अब 18वें लोकसभा चुनाव का एक चरण बाक़ी रह गया है, अर्थात् छह चरणों का चुनाव हो चुका है। लेकिन चुनावी विश्लेषकों के लिए यह चुनाव एक कठिन परिस्थितियों वाला रहा है, क्योंकि यह चुनाव न केवल सबसे लम्बा खींचा गया, बल्कि इस चुनाव में पैसों को पानी की तरह बहाया भी गया है। इसके बावजूद वोटिंग टर्न आउट का गिरना न केवल चुनाव आयोग के लिए परेशानी का सबब रहा है, बल्कि विश्लेषकों के लिए भी उलझन भरा रहा कि इस गिरते हुए मतदान प्रतिशत की व्याख्या कैसे कैसे की जाए। ऐसे भी जब से नरेन्द्र मोदी सत्ता में आए हैं, उन्होंने जन विमर्श को लगभग ख़त्म कर दिया है। एक तरफ जहाँ जन विमर्श के अधिकांश प्लेटफार्म पर कॉर्पोरेट जगत का क़ब्ज़ा हो गया है, लेकिन वहीं दूसरी तरफ इसके समानांतर एक दूसरे लोकप्रिय जन विमर्श के केंद्र भी स्थापित हुए, जिनका झुकाव जनवाद की ओर रहा है। लेकिन, इस केंद्र की सबसे बड़ी समस्या रही है कि इनके पास सीमित संसाधन हैं। चूँकि यह चुनाव बेहद लम्बा खिंचा गया है, अतः इन सीमित संसाधनों के बल पर लोकसभा चुनाव की वस्तुनिष्ठ चुनावी समीक्षा प्रस्तुत करना एक कठिन कार्य बन कर रह गया है। इस चुनाव में धन-बल का इतना प्रयोग किया गया कि जन विमर्श के तीसरे केंद्र यानि छोटे-छोटे यूट्यूब चैनल वालों को पैसा देकर लोकमत को प्रभावित करने का भरपूर प्रयास किया गया। इन तमाम कामियों के बावजूद मीडिया प्लेटफ़ॉर्म पर एक सामान्य धारणा यह जरूर बन गई है कि यह चुनाव पूर्वानुमान से भिन्न जरूर है। चुनाव से पहले भाजपा एवं उसके गठबंधन को लेकर हवा बनाई गयी कि यह चुनाव में राष्ट्रवाद एवं नरेन्द्र मोदी एक ऐसा चेहरा है, जिसके आगे इण्डिया गठबंधन टिक नहीं पाएगा। इस बनाए गए माहौल के कारण भाजपा ने चार सौ पार का नारा लगाना शुरू कर दिया एवं जल्दबाजी में या तो पुराने चेहरों को ना केवल टिकट दिया गया, बल्कि एक सौ से ज्यादा ऐसे प्रत्याशी खड़े किए, जो दूसरे दल से आए हुए थे। बस यहीं आकर यह चुनाव, जिसे एक तरफ़ा बताया जा रहा था, क्लोज फाइट वाला बन गया, क्योंकि भाजपा की इस रणनीति ने चुनाव में स्थानीय मुद्दे को हावी होने का मौका दे दिया। अतः अधिकांश विश्लेषकों का मानना है कि यह चुनाव अब भाजपा के लिए एक मुश्किल चुनाव जरूर बन गया है, क्योंकि कुछ ऐसे मुद्दे जैसे महँगाई, बेरोजगारी एवं भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे, जो पहले से ही ग्राउंड पर मज़बूत थे, अब वे केंद्रीय मुद्दे बन के उभर गए। इन सब के बावजूद अभी भी मीडिया भाजपा के पक्ष में माहौल बनाने में लगा हुआ है। वह भाजपा के वोटरों को यह मैसेज देने का लगातार प्रयास कर रहा है कि हर हाल में भाजपा पूर्ण बहुमत हासिल कर लेगा। इसके लिए वो चार वेरिएबल को आधार बनाते हैँ, जैसे :-
1. 2019 के लोकसभा चुनाव में गठबंधन को प्राप्त हुए कुल मत, मत प्रतिशत एवं महा गठबंधन को प्राप्त हुए मत प्रतिशत के अंतर को,
2. नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता को,
3. लाभार्थी वोट बैंक को और
4. महिला वोट बैंक को।
