इलाज

गाँव से आए भोले-भाले माधो को अस्पताल में अपने-आप विकसित हो गए इस व्यवसाय-तंत्र का तो पता ही नहीं था। जाँच कराने में सहायता करने वाले जिस लड़के को, दवा की दूकान दिखाने वाले जिस सज्जन को और डॉक्टर का पता बतानेवाले जिस आदमी को वह देवदूत समझ रहा था, वास्तव में वे सारे अपने-अपने धंधे के एजेंट थे, जो अस्पताल के परिसर में ही दिन भर घूम-घूमकर भोले-भाले मरीजो को बहला-फुसलाकर ले जाने का धंधा करते थे, जिसके लिए उन्हें कमीशन मिलता था। अस्पताल की निःशुल्क व्यवस्था के समानांतर विकसित यह कमीशन-तंत्र प्रशासन की ऐच्छिक अनदेखी के कारण खूब फल-फूल रहा था। माधो-जैसे लोग ही उनके लक्ष्य होते थे, जो आसानी से उनके जाल में फँसते भी थे और ऊपर से उन्हें दुआएँ भी देते थे।
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सोकर उठते ही माँ ने कहा – ‘जा रे माधो, कंपाउंडर साहब को बुला ला। तुम्हारे बाबूजी रात भर कराहते रहे हैं। पता नहीं क्या हो गया है कि इतनी सुई-दवा होने पर भी दर्द नहीं जा रहा है।’

हड़बड़ाया हुआ माधव बाबूजी के कमरे में गया। देखा कि बाबूजी खटिया पर पड़े-पड़े दर्द को परास्त कर देने की कोशिश में ऐंठ रहे हैं। उनकी आँखों के कोने भींग रहे थे, जैसे दर्द से लड़ाई में अब पराजित हो रहे हों। माधव वहीं पर उनकी बगल में बैठ गया और सिर सहलाते हुए पूछा, ‘क्या हुआ बाबूजी? बहुत दर्द हो रहा है?’ ‘हाँ रे, अब बर्दाश्त नहीं होता।‘ – दाँतों को भींचते हुए बाबूजी ने किसी तरह कहा। ‘तुरंत हम कंपाउंडर साहब को बुलाकर लाते हैं’, यह कहते हुए माधव तीर की तरह कमरे से निकाल गया।

बाबूजी हमेशा से ऐसे ही नहीं थे। पहले कितने हट्टे-कट्टे थे! पेड़ काटना, लकड़ी चीरना, कुदाल चलाना, बोझ उठाना आदि जितने भी भारी काम हुआ करते थे, रामधनी को ही खोजा जाता था। लेकिन अब कैसी हालत हो गयी है उनकी! हाथ-पाँव निस्पंद और बेजान होते जा रहे हैं और दर्द से कराहना-चीखना सुना नहीं जाता। माँ दिन-रात उनकी सेवा में लगी रहती है। दिन भर में कई-कई बार पानी गरम करके सेंकती है, गरम तेल में लहसुन मिलाकर मालिश करती है, लेकिन पता नहीं क्या हो गया है कि बदन रोज-रोज सुन्न होता ही जा रहा है। शुरु-शुरु में चलने में पैर लड़खड़ा जाते थे, बोलते थे कि लोटा उठाने में उँगलियाँ कमजोर महसूस होती हैं। उसी समय गाँव के कंपाउंडर साहब से दिखवाया था। एक महिना से ज्यादा हो गया, लेकिन बीमारी घटने के बजाय बढ़ती ही जा रही है। नजदीक में कोई दूसरा डॉक्टर तो है भी नहीं, जिससे दिखवाया जाय। लेकिन आज कंपाउंडर साहब से पूछ ही लूँगा कि उनसे ठीक होगा कि नहीं। नहीं तो शहर में किसी अच्छे डॉक्टर के पास ले जाऊँगा। ….. तेजी से साइकल चलाते हुए माधव सोचता जा रहा था।

कंपाउंडर एक महीने से रामधनी पर अपने चिकित्सा-ज्ञान का प्रयोग कर रहा था। अपने चिकित्सा-संरक्षण में वह हजारों रुपये खर्च करवा चुका था। लेकिन रामधनी की हालत रोज-रोज खराब ही होती जा रही थी। इस बार आकार उसने रामधनी को सिर से पाँव तक देखा, आँख की पुतलियाँ उठाईं, हाथ और पैर हिलाकर देखा और गंभीर होकर बोला – ‘देखो माधो, ये यहाँ ठीक नहीं होंगे। इनको शहर के डॉक्टर के पास ले जाओ।‘ उसने अपने परिचय के एक डॉक्टर का नाम बताते हुए पूरा ब्योरा समझाया – ‘‘सुबह-शाम क्लिनिक में बैठते हैं। मेरा नाम कह देना तो ठीक से देख देंगे।’’ और, उसने डॉक्टर के यहाँ पहुँचने का पूरा रास्ता बता दिया।

कंपाउंडर के बताए के अनुसार बाबूजी को रिक्शा पर लादकर माधो सवेरे ही डॉक्टर साहब के यहाँ पहुँच गया। बीमारी बताने के साथ ही जब उसने यह भी बताया कि बाबूजी पहले कम्पाउन्डर साहब की दवा खा रहे थे और उन्होंने ही उसे यहाँ भेजा है तो डॉक्टर साहब हल्के से मुस्कराये। हाथ-पैर हिलाकर तथा छाती-तलवा आदि को ठोककर देखने के बाद उन्होंने पुर्जा थमाते हुए कहा – ‘‘ ये जाँच करवा लो, फिर देखते हैं कि क्या बीमारी है।’’ कई सारी जाँच थी – खून की, पेशाब की, पैखाने की, नस की, एक्स रे, अल्ट्रासाउन्ड आदि-आदि। कंपाउंडर ने पुर्जा लेकर कौन जाँच कहाँ करवानी है, इसके कई सारे पुर्जे डॉक्टर के पुर्जे के नीचे ही नत्थी कर दिये और कहा कि शाम तक रिपोर्ट लेकर आओ और दवा लिखवा लेना।

