कवि-कुल शिरोमणि ‘कनिष्ठिकाधिष्ठित’ कालिदास संस्कृत वाङ्ग्मय के ही नहीं, भारतीय मनीषा के भी सर्वश्रेष्ठ निदर्शन हैं। वर्षा-काल में अनायास फूट पड़े निर्झरों की भाँति हृदय के अंतस्तल से उमड़कर बहते हुए उनके काव्य ने विश्व भर के काव्य रसिकों को संतृप्त किया है।
प्रकृति और नारी इस कवि-गुरु के दो ऐसे प्रधान प्रिय क्षेत्र रहे हैं, जिनमें इनकी काव्य मनीषा ने सर्वाधिक विचरण किया है। परन्तु अन्य सामान्य कवियों की भाँति उन्होंने प्रकृति का केवल आलंबन, उद्दीपन या आलंकारिक रूप में और नारी का केवल नख-शिख वर्णन या संयोग-वियोग के रूप में ही चित्रण नहीं किया है। कवि का प्रतिभा-कौशल तो वहाँ दिखायी पड़ता है, जहाँ उन्होंने प्रकृति और नारी में अन्योन्याश्रय संबंध स्थापित कर दिया है। कभी तो प्रकृति की सहचरी नारी और कभी नारी की सहचरी प्रकृति – ऐसे अंतर्संबंधों से कालिदास-काव्य अटा-पटा है। कहीं उपमा, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों के रूप में प्रकृति और नारी का सादृश्य दिखायी पड़ता है, कहीं वही प्रकृति उद्दीपन रूप में दिखायी पड़ती है तो कहीं शांति प्रदायिनी रूप में। कहीं प्रकृति नारी की सहायिका होती है, कहीं प्रकृति में नारी दिखायी पड़ती है, कहीं नारी में प्रकृति के दर्शन होते हैं।
कालिदास-रचित मान्य सात ग्रंथों में दो – ‘ऋतुसंहार’ और ‘मेघदूत’ विशुद्धतः प्रकृति-चित्रण और प्रकृत्यानुसार मानवीय संवेदनाओं का विशद वर्णन है। ‘ऋतुसंहार’ में, जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, भारत में पायी जानेवाली छहो ऋतुओं का केवल मनोहारी वर्णन ही नहीं है, वरन् वह मानवीय, विशेषकर नारी की मनोदशा एवं व्यवहारों पर पड़नेवाले प्रभाव के रूप में प्रस्तुत है। कवि की कीर्ति के सबसे प्रकाशवान स्तंभ ‘मेघदूत’-जैसा प्रकृतिजन्य मानवीय संवेदना के उद्दीपन का सुरम्य वर्णन अन्यत्र दुर्लभ है। भावना की पराकाष्ठा पर पहुँचकर निर्जीव मेघों को दूत बना लेना और उसके साथ स्वयं यक्ष एवं यक्ष-प्रिया का सजीव तादात्म्य स्थापित कर लेना विश्व साहित्य की संभवतः अपूर्व घटना है। इसके बारे में प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान विल्सन की मान्यता है कि ‘‘मेरा अपना मत है कि हमारे पास क्या तो श्रेण्य (classical) कविता और क्या आधुनिक (modern) कविता – कहीं भी ऐसे नमूने नहीं मिलेंगे, जिनमें इससे अधिक कोमलता अथवा सुकुमार भावना है।’‘1
आलंकारिक तादात्म्य
उपमा, उत्प्रेक्षा आदि आलंकारिक रूप में कवि ने प्रकृति और नारी का तादात्म्य बहुतायत से प्रस्तुत किया है। ‘मेघदूत’ में वर्षाकाल के मेघों एवं गंगा से युक्त कैलाश का वर्णन करते हुए यक्ष मेघ से कहता है कि जिस प्रकार खिसकी हुई सफेद साड़ी वाली कामिनी प्रिय के अंक में अवस्थित होती है, उसी प्रकार कैलाश के ऊपर श्वेत वस्त्र-सी गंगा गिरी हुई है। कैलाश-स्थित अलका मेघों को उसी प्रकार धारण करती है, जिस प्रकार कामिनी अपने ऊपर मोती गुँथे बालों को धारण करती है-
तस्योत्संगे प्रणयिन इव स्त्रस्तगंगादुकूलां
न त्वं दृष्ट्वा न पुनरलकां ज्ञास्यसे कामचारिन्।
या वः काले वहति सलिलोद्गारमुच्चैर्विमाना
मुक्ताजालग्रथितमलकं कामिनी याभ्रवृन्दम्।। 2
उत्तरमेघ में यक्ष अपनी विरहिनी प्रिया को प्रिय-वियुक्त चकवी तथा पाले की मार से बर्बाद कमलिनी की तरह कहता है –
तां जानीथाः परिमितकथां जीवितं मे द्वितीयं
दूरीभूते मयि सहचरे चक्रवाकीमिवैकाम्।
गाढ़ोत्कण्ठां गुरुषु दिवसेष्वेषु गच्छत्सुबालां
जातां मन्ये शिशिरमथितां पद्मिनीं वाऽन्यरूपाम्।। 3
शकुंतला के ओठों की लालिमा नव पल्लव की भाँति है, भुजाएँ मसृण डण्ठल की तरह हैं तथा उसके पूरे व्यक्तित्व में फूलों की भाँति आकर्षण है –
अधरः किसलयरागः कोमलविटपानुकारिणौबाहू।
कुसुममिव लोभनीयं यौवनमंगेषु सन्नद्धम।। 4