इन्हीं चार वेरिएबल को आधार मानते हुए चुनावी विश्लेषक यह चुनाव भाजपा के पक्ष में जाता हुआ बताने से परहेज नहीं करते हैँ। अतः यह आवश्यक हो गया है कि इन चार वेरिएबल पर प्रकाश डालते हुए यह मूल्यांकन किया जाय कि इस चुनाव का विश्लेषण कितना सत्य और कितना प्रचार है।
सबसे पहले मत प्रतिशत के आधार का विश्लेषण। अगर देखा जाय तो यह कहने से कोई गुरेज नहीं कि यह चुनाव न तो 2019 की तर्ज पर हो रहा है और ना ही 2014 की तर्ज़ पर। बल्कि इस चुनाव के विश्लेषण के लिए एक अलग नजरिए की जरुरत है। ऐसा इसलिए कि 2014 में जहाँ महागठबंधन के प्रति लोगों में भ्रष्टाचार एवं सुरक्षा को लेकर जबरदस्त आक्रोश था, तो वहीं 2019 में पुलवामा हमले के बाद बालाकोट के सर्जिकल स्ट्राइक से राष्ट्रवादी रुझान अपने चरम पर पहुँच गया था और उससे भाजपा ने अपने समर्थकों का एक ऐसा वर्ग तैयार कर लिया, जो किसी भी कीमत पर नरेन्द्र मोदी को एक और मौका देने के लिए कटिबद्ध था। यह अपील इतनी जबरदस्त थी कि इसने जाति एवं वर्गों की सारी सीमाओं को तोड़ दिया। इसके कारण भाजपा के मत प्रतिशत में आशातीत उछाल देखने को मिला। उदाहरण के लिए साध्वी प्रज्ञा जैसी प्रत्याशी दिग्विजय सिंह को तीन लाख के भारी अंतर से हरा देती है। 2019 के लोकसभा चुनाव में, जब मैं बेगूसराय संसदीय क्षेत्र में घूम रहा था, तो वहाँ पर यादव बाहुल्य इलाके में लोग अपने मोबाइल पर मोदी जी का भाषण जमघट लगाकर सुन रहे थे। लेकिन वर्तमान चुनाव में ग्राउंड पर ऐसा कुछ देखने को नहीं मिला। ऐसे भी सीएसडीएस के प्री पोल सर्वे 2024 दिखाता है कि गठबंधन एवं महागठबंधन के बीच 12% मतों का अंतर हो सकता है। लेकिन इसी सर्वे में यह भी दिखाया गया है कि गठबंधन के मत प्रतिशत में कोई उछाल नहीं होगा यानि 46% के साथ वह स्थिर रहेगा। जबकि इंडिया गठबंधन के मत प्रतिशत में यह 07% की बढ़ोतरी दिखा रहा है। वहीं दूसरी ओर 12 प्रतिशत वोटर यह तय नहीं कर पा रहे थे कि वो वोट किसे करने जा रहे हैं। चूँकि यह सर्वे उस समय किया गया जब चुनावी विश्लेषक इस लोकसभा चुनाव को एक तरफ़ा बता रहे थे, जो अब पूरी तरीक़े से बदल चुका है। तभी तो पाँच चरणों के चुनाव के बाद चुनावी विश्लेषक एवं सीएसडीएस के सह -निर्देशक संजय कुमार एक टीवी डिबेट में यह कहते हैँ कि “यह चुनाव अब भाजपा 400 या 300 के लिए नहीं लड़ रहा है, बल्कि अब वह 272 के जादुई आँकड़े को प्राप्त करने के लिए लड़ रहा है।”
दूसरा, मोदी की लोकप्रियता। अगर मोदी की लोकप्रियता की बात की जाय तो यह एक ऐसा फेक्टर है, जहाँ भाजपा गठबंधन मजबूत जरूर दिखता है। मोदी की लोकप्रियता पर कितना भरोसा है,इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भाजपा एवं इसके सहयोगी दल के प्रत्याशी अपने क्षेत्रों में अपने नाम पर नहीं, बल्कि मोदी के नाम पर वोट माँगते दिखते हैं। लेकिन सवाल उठता है कि क्या मोदी की लोकप्रियता इतनी ज्यादा है कि विरोध के तमाम फैक्टर के बावजूद वह अपने मत प्रतिशत में इजाफा कर सके? वस्तुत: मोदी की लोकप्रियता की अपनी एक