इसी बातचीत में माधव को पता चला कि उसके गाँव का कंपाउंडर भी पहले इसी डॉक्टर के यहाँ कंपाउंडर था और अपने संपर्क में आने वाले सारे रोगियों को इसी डॉक्टर के पास भेजता है। महीने में एक बार वह आता भी है डॉक्टर से मिलने। माधव को इस बात से तसल्ली हुई कि उसके कंपाउंडर ने उसे अपने डॉक्टर के पास भेजा है। डॉक्टर ने जरूर उसके बाबूजी को खास ध्यान देकर देखा होगा।

सारी जाँच अलग-अलग जगहों पर होनी थी। माधो रिक्शा पर बाबूजी को लादकर पहले तो सारी जगहों पर जाँच करवाता फिरा। फिर उन्हें क्लिनिक में ही अकेला छोड़कर इतनी मेहनत तथा खर्च से करवायी गयी जाँच की रिपोर्ट लेने के लिए निकला। जेठ की आग-बबूला धूप में भटकते-भटकते उसकी चोटी का पसीना एड़ी होकर बह रहा था। कितनी बार पानी पीने के बाद भी ओठों की पपड़ियाँ उखड़ने लगीं। बहुत अधिक थक जाने पर वह किसी मकान की छाया में कुछ देर सुस्ता लेता था, फिर हिम्मत जुटाकर संजीवनी रूपी रिपोर्ट को लाने के लिए आगे बढ़ता था। और, शाम तक सारी रिपोर्ट जमा कर वह डॉक्टर के पास इस तरह पहुँचा मानो बाबूजी के ठीक होने की परीक्षा में वह उत्तीर्ण हो गया है। डॉक्टर ने सारी रिपोर्ट्स देखी, दवा लिखी, कम्पाउन्डर ने दवा की दूकान बतायी, दवा खाने की विधि समझायी और पन्द्रह दिनों के बाद फिर आने को कहा।

पंद्रह दिनों तक वह रोज इस उम्मीद में सोता था कि सुबह में बाबूजी भला-चंगा मिलेंगे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। पन्द्रह दिनों के बाद वह फिर बाबूजी को लेकर डॉक्टर के पास पहुँचा तो दिखाने के लिए नाम लिखाते समय कम्पाउन्डर ने फिर से फीस माँगी तो उसने एतराज जताया कि अभी तो महीना भी नहीं लगा है और इनको फायदा भी कुछ नहीं हुआ है, फिर फीस किस चीज की? तो कम्पाउन्डर ने उसे समझाया कि यहाँ पन्द्रह दिनों पर फीस लगती है और पैसा फायदा होने का नहीं लिया जाता है। यह तो डॉक्टर साहब देखते हैं, उसकी फीस है। बोलो, डॉक्टर साहब मुफ्त ही देखेंगे? आखिरकार कम्पाउन्डर की कर्कश जिद के सामने हारकर उसे फिर से तीन सौ रुपये बतौर फीस देने ही पड़े। डॉक्टर ने फिर जाँच लिखी, रिपोर्ट देखकर दवा लिखी, कम्पाउन्डर ने पुर्जा देखकर दवा खाने की विधि समझाई और फिर पन्द्रह दिनों के बाद आने को कहा।

यह सिलसिला चलता रहा। माधो पूरी तत्परता के साथ उनके इलाज में लगा था। डॉक्टर के यहाँ जाने में, दवा-दारू में, सेवा-सुश्रूषा में अपनी तरफ से किसी प्रकार की किफायत नहीं होने दे रहा था। डॉक्टर भी पूरी तत्परता से बार-बार देख रहे थे। हर बार जाँच कराते थे तथा पिछली बार से ज्यादा महँगी और ज्यादा दवाइयाँ लिखते थे। नस-नाड़ी मजबूत हो, इसलिए मालिश करते-करते देह पर जमड़ी की मोटी परत बैठ गयी थी। मगर समझ में नहीं आ रहा था कि बाबूजी की हालत दिन-ब-दिन खराब ही क्यों होती जा रही है! पहले तो वे लाठी के सहारे थोड़ा-बहुत चल-फिर भी कर लेते थे, मगर अब तो बिछावन पर ही पैखाना-पेशाब करने लगे थे। गाँव-घर के सारे लोग बाहर ले जाकर दूसरे डॉक्टर से दिखाने के लिए कहने लगे थे।

कई महीने तक लगातार इलाज के बाद भी जब उनकी हालत और ज्यादा बिगड़ती ही चली गयी तो माधो ने डॉक्टर को बताया – ‘‘सर, इनकी हालत में तो सुधार नहीं हो रहा है।’’ डॉक्टर ने कहा – ‘‘देखो, बीमारी कन्ट्रोल नहीं हो रही है। बीमारी बहुत बढ़ गयी है। बड़े हॉस्पिटल में ले जाना पड़ेगा। तुम इन्हें पटना में ‘लक्ष्मी हॉस्पिटल’ में ले जाओ।’ और, कम्पाउन्डर ने हॉस्पिटल का छपा हुआ रूट मैप देकर पहुँचने का रास्ता समझा दिया।

माधो का तो कलेजा ही बैठ गया। डॉक्टर के कमरे से बाहर निकलकर वह बेंच पर इस तरह बैठा मानो सिरिंज लगाकर किसी ने उसकी जान खींच ली हो – खुली हुई अपलक आँखें, निश्चल और बेसुध। आज वह अपने बाबूजी को ठीक करने के लिए कुछ नहीं कर पा रहा है। कितना प्यार करते हैं बाबूजी उसे, शायद माँ से भी ज्यादा। जब वह छोटा था तो वह उनके कभी न थकने वाले कंधों पर बैठकर किस्सा सुनते हुए घूमा करता था। पास-पड़ोस में कोई मेला हो, तमाशा हो, हाथ की तंगी रहने पर भी, उसे वहाँ घुमाना कभी नहीं छोड़ते थे। मेले में खिलौने खरीदते हुए और दूकान पर बैठाकर जलेबियाँ खिलाते हुए उनके हृदय की तृप्ति आँखों से छलकती थी। दो साल पहले जब उसे तीन-चार दिनों तक तेज बुखार हो गया था तो वे दिन-रात उसी के पास बैठे रहे अपनी गोद में उसका सिर रखकर। माँ तो कहती है कि जब तक वह ठीक नहीं हो गया, वे उठे ही नहीं, खाना-पीना तो दूर, पैखाना-पेशाब के लिए भी नहीं।

कितना विवश और असहाय महसूस कर रहा है वह! ओफ! कोई होता जो उनकी देह को सहलाकर कहता – ‘‘ ठीक हो जा!’’ और बाबूजी ठीक हो जाते! जहाँ-जहाँ जिसने बताया, उन ओझा-गुनियों के पास भी गया वह। जो उपाय, टोटके, तंत्र-मंत्र बताया, वह सब भी किया। कितने सारे रुपये इस पर फूँक डाले! मगर परिणाम वही ढ़ाक के साढ़े तीन पात!

