ठंड बहुत ज्यादा थी। बैकुंठ दा ने अपने दलान पर अलाव जला रखा था और उनके साथ रघु बाबू भी बैठकर ठंड को परास्त करने का प्रयास कर रहे थे। तभी उधर से दोनों हाथों को रगड़कर अपने को गर्म रखने की कोशिश करते हुए बटुक भाई भी आ गये। आते ही बग़ल से एक ईंट खींचकर उस पर बैठते हुए उन्होंने अपने हाथ-पैर इस तरह फैला लिए मानो जलते हुए अलाव का सारा ताप अपने भीतर उदारतापूर्वक धारण कर लेना चाहते हों। लेकिन सदा प्रसन्न रहने वाले उनके मुखचंद्र पर आज चिंता की छाया पड़ी हुई थी। उनकी इस बदली हुई भाव-भंगिमा को भाँपकर रघु बाबू ने पूछ ही लिया – ‘क्या बटुक भाई, आज कुछ चिंतित लग रहे हैं। कोई बात है क्या?’
जो लोग निजी हितों को कपड़े पर पड़ी धूल की तरह झाड़कर जीते हैं, धर्म पर संकट आया देखकर उनके भी पैर उखड़ जाते हैं। अभी-अभी टीवी देखकर आ रहे बटुक भाई ने भिन्नाकर कहा – ‘क्या कहते हैं रघु बाबू, न जाने कैसा जमाना आ गया है! शिक्षामंत्री ने ‘रामचरित मानस’ को नफरत फैलाने वाला ग्रंथ कह दिया है। बताइए तो ‘रामचरित मानस’ नफरत फैलाने वाला ग्रंथ है? लोकसंग्रह की जितनी उदात्त भावना ‘मानस’ में है, वैसी दुनिया के किसी दूसरे ग्रंथ में नहीं है। राम भगवान होते हुए भी शबरी के जूठे बेर खाते हैं, केवट को गले लगाकर ‘भरत सम भ्राता’ कहते हैं। अन्त्यजों के प्रति सद्भावना का ऐसा दृष्टांत किसी भारतीय साहित्य में उपलब्ध नहीं होता है। सवर्णों के साथ शूद्रों का सामंजस्य बैठाने के लिए ही वाल्मीकीय रामायण का प्रसिद्ध शंबूक प्रकरण ‘मानस’ में नहीं रखा गया है। तुलसी ने तो सवर्णों की ओर से शूद्रों की ओर अपनत्व का हाथ बढ़ाया है। जातीय श्रेष्ठता के अहं से उबलते हुए उनके समकालीन पंडितों को यह स्वीकार नहीं हुआ और उन्होंने तुलसी को अनेक यातनाएँ दीं। अपने स्वजातीय ब्राह्मणों की यातनाओं और तिरस्कार से विचलित होकर उन्होंने जड़ पंडितों से संबंध—विच्छेद की उद्घोषणा तक कर दी कि ‘माँगके खइबो, मसीत को सोइबो’, ‘काहू की बेटी सो बेटा न ब्याहब’ आदि। जिस ग्रंथ के कारण उन्हें ऐसी प्रताड़ना झेलनी पड़ी, उसे नफ़रत फैलाने वाला कहा जा रहा है, वह भी शिक्षा मंत्री के द्वारा! यह तो घोर अनर्थ है!’
बटुक भाई एक ही साँस में अपना सारा ग़ुब्बार निकालकर रख देना चाहते थे। रघु बाबू को सचमुच ठीक-ठीक पता नहीं था। उन्होंने सुना तो था, परंतु पूरा प्रकरण वे नहीं जानते थे। सो उन्होंने पूछ लिया – ‘शिक्षा मंत्री ने क्या कहा है, यह तो बताइए।‘
बटुक भाई ने फिर से कहना शुरू किया – ‘बिहार के शिक्षा मंत्री प्रो. चंद्रशेखर ने बापू सभागार में आयोजित नालंदा विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में अपने भाषण में ‘मनुस्मृति’, रामचरित मानस’ और ‘बंच ऑफ़ थॉट्स’ को नफ़रत फैलाने वाला ग्रंथ कहा है। शिक्षा मंत्री ने बताया कि ‘मनुस्मृति’ में वंचितों और नारियों को शिक्षा से अलग करने की बात कही गयी है। ‘रामचरित मानस’ के उत्तरकांड में कहा गया है ‘पूजहि विप्र सकल गुन हीना। सूद्र न पूजहु वेद प्रवीना।।’ शिक्षामंत्री ने ‘जे बरनाधम तेलि कुम्हारा। स्वपच किरात कोल कलवार।।’ तथा ‘अधम जाति में विद्या पाये। भयहु यथा अहि दूध पिलाए।।’ को भी उद्धृत कर यह साबित करने की कोशिश की कि ‘मानस’में अनुसूचित जाति-जनजाति के लोगों को अधम मानकर शिक्षा से वंचित रखने की बात कही गयी है। उन्होंने यह भी कह दिया कि आज की विचारधारा नागपुर से चलती है।‘