सीमा भी है और विपरीत प्रभाव भी है। भाजपा के कार्यकर्ताओं में यह विश्वास भरा गया है कि मोदी हर हाल में अपने दम पर यह चुनाव जीतने में सफल हो जाएँगे। अतः उनके अंदर एक प्रकार की सुस्ती छाई हुई है। बेगूसराय में तो कई ऐसे भाजपा के कार्यकर्त्ता थे, जो केवल सोशल मीडिया पर मोदी-मोदी के नारे लगाते हुए दिखे, लेकिन ग्राउंड पर उनकी उपस्थिति नगण्य देखने को मिली। मोदी की लोकप्रियता का भ्रम कार्यकर्ताओं के अलावे प्रत्याशियों के अंदर भी पाया गया है। इसी के कारण केंद्रीय स्तर पर तो पैसा खूब खर्च किया गया, लेकिन प्रत्याशी के स्तर पर इसको लेकर कंजूसी ही देखने को मिली है। इसका असर सीधे-सीधे भाजपा के बूथ प्रबंधन पर पड़ा। उत्तराखंड में ही कई ऐसे भाजपा समर्थक दिखे, जो इस बात की शिकायत कर रहे थे कि उन्हें उनकी गाडी के पेट्रोल का खर्चा भी नहीं दिया गया। बिहार में तो कई जगह पर भाजपा के पोलिंग एजेंट उदासीन थे। अब प्रश्न उठता है कि जो पार्टी पन्ना प्रमुख तक अपनी पहुँच का दावा कर रही थी, उसे पोलिंग एजेंट भी नहीं मिले, यह हास्यास्पद ही है। मोदी की लोकप्रियता को सबसे बड़ा झटका स्थानीय गठबंधन के प्रत्याशी के प्रति लोगों के क्षोभ के कारण लगने वाला है। इस लोकसभा चुनाव में विपक्ष की वापसी इसी कारण हो सकी कि राष्ट्रवादी रुझान कमजोर हो गया एवं स्थानीयता के तत्व हावी हो गए। यही एक ऐसा तत्व है, जिसने मोदी की लोकप्रियता को स्थानीय स्तर पर कमजोर किया है। क्योंकि चौथे चरण के मतदान में बूथ पर मोदी को चाहनेवाले कई लोग ऐसे मिले, जो भाजपा के विरोध में वोट करके हुए यह कहते हुए मिल गए कि “मोदी तो प्रधानमंत्री बन जाएँगे, लेकिन इस प्रत्याशी का हारना जरुरी है।” खासकर उच्च जातियों में यह अवधारणा जोड़ पकड़े हुए है। बेगूसराय से लेकर जहानाबाद तक मैं कई ऐसे भूमिहार मतदाताओं से मिला, जिन्होंने पिछली बार भाजपा को वोट दिया था, लेकिन इस बार उन्होंने या तो स्थानीय प्रत्याशी के विरोध में मतदान किए है या करने जा रहें हैं। लोक लुभावन राजनीति का मतलब यह नहीं है कि इसके केंद्र में महज एक व्यक्ति ही हो। यह दौर लोक लुभावन राजनीति की है, जिसने केंद्र के समकक्ष कई ऐसे लोकप्रिय नेता पैदा कर दिए हैं, जो मोदी की लोकप्रियता पर हावी पड़ रहे हैं, जैसे बंगाल में ममता बनर्जी, उड़ीसा में नवीन पटनायक एवं दिल्ली में केजरीवाल के साथ राहुल गाँधी की लोकप्रियता में अच्छी-ख़ासी बढ़ोत्तरी दिखने को मिली है। ऐसे भी लोक लुभावन राजनीति में लोकप्रिय विमर्श के अपने प्लेटफार्म होते हैं। कहने का अर्थ अगर मोदी अपनी लोकप्रियता को उन प्लेटफार्म के सहारे गढ़ते हैं तो विपक्ष के पास भी सोशल मीडिया ने एक ऐसा प्लेटफार्म दे दिया है, जिसके सहारे वो अपने नेताओं के प्रति लोकप्रियता को ज़ोर देते हुए न केवल दिखते हैं, बल्कि मोदी विरोध को उसी अनुपात में हवा भी देते हैं। मोदी की लोकप्रियता को लेकर दूसरा सवाल यह है कि क्या मोदी उसी अनुपात में हर जाति, वर्ग, धर्म एवं क्षेत्र में लोकप्रिय हैं, जितना दावा किया जाता