क्लिनिक खाली हो गया था। बाबूजी के निश्चल शरीर पर जड़ी हुई सचल आँखें माधो को पढ़ने का प्रयास कर रही थीं।

कम्पाउन्डर ने उसे टोका। उसने बाबूजी की ओर देखा। गहरी साँस लेकर मानो छाती में ताकत जमा की। उठकर खड़ा हुआ और बाबूजी को रिक्शे पर लादकर घर के लिए चला।

माँ तो जैसे गुम हो गई है। कुछ बोलती ही नहीं। पूछो, तब भी नहीं। पटना ले जाने के लिए पैसे चाहिए। वह भी एक मुश्त। पता नहीं कितना खर्च हो! दरवाजे पर एक गाय थी। घर में दैनिक आय का स्त्रोत भी वही थी। वह तो दवा-दारू में पहले ही बिक चुकी थी। अब तो जमीन का एक छोटा-सा टुकड़ा ही आसरा था। परन्तु यहाँ तो एक मुश्त पैसों की जरूरत है। वह जमीन को बेचे बिना नहीं हो सकता है। और, माँ है कि कुछ बोलने का नाम ही नहीं लेती है। जमीन बेचने की चर्चा करने पर निश्चल पड़े बाबूजी की आँखें सजल हो जाती हैं। लेकिन दूसरा उपाय भी तो नहीं है। बाबूजी की निःशब्द व्यथा और माँ के उदास असमर्थन के बावजूद माधो को जमीन बेच देने के सिवा और कोई दूसरा उपाय नहीं सूझा। जल्दी बेचने की गरज में उसे वह औने-पौने दाम में ही बेच देनी पड़ी।

माधो अब चिकित्सा की नेटवर्किंग के अगले पायदान पर पैर रखने चला।

जीप पर बाबूजी को लादकर जब वह ‘लक्ष्मी हास्पीटल’ पहुँचा तो वहाँ का लक-दक देखकर ही भौंचक रह गया। गेट पर वर्दी पहने मूँछों वाले बंदूकधारी गार्ड्स, बगुले के पाँख की तरह सफेद कपड़े पहनकर तितलियों की तरह आती-जाती नर्सें, आइने की तरह चमचमाती हुई फर्श, और सबसे अधिक तो कोने में विराजमान नाना बल्बों और पुष्प मालाओं से सुसज्जित माँ लक्ष्मी की वह प्रतिमा, जिनके हाथों से, पता नहीं कैसे, क्षण-क्षण सोने के सिक्के झर रहे थे और जो पूरे वातावरण में गरिमामयी दिव्यता का आभास भर रहा था।

तत्परता के साथ परिचारकों ने बाबूजी को व्हील चेयर पर बैठाकर चिकित्सा-कक्ष में पहुँचा दिया। माधो को स्वयं न तो उतारना पड़ा, न चढ़ाना पड़ा। सारे कार्यों के लिए तत्पर परिचारक मौजूद थे। उसे केवल काउन्टर पर एडमिट कराने के लिए पैसे जमा करने थे। काउन्टर पर बैठी परी-सी लड़की के पास दस हजार रुपये जमा करने का पुर्जा लेकर जब तक वह बाबूजी के पास पहुँचा, उसके पहले ही डॉक्टर उनकी जाँच में लग गया था। डॉक्टर ने उससे भी कुछ बातें पूछीं और नर्स ने दवाओं का पुर्जा थमा दिया। वह डॉक्टर-नर्स की लगन और सेवा-भाव से बहुत प्रभावित हुआ। इतना दिल लगाकर देखते हैं, तभी तो मरीज ठीक होता है। उसे लगा कि बाबूजी अब ठीक हो जाएँगे।

दवा की दूकान भी हॉस्पिटल में ही थी। कहीं किसी बात के लिए बाहर नहीं जाना था। वह सोच रहा था कि किस तरह सारी सुविधाओं का खयाल रखा गया है!

जब बत्तीस सौ की दवाइयाँ लेकर वह लौट रहा था तो वह फिर सोच रहा था कि महँगी दवाइयाँ पहले भी डॉक्टर लिखते थे, मगर वे इतनी महँगी नहीं थीं। डॉक्टर ने शायद तुरंत ठीक करने के लिए ज्यादा पावर की दवाइयाँ लिखी हैं। तुरंत तो ठीक कर ही देते होंगे, तभी तो जहाँ दूसरे डॉक्टर दो-तीन सौ रुपये फीस लेते हैं, वहाँ यहाँ दस हजार रुपये फीस है। भोले माधो को लगा कि बाबूजी एक-दो दिनों में चलने-फिरने लगेंगे। चलो, खर्च भी करके बाबूजी ठीक तो हो जाएँगे।

रात में सारी चिंता और फिक्र थकान और नींद के सामने हार गई थी। वेटिंग हॉल में ही, जिसको जहाँ जगह मिली, रात में लोग सो गए थे। माधो को कहीं जगह नहीं मिली तो फर्श पर ही लुढ़क गया था। भोर के समय बड़ा सुन्दर सपना आ रहा था। ऊपर से पंखों वाला एक देवदूत उतरकर उसके बाबूजी के बिस्तर के पास आया और उसने उन्हें ऊपर से नीचे तक एक बार छू दिया। उसके छूते ही बाबूजी उठकर बैठ गए! ठीक हो गए, बिल्कुल ठीक! उन्हें चंगा देखकर माँ की आँखों के कोने खुशी के आँसुओं से भर गए हैं। गाँव-टोले के लोग उन्हें देखने आ रहे हैं और उसके पुत्रत्व की प्रशंसा कर रहे हैं कि बेटा हो तो माधो जैसा! निकला तो बाबू को ठीक करा कर ही लौटा। गर्व की अनुभूति से भरा हुआ वह आगंतुकों को बैठा रहा है, कसेली-बीड़ी दे रहा है, इलाज की कहानी सुना रहा है और विदा कर रहा है।

