नेपाल की राजनीतिक त्रासदी है कि 1950 से ही यह अपनी राजनीतिक स्थिरता के लिए संघर्षरत है। इसकी शुरुआत राणा डायनेस्टी के खिलाफ हुए लोकतांत्रिक आंदोलन से लेकर वर्तमान में लोकतांत्रिक ओली सरकार तक अनवरत जारी है। नेपाल के युवा आज सड़कों पर अपनी सरकार के अलोकतांत्रिक निर्णय के खिलाफ हिंसक हो चुके हैं। इसे जेन-जी आंदोलन के नाम से जाना गया है। इसलिए, क्योंकि इस आंदोलन में नेपाल की नई पीढ़ी के युवा शामिल हैं। ये वे युवा हैं, जो नेपाल में जनांदोलन के दौरान पैदा हुए एवं लोकतांत्रिक संघर्ष के बाद लोकतांत्रिक सरकार के समय बड़े हुए। इनकी अपनी महत्वाकांक्षाएँ हैं। ये युवा गणतांत्रिक नेपाल से एक ओर रोजगार का अवसर, भ्रष्टाचार मुक्त शासन, लोकतांत्रिक समता, युवाओं को प्रतिनिधित्व एवं डिजिटल फ्रीडम की माँग को लेकर शांतिपूर्वक विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। लेकिन, सरकार ने इस आंदोलन को निरंकुश तरीके से कुचलने के लिए बल का प्रयोग किया। जिसमें 19 लोगों की जानें गईं एवं 400 से अधिक लोग घायल हुए। परिणामस्वरूप अब यह आंदोलन सत्ता विरोधी आंदोलन के रूप में तब्दील हो चुका है। यह नेपाल का दुर्भाग्य है कि वर्तमान सरकार ने श्रीलंका एवं बांग्लादेश में हुए जनांदोलनों से कुछ नहीं सीखा एवं एक के बाद एक निरंकुश निर्णय लेते चले गए। जबकि राणा शासन के बाद नेपाल राज्य की यह प्रकृति रही है कि यहाँ सत्ता के खिलाफ एक-के-बाद एक जनांदोलन लगातार होते रहें हैं। लेकिन, वर्तमान में जेन-जी आंदोलन लोकतांत्रिक नेपाल के उन वादों को लेकर सड़कों पे उतरा है जिसका वादा आधुनिक गणतांत्रिक राज्य ने नेपाल के नागरिकों के साथ किया था।
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जेन-जी आंदोलन के कारण
नेपाल के उच्चतम न्यायालय ने सरकार के लिए एक आदेश जारी किया था। इसके तहत नेपाल की केंद्रीय सरकार को ऑनलाइन सोशल साइट के लिए एक रेगुलेटरी फ्रेमवर्क की स्थापना करना था। इस आदेश के आलोक में सरकार ने सभी सोशल साइटों को सूचित किया कि उसे देश के कानूनों का पालन करने के लिए एक स्थानीय दफ्तर एवं एक ग्रीवांस अधिकारी को नियुक्त करना है। सरकार ने इन सभी साइटों को एक सप्ताह का समय दिया था। लेकिन, टिकटॉक, वाइबर, निम्बुज्ज, पॉपलाइव, ग्लोबल डायरी एवं हमरोपत्र के अलावे किसी अन्य सोशल साइट ने दी गयी समय सीमा के तहत सरकार के इस आदेश का पालन नहीं किया। इसके पश्चात सरकार ने नेपाल के 26 सोशल साइटों, जिसमें फेसबुक, वॉट्सएप, एक्स, यूट्यूब एवं लिंक्ड सहित अन्य सोशल साइट भी हैं, को प्रतिबंधित कर दिया।
जेन जी आंदोलन की शुरुआत सरकार के इसी आदेश के खिलाफ शुरू हुई। सरकार के अचानक से लिए गए इस निर्णय से नेपाली नागरिकों में हलचल पैदा हो गई। नेपाल के नागरिकों ने इस निर्णय को अपनी स्वतंत्रता के खिलाफ समझा।एक ओर तो अचानक से लिए गए इस निर्णय से छोटे व्यापारियों का ऑनलाइन व्यापार एकाएक ठप्प पड़ गया और दूसरी ओर नेपाल के युवाओं की ऑनलाइन शिक्षा पर ग्रहण लग गया। यानि, एक प्रकार से यह पूरे नेपाल में कम्युनिकेशन ब्रेकडाउन जैसी स्थिति बन गई। इसी ऊहापोह की स्थिति में नेपाल के युवाओं ने टिकटॉक पर “मूव फ्रॉम ऑनलाइन आउटरेज टू रियल वर्ल्ड एक्शन” का आह्वान किया।
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जेन-जी आंदोलन का स्वरूप और प्रमुख माँगें
