाणित होती है। इसी वास्तविकता को मार्क्स ने अपने दर्शन का आधार बनाया, जो पहले की समस्त दर्शन-दृष्टियों से बिलकुल भिन्न थी। जिस प्रकार मार्क्स ने हीगेल के सिर के बल खड़े द्वन्द्ववाद को पैरों के बल सीधा खड़ा किया था, उसी प्रकार उसने सिर के बल उल्टा लटके दर्शन की समस्त पुरानी पद्धतियों को सीधा करके पैरों के बल खड़ा किया था। प्लेखानोव के शब्दों में – “भौतिकवाद भाववाद (आदर्शवाद) का ठीक उल्टा है। भाववाद प्रकृति के तमाम घटनाक्रमों की भूत (मैटर) के तमाम गुणों की, व्याख्या आत्मा की किन्हीं विशेषताओं के माध्यम से करने का प्रयास करता है। भौतिकवाद ठीक उल्टे ढंग से काम करता है। वह मानसिक घटनाक्रमों की व्याख्या भूत की इन अथवा उन किन्हीं विशेषताओं के माध्यम से, मानव अथवा अधिक सामान्य शब्दों में कहा जाए तो, पशु शरीर के इस अथवा उस गठन के माध्यम से करने का प्रयास करता है।“ (इतिहास के प्रति एकसत्तावादी दृष्टिकोण का विकास, पृष्ठ 10)।

मनुष्य, समाज और इतिहास की किसी भी व्याख्या में इस तथ्य की अवहेलना नहीं की जा सकती है कि विचार और चिंतन के विकास के पूर्व भौतिक आवश्यकताओं कि पूर्ति आवश्यक रही है। भौतिक आवश्यकताओं की प्राथमिक शर्त को मार्क्स ने बड़ी स्पष्टता के साथ इस प्रकार कहा है – “परंतु जीवन का संबंध सबसे पहले भोजन तथा जल, रिहायश, वस्त्र तथा कई अन्य चीजों से होता है। इस प्रकार पहला ऐतिहासिक कार्य है इस आवश्यकताओं की तुष्टि के लिए साधनों का उत्पादन, स्वयं भौतिक जीवन का उत्पादन। और यह निस्संदेह एक ऐसा ऐतिहासिक कार्य है, पूरे इतिहास की ऐसी मूल शर्त है, जिसकी हजारों वर्ष पहले की तरह आज भी हर रोज, हर घंटे पूर्ति होनी चाहिए ताकि लोग जीवित रह सकें।“ (संकलित रचनाएँ, मार्क्स-एंगेल्स, खंड 1, भाग 1, पृष्ठ 33)।

भूत की प्राथमिकता, भौतिक परिस्थितियों और व्यवहारों के महत्व के प्रतिपादन का अभिप्राय चेतना और चिंतन को विस्थापित या अस्वीकृत करना नहीं है। पुराने कई भौतिकवादी चिंतक इसी प्रकार करते रहे हैं। इस स्थापना का अभिप्राय केवल भौतिक परिस्थितियों के आधार पर चेतना के निर्माण और परिवर्तन को प्रमाणित करना है। “अब इतिहास की एक भौतिकवादी व्याख्या की गई, और ऐसी पद्धति का आविष्कार किया गया, जो मनुष्य की ‘सत्ता’ की व्याख्या उसकी ‘चेतना’ के आधार पर नहीं करती थी, जैसा कि अब तक होता आया था, बल्कि जो मनुष्य की ‘चेतना’ की व्याख्या उसकी ‘सत्ता’ के आधार पर करती थी।“ (ड्यूहरिंग मत-खंडन, एंगेल्स, पृष्ठ 48)। मानव-सभ्यता के हजारों साल के विकास में साहित्य, कला, चिंतन, राजनीति, धर्म, कानून, सामाजिक मान्यता आदि में जो बदलाव देखने को मिलते हैं, उनके पीछे वास्तविक भौतिक परिस्थितियों का बदलाव आधारभूत कारण के रूप में रहा है। अर्थात चेतना या भावगत कारणों से वस्तुजगत निर्मित नहीं होता है, बल्कि भौतिक कारणों से चेतना निर्मित और विकसित होती है। जैसे, औद्योगिक उत्पादन का पूंजीवादी संबंध पहले विकसित होता है और फिर इस नवीन आर्थिक संबंधों की व्यवस्था के लिए लोकतान्त्रिक चेतना का आगमन होता है। इसी तरह सभी क्षेत्रों में होता है।

परंतु इसका यह भी अभिप्राय नहीं है कि वैचारिक परिवर्तन भौतिक परिवर्तन का पृष्ठानुगामी होता है। वस्तुत: भौतिक या भौतिक उत्पादन संबंधों में परिवर्तन जितना प्रत्यक्ष और द्रुत होता है, वहीं वैचारिक परिवर्तन अलक्ष्य और मंद होता है और उसे परिवर्तित होने में, कभी-कभी, सदियाँ लग जाती हैं। जैसे, भारत में जाति-विभाजन सामंती काल की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता था, लेकिन औद्योगिक और व्यावसायिक आर्थिक संबंधों के पूंजीवादी काल में आज भी वह जीवित ही है।

(अगला आलेख : सामाजिक विकास के आधार-रूप में भौतिक उत्पादन तथा उत्पादक शक्तियों और उत्पादन संबंध में अन्यान्य क्रिया)

Dr. Anil Kumar Roy
Dr. Anil Kumar Roy

कार्यकर्ता और लेखक
डॉ. अनिल कुमार रॉय सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों के लिए अथक संघर्षरत हैं। उनके लेखन में हाशिए पर पड़े लोगों के संघर्ष और एक न्यायसंगत समाज की आकांक्षा की गहरी प्रतिबद्धता परिलक्षित होती है।

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