है? तो इसका उतर मिलेगा, नहीं। क्योंकि दक्षिण भारत एवं अल्पसंख्यक के बीच मोदी की लोकप्रियता न के बराबर है. वहीँ दूसरी ओर सभी जाति एवं सभी वर्गों के बीच उनकी लोकप्रियता उस अनुरूप में नहीं है। जैसे, शिक्षित युवा वर्ग, जो नौकरी की तलाश में पिछले दस वर्षों से संघर्षरत है, उनके बीच मोदी न तो उतने लोकप्रिय हैं और न ही उनकी उतनी ज्यादा अपील है। किसान विरोधी निर्णय एवं अग्निवीर योजना ने मोदी की लोकप्रियता को ग्रामीण स्तर पर लगभग एक ग्रहण लगा दिया है।
तीसरा लाभार्थी वोट बैंक का विश्लेषण। सवाल उठता है कि क्या लाभार्थी वर्ग इतना कारगर है, जो भाजपा को इतना डोज दे सके कि वह 300 सीट ला सके। ऊपरी तौर पर दिखता है कि हाँ, मोदी जी के फ्री राशन वाली योजना ने मतदाताओं का एक ऐसा वर्ग तैयार किया, जो उनके साथ किसी भी परिस्थिति में खड़ा हुआ दिख रहा है। लेकिन इसके साथ ही यह सवाल भी उठता है कि 2019 में भी मोदी जी के साथ यह लाभार्थी वर्ग खड़ा हुआ दिखा था। लेकिन वही लाभार्थी वर्ग इस बार खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा है। क्योंकि, 2019 में लाभार्थी वर्ग का एक बड़ा हिस्सा यह कहते हुए मिला था कि “मोदी जी हमको शौचालय बनवाए, गैस सिलेंडर दिए एवं घर बनवा दिए।” लेकिन उसी लाभार्थी वर्ग का बड़ा हिस्सा इस बार यह कह रहा है कि “खाली राशन देने से क्या होगा? बिजली महँगी है, दाल महँगी है, तेल महँगा है, मुझे घर नहीं मिला है इत्यादि-इत्यादि।” यानि लाभार्थी वर्ग का एक बड़ा हिस्सा महँगाई के नाम पर इस चुनाव में भाजपा से छिटक चुका है। दूसरी बात यह भी है की जिसे किसान सम्मान निधि के नाम पर लाभ मिला था, उसमें से इनकम टैक्स भरने वाले बहुत सारे किसानों से वह राशि अब वापस ली जा रहा है। इसके अलावे किसान इस बात से खासे नाराज दिख रहे हैं कि उन्हें पैसों के नाम पर ठगा जा रहा है। वह इसलिए कि उन्हें जो भी राशि मिल रही है, सरकार खाद, बीज एवं डीजल आदि की क़ीमत में बढ़ोत्तरी करके दोगुना वसूल रही है। अतः यह भी एक मिथक ही प्रतीत होता है कि लाभार्थी वर्ग का एक बड़ा हिस्सा भाजपा को वोट कर रहा है।
चौथा, महिला वोट बैंक की पड़ताल। पिछले कई चुनाव से मीडिया ने एक प्रचार का माध्यम चुना है कि मोदी जी के साथ महिला मतदाता के रूप में एक बड़ा वोटबैंक है। सवाल उठता है कि क्या महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी एवं राजनीतिक निर्णय का अंतर भारत में ख़त्म हो गया है। अगर कोई विश्लेषक इस बात पर ज़ोर दे रहा है तो वह सत्य प्रतीत नहीं होता दिख रहा है, क्योंकि आज भी देश की अधिकतर महिला आबादी ना केवल अपने अधिकारों के लिए, बल्कि अपनी पहचान के लिए संघर्ष कर रही है। आज भी उनकी पहचान पुरुषों के साए तले ही है। एक सर्वे दिखाता है कि भारत में महिलाओं के पास अपनी खुद की संपत्ति विकसित देशों की तुलना में काफी पीछे है। इसका अर्थ है कि महिलाएँ आज भी राजनीतिक निर्णय लेने के लिए संघर्षरत हैं। भारतीय समाज आज भी मूलतः पितृसत्तात्मक ही है, जहाँ महिलाएँ अपना