इस प्रकार देखा जाय तो यह विरोध प्रदर्शन केवल सोशल मीडिया के प्रतिबंध तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इस आंदोलन ने सरकार के प्रति अविश्वास, भ्रष्टाचार एवं निरंकुश निर्णय की खिलाफत का रूप धारण कर लिया। नेपाल के युवाओं ने टिकटॉक पे हैशटैग के साथ #वेक अप जेन-जी, #नेपाल प्रोटेस्ट एवं #रिस्टोर आउट इंटरनेट ट्रेंड करवाना शुरू कर दिया। नेपाली युवाओं ने काठमांडू के मैतीघर मंडल एवं न्यू बाणेश्वर के आस-पास शांतिपूर्वक मार्च करना शुरू कर दिया। ये युवा नेपो किड के खिलाफ नारे लगा रहे थे। इनका मानना था कि नेपाल में गरीबी के बावजूद नेपो किड ऐसे बच्चे हैं, जो किसी-न-किसी राजनेता के बच्चे हैं। जो सोशल साइट पर लक्जरी जिंदगी के बारे में हर रोज फोटो डालते हैं। लेकिन, ये नहीं बताते कि इनके पास ऐसी जिंदगी जीने के लिए पैसे कहाँ से आते हैं। कहीं-न-कहीं ये पैसे भ्रष्ट तरीके से अर्जित किए हुए हैं। सोशल साइट पर प्रतिबंध के बावजूद इन युवाओं ने वी पी एस एवं एनरप्टेड ऐप्स के जरिए आंदोलन को कोऑर्डिनेट किया। इन्होंने ने 28 वर्ष तक के युवाओं को स्कूल ड्रेस में इस प्रदर्शन में शामिल होने का आह्वान किया। इनकी प्रमुख माँगें थीं –
- नेपाल में सोशल मीडिया पर से प्रतिबंध हटाया जाय।
- भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई हो।
- डिजिटल स्वतंत्रता को संविधान के मूलभूत अधिकार के रुप में शामिल किया जाय।
- नेपाल में सुशासन की स्थापना एवं रोजगार कि माँग प्रमुख है।
सरकार ने काठमांडू में हो रहे इस प्रदर्शन को निरंकुश तरीके से कुचलने का प्रयास किया। पुलिस की तरफ से फायरिंग हुई और 30 से अधिक लोगों की जानें और 400 से अधिक लोग घायल हुए। आंदोलन के कारण सत्ता का केंद्र बिंदु रहे सिंह दरबार, संसद भवन, सुप्रीम कोर्ट, राष्ट्रपति भवन, प्रधानमंत्री आवास आदि धू-धुकर जल उठे। अन्य मंत्रियों के साथ राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री इस्तीफा देने को मजबूर हो गए।
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ओली का तानाशाही प्रवृति
प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की शासन शैली को अक्सर ‘तानाशाही’ कहा जाता रहा है। उन पर सत्ता और सरकारी संस्थाओं के दुरुपयोग के आरोप भी लंबे समय से लगते रहे हैं। सबसे बड़ी समस्या यह मानी जाती है कि ओली आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पाते। मौजूदा Gen Z प्रदर्शनों में युवाओं ने सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाएं हैं, जो हाल के वर्षों में बढ़ते ही गए हैं। सोशल मीडिया लोगों को सरकार के खिलाफ खुलकर बोलने की ताकत देता है, लेकिन ओली जैसे नेता इन आलोचनाओं को निजी हमले मानते हैं और उन्हें रोकने की कोशिश करते हैं। यही प्रवृत्ति दुनिया भर में तानाशाही लीडरशिप की पहचान रही है और इसमें हैरानी नहीं कि ओली ने भी यही तरीका अपनाया।
अगर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स नेपाल में रजिस्टर हो जाते, तो सरकार उनके ज़रिए यूज़र की गतिविधियों को सेंसर और नियंत्रित कर सकती थी। बताया गया है कि एलन मस्क की कंपनी एक्स ने नेपाल के सूचना मंत्रालय को लिखे एक पत्र में रजिस्टर करने से इनकार कर दिया और कारण बताया—देश में ‘भ्रष्टाचार और पारदर्शिता की कमी’।
2015 में नेपाल ने नया संविधान लागू किया था। इसके बाद दक्षिणी मधेश क्षेत्र में विरोध शुरू हुआ, जहाँ के लोग भारत से सांस्कृतिक व पारिवारिक संबंध रखते हैं। इनका आरोप था कि उन्हें राजनीतिक प्रतिनिधित्व से वंचित किया गया है और कई लोग नागरिकता से भी वंचित रह गए।
