
मानवीय संपर्क, जिसके तहत विद्यार्थी कक्षा में दिलचस्प प्रश्न पूछ सकते थे, शिक्षकों को चुनौती दे सकते थे, आत्मनिरीक्षण कर सकते थे या अपनी बहस को कक्षा से बाहर निकालकर गलियारों और कैंटीन तक ले जा सकते थे, धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है, क्योंकि शैक्षणिक परियोजना व्यक्तिगत और अलगावकारी होती जा रही है।

यह शिक्षा नीति शिक्षकों के ‘प्राचीन सम्मान’ को लौटाने का वाचिक आश्वासन भले ही देती हो, शिक्षकों से एक स्पंदनशील शैक्षिक वातावरण के निर्माण की अपेक्षा भले ही करती हो, परंतु उनके वेतनमान पर चुप्पी साध लेती है, सेवाशर्तों को कमजोर बनाने की अनुशंसा करती है, उनके व्यक्तित्व के दब्बू होने का इंतजाम करती है और विद्यालीय परिवेश में उनके महत्व का अवमूल्यन करती है।

केंद्रीय बजट 2024-25 में शिक्षा बजट के आबंटन की प्रवृत्ति और दिशा का विश्लेषण

यदि भारत को शिक्षा का सिरमौर होना है, बेरोजगारी की समस्या को दूर करना है, उत्पादन में बढ़ोत्तरी करनी है, गाँवों का विकास करना है और समाज में नैतिकता का वर्चस्व स्थापित करना है तो उसे ‘नई तालीम’ की अवधारणा को स्वीकार करना ही पड़ेगा।

यह कैबिनेट द्वारा स्वीकृत है, संसद द्वारा नहीं। अर्थात एक पार्टी की शिक्षा नीति है।…यह शिक्षा नीति अनौपचारिकता, सांप्रदायिकता, केन्द्रीयता और निजीकरण की बढ़ोत्तरी के चार पायों पर खड़ी है। इन पायों को ही मजबूत करने का निहितार्थ इस शिक्षा नीति में छिपा हुआ है।

नीति राजसत्ता की वह परिकल्पना होती है, जो यह दिखाती है कि व्यवस्था को किन रास्तों से होकर कहाँ तक ले जाना है। इसकी भूमिका दिशा-निर्देशक की होती है। राज्य नीतियाँ बनाता है और फिर उन नीतियों को अमल में लाने के लिए क्रियान्वयन की योजना का निर्माण करता है। यद्यपि नीतियाँ न तो बाध्यकारी होती हैं और न ही उनका कोई कानूनी आधार होता है। फिर भी एक नैतिक दवाब बनाने में इसकी भूमिका होती है। अन्य नीतियों की तरह इस शिक्षा नीति का भी यही महत्व है यह शिक्षा का अवसर मुहैया कराने और उसका परिणाम प्राप्त करने के दृष्टिकोण को उजागर करती है।