शकुन्तला का वन की लताओं और पादपों से इतना घनिष्ठ संबंध है कि वे एक दूसरे के मनोभावों को भी समझ लेते हैं। वाटिका में भ्रमण करती हुई शकुन्तला को प्रतीत होता है कि यह मौलसिरी का पौधा अपनी पल्लवरूपी उँगलियों से उसे जल्दी करने के लिए कह रहा है। 5
उद्दीपक-संबंधः
नारी-मनोभाव के उद्दीपक रूप में प्रकृति की अति प्रचलित परंपरा की प्रचुर प्रस्तुति कालिदास के काव्य में हुई है। ‘ऋतुसंहार’, जिसमें षड्ऋतुओं का वर्णन हुआ है, कामिनियों के चित्त पर पड़नेवाले प्रकृति के प्रभावों से भरा पड़ा है। वर्षाकाल में विरह-पीड़ित अश्रुपूरित कमलनयनाएँ उसी प्रकार श्रृंगार से वियुक्त हो जाती हैं, जिस प्रकार पीले पत्ते वृक्षों से –
विलोचनेन्दीवरवारिबिन्दुभि-
र्निषिक्तबिम्बाधरचारुपल्लवाः।
निरस्तमाल्याभरणानुलेपनाः
स्थिता निराषाः प्रमदाः प्रवासिनाम्।। 6
‘ऋतुसंहार’ की हेमंतऋतु पूरे सर्ग में नायिकाओं को पीड़ित-आनंदित करती रही है। आश्रम की वाटिका में सखियों के साथ पादप-सिंचन करती हुई शकुन्तला मनोरम प्रकृति के सान्निध्य में अनागत प्रणय की भावना से भर जाती है। इसी प्रकार ‘मेघदूत’, ‘कुमारसंभव’, ‘रघुवंश’ आदि अनेक प्रसंगों से भरे पड़े हैं, जिनमें प्रकृति के सुन्दर साहचर्य ने कामिनियों के मन में प्रणय का संचार किया है।
शांतिदायक संबंधः
कालिदास के काव्य में प्रकृति केवल उद्दीपक के रूप में ही नहीं, वरन् नारियों की पीड़ा कम करने वाले के रूप में भी आया है। मेघदूत में नखक्षत से पीड़ित नायिकाएँ वर्षा की प्रथम बँदों से सुख प्राप्त करती हैं –
नखपदसुखान्प्राप्य वर्षाग्रबिन्दु। 7
अंग-सादृश्य में प्रकृतिः
प्राकृतिक अवयवों के साथ नारी-अंगों की सादृश्य स्थापना में कालिदास की चित्तवृत्ति खूब रमी है। पके बिम्ब-फल के साथ रक्तिम ओठों का सादृश्य अनेकत्र उपस्थित हुआ है –
- नीवीबन्धोच्छ्वसितषिथिलं यत्र बिम्बाधराणां। 8
- उमामुखेबिम्बफलाधरोष्ठे 9 आदि
यक्ष-प्रिया के अतुलनीय सौन्दर्य का वर्णन करते हुए शरीर की समता प्रियंगु लताओं से, नयनों की भयभीत हिरनी के नेत्रों से, मुख-शोभा की चाँद से, सुचिक्कण बालों की मयूरपंख से और भ्रूभंगों की जल-तरंगों से समता स्थापित की गयी है। 10
प्रकृति और नारी की एकात्मकताः
नगर के कोलाहल से दूर प्रकृति की सुरम्य गोद में पली शकुन्तला जब कण्व के आश्रम से विदा होने को होती है तो प्रकृति ही उसका श्रृंगार करती है। किसी वृक्ष ने चन्द्रमा के समान उज्जवल और मांगलिक रेशमी वस्त्र दिया, किसी ने महावर। इस तरह नारी-सौंदर्य के साथ प्रकृति की एकात्मकता अन्यत्र दुर्लभ है।
केवल शरीर-सज्जा ही नहीं, वरन् भावात्मक एकात्मकता के भी दर्शन ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ के चतुर्थ अघ्याय में होते हैं। विदा होती शकुन्तला को कोकिलाएँ कुहुक कर प्रस्थान की आज्ञा प्रदान करती हैं। 11 हिरन-शावक प्रस्थान करती शकुन्तला का रास्ता नहीं छोड़ता 12 तथा हिरनियों ने कुश के ग्रास उगल दिए, भौरों ने नाचना बंद कर दिया और पल्लवों ने आँसू बहाए। 13
इस प्रकार नारी अंग और उसके मनोभावों का सादृश्य और एकात्मकता कालिदास के काव्य में प्राणधारा की तरह व्याप्त है।
संदर्भ :
- ‘मेघदूतम्’, संपादक- डा0 संसारचन्द्र एवं पं0 मोहनदेव पंत, प्रकाशक- मोतीलाल बनारसीदास, 1979
- पूर्वमेघ, 65
- उत्तरमेघ, 23
- ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’, प्रथम अंक, पृ0 74, संपादक- सुबोधचन्द्र पन्त, प्रकाशक- मोतीलाल बनारसीदास, 1970
- वही, पृ0 71
- ‘ऋतुसंहारम्’ संपादक- व्यंकटाचार्य उपाध्याय एवं एम0 आर0 काले, प्रकाशक- मोतीलाल बनारसीदास,1997
- पूर्वमेघ, 37
- उत्तरमेध, 7
- कुमारसंभवम्, 67
- उत्तरमेध, 44
- ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’, चतुर्थ सर्ग, श्लोक – 9
- वही, चतुर्थ सर्ग, श्लोक – 11