मधेशी प्रतिनिधित्व और नागरिकता के मुद्दे पर ओली हमेशा सख्त रुख अपनाते रहे हैं। संवैधानिक संशोधन का मुद्दा लगातार गठबंधन सरकार बनाने में सौदेबाज़ी का हिस्सा बना रहता है। अपनी पार्टी, नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (यूनिफाइड मार्क्सवादी-लेनिनवादी) में भी ओली नए नेतृत्व को आगे बढ़ने नहीं देते।
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कुछ महीने पहले नेपाल की पूर्व राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी ने सीपीएन-यूएमएल के चेयरमैन पद के लिए दावेदारी जताई थी—यह वही पद है जिस पर ओली पिछले एक दशक से काबिज़ हैं। भंडारी, जिन्हें ओली ने ही राष्ट्रपति पद के लिए चुना था, नेपाल की पहली महिला राष्ट्रपति बनी थीं और 2008 में लोकतंत्र बनने के बाद दूसरी राष्ट्रपति। राष्ट्रपति कार्यकाल पूरा करने के बाद उनका पार्टी चेयरमैन बनने का फैसला सीधे-सीधे ओली की पकड़ को चुनौती माना गया और इससे पार्टी के भीतर सत्ता संतुलन बिगड़ गया।
जवाब में पार्टी ने अचानक उनकी सदस्यता ही रद्द कर दी और उनकी उम्मीदवारी रोक दी। इस कदम ने साफ दिखा दिया कि ओली सत्ता से चिपके रहना चाहते हैं और अपनी ही पार्टी के भीतर से किसी प्रतिद्वंद्वी को उभरने नहीं देना चाहते। सत्ता की यह भूख हमेशा से उनकी नेतृत्व शैली की सबसे बड़ी कमज़ोरी रही है।
नेपाल में लोकतंत्र का भविष्य
पिछले सात दशकों से नेपाल में आधुनिक राज्य बनने की प्रक्रिया इन आंदोलनों के कारण बाधित हुई है। जनांदोलन:-2 के बाद नेपाल में लोकतंत्र की बहाली अवश्य हुई है, लेकिन अंतरिम सरकार के अलावे कोई भी सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी है। नेपाल में सभी राजनीतिक दलों का सामूहिक नेतृत्व चुनावी जनादेश पर खरा उतरने में असफल रहा है। लोकतंत्र की शुरुआत से ही राजनीतिक अस्थिरता यहाँ की बड़ी पहचान रही है। 2008 में पहली लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया शुरू होने के बाद से अब तक कोई भी सरकार पाँच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी। पिछले 17 साल में नेपाल ने दर्जनभर से ज़्यादा प्रधानमंत्रियों को देखा है।
हालाँकि, हर पांच साल में चुनाव होते हैं, लेकिन लगभग हर नई सरकार अन्य दलों के साथ गठबंधन में बनती है। इन वर्षों में प्रचंड, ओली और नेपाली कांग्रेस नेता शेर बहादुर देउबा अपनी ज़रूरतों के हिसाब से गठबंधन बनाते रहे हैं, जो अक्सर मूल जनादेश को प्रतिबिंबित नहीं करते।
उदाहरण के लिए प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी सेंटर) 2022 के आम चुनावों में तीसरे स्थान पर रही थी। फिर भी उन्होंने नेपाली कांग्रेस और CPN-UML—शीर्ष दो दलों के साथ हाथ मिलाकर प्रधानमंत्री पद हासिल कर लिया। संविधान के तहत गठबंधन बनाने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन किसी जूनियर पार्टी का केंद्रीय जनादेश के बिना सरकार का नेतृत्व करना लोकतंत्र की नैतिकता पर सवाल खड़ा करता है।
पिछले तीन साल में तीन अलग-अलग सरकारें बनी हैं। बुजुर्ग नेतृत्व ने युवाओं को आगे आकर सरकार में प्रमुख भूमिका निभाने का मौका नहीं दिया। इसी बीच, राजनीतिक अस्थिरता ने देश की संस्थाओं, नीति-निर्माण और विकास कार्यों को जकड़कर रख दिया है।