तभी अपना नाम पुकारा जाते सुनकर वह सपनों के तृप्तिलोक से हॉस्पिटल के फर्श पर आ गया और हड़बड़ाकर उठ बैठा। जल्दी से उसने अपना हाथ उठाकर कहा – ‘‘हाँ, मैं ही हूँ माधो। क्या बात है?’’ गार्ड ने बताया कि डॉक्टर साहब ने बुलाया है।

गार्ड के पीछे-पीछे ही भागते हुए जब वह डॉक्टर के रूम में पहुँचा तो डॉक्टर ने पहले तो उसे गद्दीदार कुर्सी पर बैठाया, फिर उसका ऊपर से नीचे तक कई बार मुआयना किया। फिर कुछ सोचकर कहा – ‘‘देखो, तुम्हारे पेशेन्ट की हालत खराब हो रही है। उन्हें चेस्ट में इन्फेक्शन हो गया है। आई0 सी0 यू0 में भर्ती करवाना होगा।’’

‘‘ये एकाएक छाती में क्या हो गया? आज तक कभी उनको खाँसी भी नहीं हुई। केवल चल-फिर नहीं सकते थे। छाती में कैसे इन्फेक्शन हो गया?’’ निजी अस्पतालों की चालों से अनभिज्ञ माधो को इस नई बीमारी के अनपेक्षित जन्म से घोर आश्चर्य हो रहा था। लेकिन उसकी सारी जिज्ञासाओं के बदले डॉक्टर ने बड़े इत्मिनान से केवल इतना कहा कि ‘‘हो जाता है कभी-कभी इस तरह के मरीजों को। काउन्टर पर जाकर आई0 सी0 यू0 में भर्ती कराने के लिए बात कर लो।’’

भारी मन से काउन्टर की और जाते हुए वह सोच रहा था कि अब यह क्या हो गया? कहाँ चंद मिनट पहले सपने में वह बाबूजी के ठीक होने की खुशियाँ बाँट रहा था और कहाँ रात भर में ही यह नई बीमारी शुरु हो गई! आए थे किस चीज का इलाज करवाने, शुरु हो गया इन्फेक्शन का इलाज। आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास!

काउन्टर पर बैठी लड़की ने आई0 सी0 यू0 में भर्ती करने के बदले पाँच हजार रुपए माँगे तो उसने बताया कि वह इलाज के लिए फीस जमा कर चुका है और सबूत के तौर पर दस हजार रुपए का रसीद भी दिखाया। लेकिन काउन्टर वाली लड़की ने बताया कि अब उसे आई0 सी0 यू0 के लिए पैसे जमा करने हैं। जब वह समझ नहीं सका कि एक ही हॉस्पिटल के इस कमरे में नहीं, उस कमरे में ले जाकर इलाज करने के अलग से पैसे क्यों लगते हैं तो लड़की ने उसे बताया कि आई0 सी0 यू0 में अच्छी तरह इलाज होता है। फिर भी वह नहीं समझ सका कि अच्छी तरह इलाज करने के अलग से पैसे क्यों लगते हैं? वह अच्छी तरह ही तो इलाज करवाने आया है। इस कमरे में रखकर करो या उस कमरे में, यह तो डॉक्टर जाने। उसके लिए अलग से पैसे क्यों? तो क्या अब तक अच्छी तरह इलाज नहीं हो रहा था? उसका मन शंकालु होने लगा। लेकिन जब यही व्यवस्था है और उसे इलाज करवाना है तो पैसे देने ही होंगे। उसने पाँच हजार रुपए और जमा कर दिए।

माधव आई0 सी0 यू0 के बाहर ही बैठा था। वह बाबूजी को देखना चाहता था। बाबूजी भी उसे खोज रहे होंगे। कितनी बार वह उन्हें देखने के लिए भीतर जाने का अनुरोध गार्ड से कर चुका था। परन्तु गार्ड हमेशा ‘शाम में मरीज देखने का समय होता है’ बताकर झिड़क देता था। तभी उसने देखा कि थोड़ा-सा दरवाजा खोलकर एक नर्स हाथ में एक पुर्जा लिए बाहर की तरफ झाँक रही है। वह लपककर बाबूजी का हाल पूछने गया। ‘‘ठीक है। दवा जल्दी ले आइए।’’ कहकर नर्स ने दरवाजा बंद कर लिया। दवा लाने गया तो इकतालीस सौ की दवा हुई। थोड़ी-थेड़ी देर पर और भी कई बार दवाएँ आईं।

प्रतीक्षालय में बैठा माधो समझ नहीं पा रहा था कि ये सब हो क्या रहा है? पहले भी दिखाया था तो डॉक्टर पन्द्रह दिनों पर तीन सौ फीस लेता था। यहाँ तो हर रोज दस-पाँच हजार फीस लगती है, वह भी कितनी लगेगी, यह भी अनिश्चित है। पहले तो पन्द्रह सौ-दो हजार की दवा खरीदता था तो पन्द्रह दिन चलती थी, यहाँ तो हर घंटे दो-चार-पाँच हजार की दवा खरीदनी पड़ती है। आखिर इतनी दवाओं का होता क्या होगा? देखने भी नहीं देते हैं कि किस हाल में हैं। किसी से पूछो तो बताने को राजी नहीं है। उनके साथ क्या हो रहा है, किस हाल में हैं, वह जानने को बेचैन था। परन्तु, किसी गोपनीय पत्र की तरह, अपने बाबूजी की हालत और इलाज के बारे में वह कुछ जान नहीं पा रहा था। अजीब बेचैनी महसूस हो रही थी।

बेंच पर बगल में ही अच्छे कपड़े पहने भद्र की तरह लगनेवाला एक व्यक्ति बैठा था। माधो को इस तरह चिंताग्रस्त और बेचैन देखकर उसने पूछा – ‘‘तुम्हारा कौन भर्ती है यहाँ पर?’’

‘‘बाबूजी।’’, उसने एकशब्दीय जवाब दिया।

‘‘क्या करते हो?’’, उसने फिर पूछा।

‘‘मेहनत-मजदूरी।’’, उसने फिर छोटा-सा जवाब दिया।

‘‘इस हॉस्पिटल में कैसे चले आए?’’