राजनीतिक निर्णय अपने परिवार एवं समाज की संरचना के साए तले ही ले रही हैं। मैंने जब अपने एक समाजशास्त्री मित्र से यह प्रश्न पूछा कि बताइए, महिलाओं के बारे में जो प्रचारित किया जा रहा है, वह कितना सत्य के क़रीब है। तो वे बोले “देखिए, राजनीतिक भागीदारी इसलिए दिख ज्यादा दिख रही है क्योंकि पुरुषों में ज्यादा प्रवासी हैं, जो या तो बाहर मजदूरी कर रहे हैं या ये सोचते हैं कि जब तक वोट देने के लिए पंक्ति में खड़ा रहेंगे, तब तक दो से तीन सौ रुपया कमा लेंगे। उनका ये भी मानना है कि इस राजनीतिक भागीदारी को महज वोट देने तक के सन्दर्भ तक ही सीमित रखने की जरुरत है ना कि उसे बढ़ा-चढ़ा के पेश करने की।” अब एक और सवाल उठता है कि क्या महिलाओं के बीच जाति, धर्म, वर्ग एवं क्षेत्र का विभाजन नहीं होता है या महिलाओं को एक वर्ग के रूप में ही माना जाय? तो निश्चित रूप से महिलाओं के बीच भी यह विभाजन है। कहने अर्थ इस विभाजन का वोट बैंक के रूप में क्या अभिप्राय है? तो भाजपा समर्थित विश्लेषक जोड़ देते हैं कि चूँकि महिलाएँ धार्मिक होती हैं एवं घरों जो भी न्यूज दिखाया जाता है, उसमें यह बताया जाता है कि मोदी जी हिन्दू धर्म के लिए बड़े काम कर रहें हैं, उन्होंने राम मंदिर का निर्माण करवाया एवं बड़े धार्मिक व्यक्ति हैं आदि-आदि। इसलिए महिलाओं का बड़ा वर्ग मोदी जी को वोट कर रहा है। यदि यह मान लिया जाय कि महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा मोदी जी को वोट कर रहा है, तब तो यह भी मानना पड़ेगा कि महिलाओं के बीच विभाजन नहीं है। लेकिन विभाजन नहीं होने का तो सवाल ही नहीं है। अगर विभाजन है तो हमको उसी अनुरूप में देखना होगा। जैसे, बड़े उम्र की महिला। इस वर्ग की महिलाओं में यह देखा गया है कि यह मोदी जी को लेकर बड़ी ही सकारात्मक सोच रखती हैं। जबकि इसके उलट जो महिलाएँ पढ़ी-लिखी हैं, वे मुद्दों पर केंद्रित हो जाती हैं। उनके लिए महँगाई एवं रोजगार महत्वपूर्ण हैं। अब महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा है, जो अपने परिवार एवं समाज की सोच के साथ चलती हैं। यहीं आकर जाति, धर्म, वर्ग एवं क्षेत्र मजबूत हो जाता है। यानी महिलाओं का राजनीतिक समाजीकरण जाति, समाज एवं परिवार के बीच होता है। यानी अधिकांशतः महिलाओं का राजनीतिक रुझान पुरुषों के रुझान पर आधारित होता है, ना कि कोई स्वतंत्र वोट बैंक के रूप में। उदाहरण के लिए एक शिक्षिका महिला जो कि कई वर्षों से मोदी की नीतियों की आलोचक रही हैं, जब वोट करने गयीं तो वह भाजपा के पक्ष में वोट दे कर बाहर निकलीं। ऐसा उन्होंने इसलिए किया, क्योंकि उनके परिवार एवं समाज के लोग बूथ पर भाजपा को ही वोट कर रहे थे।
अतः यह कहा जा सकता है कि इस लोकसभा चुनाव के रुझानों को समझने के लिए एक वस्तुनिष्ठ अप्रोच अपनाना होगा। यह वस्तुनिष्ठता तब तक संभव नहीं, जब तक विश्लेषक विशेष से सामान्य की ओर नहीं पहुँचेंगे। ‘सामान्य’ का सीधा अर्थ है कि विश्लेषक कहानी गढ़कर एक पक्ष की ओर जन विमर्श खड़ा करना चाह रहे हैं।