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यह बात सच है कि एक भू-आवद्ध देश होने के नाते नेपाल को रोज़गार और औद्योगिक वृद्धि में बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। बाज़ार तक सीमित पहुँच, कमज़ोर बुनियादी ढाँचा और आयात पर निर्भरता औद्योगिक विकास और रोज़गार सृजन में बाधा हैं, लेकिन इससे भी बड़ी चिंता की बात है कि इन समस्याओं को सुलझाने के लिए कोई ठोस योजना ही नहीं है और Gen Z अब शायद इसे बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं हैं।
ताज़ा प्रदर्शनों से साफ झलकता है कि यहाँ प्रशासनिक नाकामी, व्याप्त भ्रष्टाचार, नेतृत्व का अभाव और लोकतांत्रिक मूल्यों की अनदेखी है। कुछ वक्त पहले ही पड़ोसी बांग्लादेश में युवाओं ने पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना के खिलाफ सड़क पर उतरकर उन्हें इस्तीफा देने और भारत भागने के लिए मजबूर कर दिया था। नेपाल में भी वही दोहराया जा रहा है, जहाँ प्रदर्शनकारी राष्ट्रपति के घर में घुसकर तोड़फोड़ कर रहे हैं? ऐसे तनावपूर्ण माहौल में नेपाली कांग्रेस ने भी सरकार से समर्थन वापस ले लिया है। नेपाल के प्रधानमंत्री ने अपना इस्तीफा दे दिया है। वर्तमान में नेपाल कि स्थिति अराजक बनी हुई है।नेपाल आज भी भ्रष्टाचार सूचकांक में 180 देशों में 108वें स्थान पर है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में नेपाल 127 देशों में 68वें स्थान पर है। आज भी नेपाल की जी डी पी में रेमिटेंस का योगदान 28% है। जबकि कृषि का योगदान मात्र 25% है। नेपाल से हर रोज 2200 नागरिक मलेशिया एवं दक्षिण कोरिया रोजगार के लिए पलायन कर रहे हैं। नेपाल के कुल 40 लाख नागरिक रोजगार के लिए विदेश में रह रहे हैं। इसमें भारत में रह रहे नेपाल नागरिकों की गणना को छोड़कर। यानि, बेरोजगारी एवं पलायन सबसे बड़ा मुद्दा नेपाल में है। ये नेपाली नागरिक अमेरिका एवं ऑस्ट्रेलिया से भगाए जा रहे हैं। इसलिए ये लोग इस आंदोलन में उम्मीद को तलाश करते हुए इसके प्रति अपनी सहानभूति बनाए हुए हैं।नेपाल आज भी क्षेत्रीय, जातीय एवं वर्गीय असमानता से जूझ रहा है। ओली की सरकार शुरू से ही ऐसे आंदोलनों को कुचलने के लिए जानी जाती है। क्योंकि, 2015 में मधेशी आंदोलन को बुरी तरह से सत्ता के बल पर दबा दिया गया था। लेकिन, इस बार ओली सरकार के लिए इस आंदोलन को दबाना मुश्किल था। क्योंकि, इस आंदोलन में सभी क्षेत्रों एवं समुदायों की भावना जुडी हुई है। क्योंकि, यह आंदोलन अपनी प्रकृति में ऑर्गेनिक है, जो कि स्वतः स्फूर्त हुआ। इस आंदोलन को किसी का नेतृत्व प्राप्त नहीं है। लेकिन, नेपाल की जनभावनाओं की सहानभूति इस आंदोलन के साथ जुड़ी हुई है। भले, ही सरकार इसे राजशाही एवं हिन्दू राष्ट्र के समर्थकों का षडयंत्र बता रही है, किंतु, यह आंदोलन नेपाल में नई राजनीतिक चेतना का प्रतीक बन चुका है। नेपाल के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने नेपाल युवाओं की हत्या को संज्ञान में लेते हुए इस घटना को लेकर जांच आयोग बैठा दिया है। विश्व के कई मीडिया समूह ने नेपाल की इस स्थिति को लेकर अपनी चिंता जाहिर की है। भारत ने नेपाल में रह रहे अपने नागरिकों के लिए एडवाइजरी जारी की है एवं नेपाल से जुड़ी सीमाओं पर बीएसएफ की मॉनिटरिंग को बढ़ा दिया है। इस आंदोलन का परिणाम जो भी हो, लेकिन उम्मीद है कि इससे नेपाल में एक नया नेतृत्व वर्ग उभरेगा एवं नेपाल में राजनीतिक स्थिरता को जन्म देगा।