‘‘डॉक्टर साहब ने कहा था।’’, उसने बताया।

कुछ देर की चुप्पी के बाद उस भद्र-से दिखने वाले व्यक्ति ने बिना माँगे सुझाव दिया – ‘‘सुनो, यहाँ इलाज करवाने में नहीं सकोगे। पी0एम0सी0एच0 में चले जाओ। वहाँ पैसा नहीं लगता है।’’

सुनते समय तो उसे बुरा लगा। केवल उसे घूर कर देखा, बोला कुछ नहीं। मगर शाम होते-होते जब उसने, चार हजार की और दवा खरीदने के बाद भी बाबूजी को मशीनों से भरे आई0सी0यू0 में मुँह में ऑक्सीजन लगाए निस्पंद पड़े देखा तो उसका कलेजा बैठ गया। उसे लगने लगा कि एक तो यहाँ का खर्च उसके वश की बात नहीं है और दूसरे बाबूजी की हालत और खराब ही होती जा रही है। उसे उस भद्र-से दिखने वाले व्यक्ति की बिन माँगी सलाह ठीक लगने लगी और उसने बाबूजी को पी0एम0सी0एच0 ही ले जाने का निश्चय किया। आखिर वह राज्य का सबसे बड़ा अस्पताल है, वैसे ही इतना नाम थोड़े होगा! काउन्टर पर जब वह कहने गया कि उसे अपने मरीज को ले जाना है तो वहाँ बैठी लड़की ने कहीं फोन किया फिर उसे बताया कि उसके मरीज की हालत ठीक नहीं है और इस स्थिति में कहीं ले जाना खतरे से खाली नहीं है। उसे अपने रिस्क पर ले जाना होगा।

माधो ने जब उसे बताया कि उसके पास अब पैसे नहीं हैं और वह हॉस्पिटल का पैसा नहीं दे पाएगा तो उस लड़की ने कम्प्यूटर में देखकर बताया कि अभी नाम कटाने के लिए छह हजार आठ सौ रुपए जमा करने होंगे। ‘‘ये किस चीज के पैसे?’’, उसने चौंककर पूछा।

लड़की ने सुमधुर स्वर में डॉक्टर के रूटीन विजिट की फीस, स्पेशलिस्ट डॉक्टर के विजिट की फीस, नर्स की फीस, ऑक्सीजन का चार्ज, पानी चढ़ाने का चार्ज, और विभिन्न प्रकार की जाँच का चार्ज उसे विस्तार से बता दिया। माधव इस तरह के फेर में कभी पड़ा नहीं था। उसे लगा कि अजीब जाल में फँस गया है। अपनी लंगोटी तक देकर भी यदि तुरन्त यहाँ से नहीं भाग गया तो फिर कभी नहीं निकल सकेगा। बददुआएँ बड़बड़ाते हुए उसने पैसे जमा करके अपने बाबूजी को मुक्त कराया। गाँठ में देखा, अब बहुत थोड़े पैसे बच रहे थे। जीवन की सारी पूँजी गँवाकर बदले में और ज्यादा निर्जीव हो गए बाबूजी को लेकर वह बाहर निकल रहा था। पी0एम0सी0एच0 जब वह पहुँचा तो उसे लगा कि जैसे एकाएक पूरा देश बीमार होकर यहीं चला आया है। इतनी भीड़! दुर्गापूजा के मेले में भी इतनी भीड़ नहीं होती है। खैर, काफी देर के बाद उसका नम्बर आया। डॉक्टर ने स्टेथेस्कोप छाती में लगाया, आँखों की पुतलियों को उठाकर देखा, टाँगों और हाथों को ऊपर उठाकर छोड़ दिया, जो बेजान की तरह धप्प से नीचे गिर पड़े और इमरजेंसी में भर्ती कराने को कहकर जाँच कराने के लिए पुर्जा पकड़ा दिया।

कमरे के दरवाजे पर ही एक शरीफ-से दिखने वाले लड़के ने ‘क्या है?’ कहते हुए उसके हाथ से पुर्जा ले लिया और बताया कि ‘‘इतनी जाँच कराने में तो यहाँ की भीड़ में दो दिन लग जाएँगे। फिर यहाँ की एक्सरे मशीन भी खराब है। आप ऐसा कीजिए कि वहाँ एक अच्छा जाँच घर है, वहीं सब टेस्ट करा लीजिए। चलिए, मैं बता देता हूँ।’’ वह लड़का आगे-आगे और माधो पीछे-पीछे चला। उसे लगा कि दुनिया में कुछ अच्छे लोग भी हैं, जो दूसरों के लिए भी सोचते हैं।

जाँच करवा कर आने के बाद पता चला कि कोई बेड ही खाली नहीं है। अनेक रोगी पैसेज में फर्श पर ही पड़े थे और उनका दवा-पानी चालू था। उसने भी पैसेज में ही जगह बनाई और बाबूजी को लिटा दिया और डॉक्टर को जाँच दिखाकर दवा लिखवाने गया। ज्योंही दवा लिखवाकर डॉक्टर के चैम्बर से बाहर निकला, त्योंही सज्जन की तरह पैंट-शर्ट पहने हुए एक व्यक्ति ‘देखें, क्या लिखा है?’ कहते हुए उसके हाथ से पुर्जा लेकर आगे बढ़ने लगा। माधो भी पीछे-पीछे। वह चलते हुए उसे समझाता गया

-‘‘यह पानी है, यह इंजेक्शन है, यह टैबलेट है, यह सीरप है। चार बोतल पानी चढ़ाना है, एक टैबलेट तीन बार खाना है, एक दो बार। इंजेक्शन सुबह-शाम लेना है’’ आदि-आदि। यह सब कहते-बताते पुर्जा लिए वह आदमी और उसके पीछे सिर हिलाते हुए माधव एक दवा की दूकान में पहुँच गए। उस आदमी ने दवा निकालकर दे रहे एक लड़के को पुर्जा पकड़ा दिया।

पन्द्रह सौ बीस रुपए की दवा लेकर वापस आने के बाद उसने नर्स को ढ़ूँढ़ा। नर्स ने इंजेक्शन दे दिया, खानेवाली दवा खाने के लिए बता दिया और, पानी की बोतल लटकाने वाला स्टैंड खाली न रहने के कारण, पानी लगाकर बोतल माधो के हाथ में पकड़ा दी कि तब तक उठाकर रखे रहो, कोई स्टैंड खाली होगा तो उसमें टाँग देना। और, वह पचास रुपए लेकर चली गई। अब स्टैंड की जगह माधो खुद बोतल उठाए खड़ा था और बड़ी-बड़ी देर पर एक-एक बूँद टपकते हुए पानी को देख रहा था। एक ही जगह खड़े-खड़े जब उसके पैर दुखने लगे तो वह दीवाल के सहारे खड़ा हो गया। जब दीवाल के सहारे खड़े-खड़े थक जाता तो सीधा खड़ा हो जाता और सीधे खड़े-खड़े जब थक जाता तो दीवाल का सहारा ले लेता। परंतु अब तो किसी तरह खड़ा नहीं हुआ जा रहा था। पानी था कि खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था। अभी एक चौथाई बोतल भी खाली नहीं हुई थी। नर्स ने कहा था कि खाली स्टैंड ढ़ूँढ़ लेना। जब वह बोतल पकड़े यहीं खड़ा रहेगा तो स्टैंड ढ़ूँढ़ने कैसे जाएगा? दवा भी खिलानी थी। और, बोतल लिए इधर-उधर आ-जा नहीं सकता था। इसी तरह बोतल लिए खड़ा रहा तो न तो स्टैंड ला सकता था, न दवा खिला सकता था और न ही पेशाब करने जा सकता था, जो उसे इस समय काफी जोर से लगा हुआ था। उसे एक और आदमी की जरूरत महसूस हुई। उसे लगा कि माँ भी अगर साथ होती तो काफी सहूलियत होती।

जब खड़ा रहना असंभव ही हो गया तो वह वहीं बैठ गया, बोतल वाला हाथ ऊपर उठाकर। लेकिन हाथ ऊपर उठाकर कितनी देर तक रखा जा सकता है? बारी-बारी से जब दोनों हाथ ऐंठने लगे तो उसने हाथों को थोड़ा और नीचे करके घुटनों पर रख लिया। लेकिन इस तरह भी तो बिना हिले-डुले रात-दिन बैठा नहीं रहा जा सकता। कोई विकल्प तो ढ़ूँढ़ना ही पड़ेगा।

पैसेज में ही एक औरत अपने पति के साथ थी। पति का शायद एक्सीडेंट हो गया था। लहूलुहान था। मरहम पट्टी हो गई थी। बेड नहीं मिलने के कारण माधव के बाबूजी की बगल में बरामदे में ही वह भी पड़ा था। माधो ने उससे स्टैंड खोजने की बात कहकर थोड़ी देर पानी का बोतल पकड़ने को कहा तो वह औरत तैयार हो गई।

सबसे पहले तो वह भागकर बाथरूम में गया। पेशाब उतरने पर बेचैनी कुछ कम हुई। फिर स्टैंड ढ़ूँढ़ने के अभियान में निकला। कई कमरों में तलाशते-तलाशते, बड़ी तपस्या के बाद मिले वरदान की तरह, उसे एक खाली स्टैंड दिख ही गया। उस पर कब्जा दिखाने के प्रतीक स्वरूप उसने उसे कमरे से निकालकर पैसेज में रख दिया और दवा खिलाने के लिए हाथ में लिए गिलास में पानी लाने चला गया। अच्छी तरह हाथ-पैर-मुँह धोकर उसने भी दो गिलास पानी पीया। बड़ा सुकून महसूस हुआ। फिर गिलास में पानी लेकर जब वह स्टैंड लेने आया, तब तक उसे कोई उठाकर ले गया था। काफी खोजबीन के बाद भी जब उसे कोई स्टैंड न मिला तो वह बिना स्टैंड के ही बाबूजी के पास आया।

तब तक वह औरत, जिसे वह पानी वाली बोतल पकड़ा कर गया था, शायद आने में देर हो जाने के कारण, जमीन पर ही बोतल रखकर कहीं चली गई थी। बोतल नीचे रखी जाने के कारण शरीर में पानी न जाकर, बोतल में ही खून आने लगा था और बोतल का पानी लाल होने लगा था। यह देखकर उसके तो प्राण-पखेरू ही उड़ गए। भागकर उसने एक नर्स को ढ़ूँढ़ा, जो उस समय फोन पर किसी से हँस-हँसकर बातें कर रही थी। नर्स को खून निकलने की बात बताने पर उसने इत्मिनान से कहा – ‘चलो, आती हूँ।’ वह फिर दौड़कर बाबूजी के पास आया और बोतल उठाकर खड़ा हो गया। आधे घंटे के बाद ही उधर से किसी दूसरे काम से गुजरती हुई नर्स को वह बाबूजी का कंडीशन दिखा पाया। सारी बातें सुनकर नर्स ने उसे बहुत डाँटा।

न जाने कितनी चिरौरी करने और सौ रुपए देने के बाद कल होकर उसने बेड प्राप्त कर ही लिया। उसी बेड पर, बाबूजी की बगल में, वह खुद भी लेट गया। जेठ की जलती दोपहरी में मीलों सफर तय करने के बाद शाम में शीतल जल से स्नान करने पर राही को जो तृप्ति मिलती है, उसी सुकून का अहसास उसने किया।

दिन में एक लड़का आया। उजली कोट और गले में स्टेथेस्कोप न होता तो वह उसे कतई डॉक्टर न मानता। उसने पुर्जा माँगकर उसपर कुछ लिखा तो उसे विश्वास हुआ कि यह डॉक्टर ही है। जब उसने उससे पूछा कि ‘‘सर, बाबूजी कब तक ठीक हो जाएँगे?’ तो उसने उसकी और बिना किसी भाव के देखा। बोला कुछ भी नहीं। और, फिर अगले रोगी से पुर्जा माँगने लगा। माधव अपेक्षा भरी टकटकी लगाए उसकी और देखता ही रह गया। दोपहर के बाद एक आदमी आया, जिसने बड़ी सहानुभूति के साथ सारा हाल-चाल पूछा, पुर्जा देखा, सारी कहानी सुनी, पता पूछा और उसे अच्छी तरह समझाया – ‘‘देखो, यह तो सरकारी हॉस्पिटल है न! सब काम सरकारी की तरह ही होता है। डॉक्टर सरकारी की तरह देखता है, टेस्ट कराने जाओ तो मालूम होगा कि मशीन खराब है, सुई लगाने के लिए नर्स को खोजो तो आएगी ही नहीं। डॉक्टर के नाम पर कॉलेज में पढ़नेवाले लड़के देखते हैं। यहाँ स्टूडेंट ही पेशेंट देखकर सीखते हैं, बड़े डॉक्टर अपने क्ल्नििक में देखते हैं। बोलो, किसी डॉक्टर ने देखा है? सीखने वाले स्टूडेंट ने ही देखा है न!’’

माधो ने हामी भरी। उसे समझ में आने लगा कि क्यों किसी बुजुर्ग डॉक्टर ने अभी तक बाबूजी को नहीं देखा था। पढ़नेवाले स्टूडेंट सब ही रोगी की दवा लिख-लिखकर सीखते हैं। माधो को लगा कि यहाँ तो मुफ्त में हजामत बनाकर सीखने जैसी बात होती है। यह तो रोगी को ठीक करने के बजाए सीखने-सिखाने की जगह है। सब बड़े-बड़े डॉक्टर यहीं नौकरी करते हैं। यदि वे ठीक से रोगी देख देते तो कोई पैसेवाला आदमी भी उतने महँगे हॉस्पिटल में कभी नहीं जाता। यह सब उसे किसी अव्यक्त साजिश के रूप में लगने लगा।

आनेवाले आदमी ने उसे आगे समझाया – ‘‘महँगे हॉस्पिटल में तुम जा नहीं सकते हो और यहाँ डाक्टर-नर्स ठीक से देखते नहीं हैं। लेकिन कुछ और अच्छे डॉक्टर भी हैं, जिनके यहाँ दिखाने पर किसी प्रकार का खर्च नहीं लगता है। बी0पी0एल0 कार्डधारियों का इलाज कुछ अच्छे डॉक्टर के यहाँ कराने के लिए सरकार खर्च उठाती है। अच्छा डॉक्टर, अच्छा इलाज और सब कुछ फ्री, दवा तक भी! मेरे साथ चलो, बात करवा देता हूँ।’’

उस समय तो माधो ने ‘कुछ दिन यहीं देख लेना चाहिए’ सोचकर अनिच्छा व्यक्त की, लेकिन रात में ही अपने अस्वीकार पर भारी पछतावा हुआ। हुआ यूँ कि दो बजे रात में बाबूजी की साँस फूलने लगी। लक्ष्मी हॉस्पिटल में जाने के बाद यह नया कष्ट शुरु हो गया था। कुछ देर तक छाती-पीठ सहलाने से काम न चलने पर वह नर्स को बुलाने गया। दरवाजा भीतर से बंद था। थपथपाने पर कोई आवाज नहीं आई। थोड़ा और जोर से थपथपाने पर भीतर से कुछ बुदबुदाने की आवाज आई, मगर दरवाजा नहीं खुला। माधो ने इस बार अधिक जोर से थपथपाया तो भीतर से खीझती हुई कर्कश आवाज आई – ‘‘कौन है? क्या बात है?’’ बाहर से ही माधो ने जब बताया तो उसी नाराजगी भरी आवाज ने कहा – ‘‘चलो, आती हूँ।’’ मगर बड़ी देर के बाद भी नर्स नहीं आई। बाबूजी की तकलीफ बढ़ती ही जा रही थी। नर्स की बोली और व्यवहार से माधो को उसके पास जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। लेकिन जब वे जोर-जोर से हाँफने लगे तो माधो हिम्मत जुटाकर फिर नर्स को बुलाने गया। कई बार थपथपाने के बाद ‘‘क्या है? क्यों हल्ला कर रहा है?’’ चिल्लाते हुए नर्स इस झटके के साथ किवाड़ खोलकर बाहर निकली कि उसे बताने के बजाए माधो डरकर दो कदम पीछे हट गया। इसके बाद वह आधे घंटे तक इतना बोली-बिगड़ी और उसने इतनी निर्दयता के साथ सूई भोंक दी कि माधो को दिन में आए उस आदमी की बात न मानने पर पछतावा होने लगा। वह उस आदमी से मिलना चाह रहा था।

गाँव से आए भोले-भाले माधो को अस्पताल में अपने-आप विकसित हो गए इस व्यवसाय-तंत्र का तो पता ही नहीं था। जाँच कराने में सहायता करने वाले जिस लड़के को, दवा की दूकान दिखाने वाले जिस सज्जन को और डॉक्टर का पता बतानेवाले जिस आदमी को वह देवदूत समझ रहा था, वास्तव में वे सारे अपने-अपने धंधे के एजेंट थे, जो अस्पताल के परिसर में ही दिन भर घूम-घूमकर भोले-भाले मरीजो को बहला-फुसलाकर ले जाने का धंधा करते थे, जिसके लिए उन्हें कमीशन मिलता था। अस्पताल की निःशुल्क व्यवस्था के समानांतर विकसित यह कमीशन-तंत्र प्रशासन की ऐच्छिक अनदेखी के कारण खूब फल-फूल रहा था। माधो-जैसे लोग ही उनके लक्ष्य होते थे, जो आसानी से उनके जाल में फँसते भी थे और ऊपर से उन्हें दुआएँ भी देते थे।

दोपहर में उसी आदमी को एक मरीज के परिचारक से बात करते देखकर माधो लगा कि भगवान ने उसकी मुराद पूरी कर दी हो। वह नजदीक में जाकर इस तरह खड़ा हुआ मानो वह उसे दुबारा न खो दे। वह आदमी उस मरीज के परिचारक से भी अस्पताल की खामियाँ और अपने डॉक्टर का गुणगान कर रहा था। उसने जब माधो को देखा तो दूसरी तरफ बात करने के लिए ले गया। उस आदमी के साथ माधो जहाँ पहुँचा, वहाँ बाहर ही पीले रंग के बोर्ड पर लाल रंग से लिखा हुआ था – ‘‘यहाँ बी0पी0एल0 कार्डधारियों का मुफ्त इलाज होता है।’’ डॉक्टर ने मरीज को देखा, दवा लिखी और भर्ती होने के लिए कह दिया। यहाँ भर्ती होने के लिए न तो पैसे लगे और न ही बेड खोजना पड़ा। दवा उतनी नहीं थी, जितनी पहले के डॉक्टर लिखते थे। लेकिन उसे अब दवाइयों के पैसे नहीं देने पड़ते थे। उसे सहूलियत महसूस हो रही थी।

तीसरे दिन डॉक्टर ने जब बताया कि ऑपरेशन करना पड़ेगा तो उसका चेहरा फक्क रह गया कि अब ऑपरेशन के लिए पैसे का उपाय कैसे होगा? लेकिन जब डॉक्टर ने यह बताया कि इसके लिए भी उसके पैसे नहीं लगेंगे तो उसे सांत्वना मिली और डॉक्टर के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हुई। उसे लगा कि अब जाकर उसे भगवान के जैसा डॉक्टर मिला है।

बाबूजी के ऑपरेशन के अगले दिन शाम में कंपाउंडर ने माधो को समझाया कि ‘‘तुम भी अपनी जाँच क्यों नहीं करवा लेते हो? यहाँ पर हो ही और कुछ लगना नहीं है तो जाँच करवा लेने में क्या हर्ज है? अरे, आदमी की देह है। अनेक तरह के रोग होते रहते हैं। जाँच में कुछ नहीं निकला तो ठीक ही है और यदि कुछ निकल गया तो तुम अपना भी इलाज करवा लेना।’’

माधो अब तक जिस समाज में जो जीवन जीता आया था, उसमें छोटी-मोटी बीमारी में भी लोग डॉक्टर के पास नहीं जाते हैं। यहाँ तो डॉक्टर ही इलाज एवं जाँच के लिए आमंत्रित कर रहा है। इस कल्याणकारी सुझाव में उसे कोई आपत्ति नहीं दिखी और उसने ‘हाँ’ कर दी। कल सवेरे-सवेरे ही तत्परता के साथ जाँच की सारी प्रक्रिया पूरी कर ली गई और शाम में डॉक्टर साहब ने उसे बुलाकर बताया कि उसके अपेंडिक्स में हल्की-सी सूजन है और अगर समय रहते उसका आपरेशन नहीं करवा लिया गया तो वह पक जाएगा और तब एकाएक जीवन संकट में पड़ जा सकता है।

अब तक अज्ञातवास कर रहे अपने रोग के इस आकस्मिक भयावह परिणाम को जानकर उसे झुरझुरी-सी आ गई। उसे याद आया कि कई बार उसके पेट में दर्द हुआ था, जिसमें उसने गाँव के कंपाउंडर से दवा ली थी। लेकिन कंपाउंडर साहब इतने बड़े डॉक्टर थोड़े ही हैं कि देखते ही रोग को पहचान लेते!

शाम में डॉक्टर के कंपाउंडर ने उसे फिर समझाया कि ‘‘ये तो अच्छा ही हुआ कि तुमने जाँच करवा ली और बीमारी पकड़ में आ गई। नहीं तो गाँव में रहने पर यह पक जाता तो क्या करते? यह ऐसी बीमारी है कि पक जाने पर यदि तुरंत ऑपरेशन नहीं हुआ तो फिर उसे कोई नहीं बचा सकता है। उस समय हजारों रुपए खर्च हो जाते हैं। तुम कल ही ऑपरेशन करवा लो।’’ और, उसने कई सारे ऐसे उदाहरण सुनाए, जिसमें देर हो जाने के कारण पेशेंट मर गया था।

माधव ने ईश्वर के साथ ही भगवान-रूप डॉक्टर का भी हृदय से धन्यवाद करते हुए हामी भरी और कल होकर उसे भी, ऑपरेशन करके, बाबूजी की बगल वाले बेड पर लिटा दिया गया। इतना सब कुछ होने पर भी बाबूजी की हालत में कोई सुधार नहीं दिखाई दे रहा था। फिर भी डॉक्टर ने दो दिनों के बाद उसे बुलाया। अंग्रेजी में लिखे कुछ कागजों पर दस्तखत करवाए, दवा का पुर्जा दिया और कहा – अब तुम दोनों घर जा सकते हो। इस पुर्जा वाली दवा तुम खाना और इस पुर्जा वाली दवा बाबूजी को खिलाना और तीन महीने के बाद लेकर आना।’’

माधो को पता भी नहीं है कि गाँव के कंपाउंडर ने शहर के डॉक्टर के यहाँ और शहर के डॉक्टर ने पटना के नर्सिंग होम में उसे क्यों भेजा। उस लड़के ने जाँच में उसकी सहायता क्यों की, उस आदमी ने उसे दवा की दूकान पर क्यों पहुँचाया, सहानुभूति दिखाने वाले आदमी ने उसे डॉक्टर के पास क्यों पहुँचाया, डॉक्टर के कंपाउंडर ने उसे भी जाँच कराने और ऑपरेशन कराने के लिए प्रेरित क्यों किया और डॉक्टर ने बाप-बेटे – दोनों का ऑपरेशन क्यों किया? माधो को पता नहीं है कि लकवा के इलाज के लिए डॉक्टर ने बाबूजी के पेट का ऑपरेशन क्यों किया? और, उसे यह पता कभी नहीं चल पाएगा कि उसे अपेंडिक्स के ऑपरेशन की जरूरत थी भी या नहीं।

माधो की गाय और जमीन बिक गई थी। पेट चलाने के लिए अब उसे मजदूरी करनी पड़ती है। आजकल गाँव में सड़क पर मिट्टी भरने का काम चल रहा है। ऑपरेशन के बाद उसकी भी तबीयत ठीक नहीं रहती है। फिर भी सवेरे उठकर ही वह मिट्टी भरने के काम पर चला जाता है। बाबूजी अब भी वैसे ही हैं। अपने निश्चल शरीर पर जड़ी हुई सचल आँखों से जब वे माधो की ओर एकटक देखते हैं तो, उनकी विवशता और अपनी असमर्थता के कारण, उसकी आँखें छलछला जाती हैं। लेकिन, वह क्या करे!

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Dr. Anil Kumar Roy
Dr. Anil Kumar Roy

कार्यकर्ता और लेखक
डॉ. अनिल कुमार रॉय सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों के लिए अथक संघर्षरत हैं। उनके लेखन में हाशिए पर पड़े लोगों के संघर्ष और एक न्यायसंगत समाज की आकांक्षा की गहरी प्रतिबद्धता परिलक्षित होती है।

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