बटुक भाई ‘मानस’ के प्रसिद्ध गायक थे। ‘भव भय भंजन’ हेतु संपूर्ण ‘मानस’-पाठ या सुंदरकांड के पाठ के लिए उन्हें बुलाया जाता था। इससे उनकी आजीविका चलती थी। वे मानस-गायन में इतने प्रवीण थे कि उन्हें अधिकांश पंक्तियाँ कंठस्थ थीं। श्रद्धापूर्वक जिस आजीविका में वे इतने निष्णात हो चुके थे कि उस पर आघात होते हुए देखकर उन्हें तकलीफ़ हो रही थी। मगर रघु बाबू हिन्दी के अवकाशप्राप्त शिक्षक थे। अपने काम-धंधों से फुर्सत पाकर सभा-सोसाइटी में भी हो लेते थे। शहर में अगर किसी अच्छे विषय पर संवाद के आयोजन की सूचना उन्हें प्राप्त हो जाती तो उसमें अवश्य शामिल होने की कोशिश करते। इसलिए उनकी सोच में बटुक भाई की तरह भावनात्मक जड़ता नहीं थी। बोले- ‘तो इस पर हंगामा क्यों है? क्या ‘मनुस्मृति’ में नहीं कहा गया है शूद्र यदि वेद सुन ले तो कान में पिघला हुआ शीशा डाल दो और यदि वह वेद-वाचन करता हो तो उसकी जीभ काट लो। यह बात यदि कोई बोल देता है तो हंगामा करने की क्या बात है?’ बटुक भाई ‘मनुस्मृति’ और ‘बंच ऑफ़ थॉट्स’ की बात नहीं करना चाह रहे थे। इन पुस्तकों की बात तो जगज़ाहिर थी। बोले – ‘लेकिन ‘मानस’ के बारे में ऐसा कहना तो सरासर द्वेष है।’
रघु बाबू ने हँसते हुए पूछा – ‘बटुक भाई, आप कहना क्या चाहते हैं? क्या मानस में ये पंक्तियाँ नहीं हैं?’
बटुक भाई ने थोड़ा हिचकिचाते हुए कहा – ‘हैं तो, लेकिन मंत्री जी ने जिसे उत्तरकांड में कहा है, वह अरण्यकांड में है। फिर मंत्री जी ने पंक्तियाँ भी ठीक से नहीं कहीं।’
रघु बाबू ने बीच में ही बात काटते हुए कहा – ‘इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है कि उत्तरकांड में है या अरण्यकांड में है? इससे आशय थोड़े बदल जाता है?’
बात को आगे बढ़ाते हुए रघु बाबू ने गंभीर होकर जोड़ा – ‘बटुक भाई, ‘रामचारित मानस’ एक साहित्यिक कृति है। साहित्यिक उदात्तता की दृष्टि से वह ‘कनिष्ठिकाधिष्ठित’ है। परंतु कोई भी कृति युग-निरपेक्ष नहीं हो सकती है। धार्मिक या क़ानूनी पुस्तकें व्याकरण की किताब की तरह होती हैं, जो सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक आदि व्यवस्थाओं को सीलबंद करके परिवर्तन की राह को अवरुद्ध करती हैं। परंतु उत्कृष्ट साहित्यिक कृतियों में उन्हीं युगीन सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्क्रृतिक आदि ध्वनियों की उच्छल अभिव्यक्ति होती है। इसी आधार पर ‘रामचारित मानस’ को भी देखना चाहिए। युगीन आवश्यकताओं के अनुरूप उसमें अतीव प्रगतिशीलता है। उसमें शंबूक वध, सीता का परित्याग आदि प्रसंगों का परित्याग किया है और राम, जो भगवान हैं, को शबरी के जूठे बेर खाते हुए तथा केवट को गले लगाते हुए दिखाया गया है। इसके कारण शास्त्रीयता और परंपरा की जड़ता से जकड़े तत्कालीन पंडितों ने तुलसी का तिरस्कार भी किया था। लेकिन तुलसी ने इसकी परवाह नहीं की। हिंदुओं के अछूतपने के धार्मिक-सामाजिक तिरस्कार के कारण बड़ी संख्या में निम्नवर्णीय हिंदू इस्लाम की धार्मिक समानता की और बेतरह आकृष्ट हो रहे थे। उसे रोकना तुलसी ने अपना धार्मिक कर्तव्य समझा और नासमझ पंडितों के तिरस्कार को झेलते हुए भी रामकथा के विभेदकारी प्रचलित प्रसंगों को छोड़ा और उच्च वर्ण के साथ निम्न वर्ण के समन्वय के नये प्रसंगों को सचेत रूप से जोड़ा।
रघु बाबू ने आगे कहा – ‘लेकिन तमाम सचेत प्रयासों के बावजूद तुलसी युगीन प्रभावों से अछूते नहीं थे। तुलसी का युग नारी और निम्न वर्ण के तिरस्कारक युग था। इसलिए तदयुगीन सामाजिक संबंधों का वह सत्य यत्र-तत्र दिख पड़ता है। वास्तव में ये उक्तियाँ आज के राजनीतिक-सामाजिक संबंध को नहीं दर्शाती हैं, बल्कि उस युग के सामाजिक संबंधों को समझने के लिए उपयोग में लायी जानी चाहिए।’
रघु बाबू ने इतनी गंभीरता से बातें कहीं कि थोड़ी देर के लिए मौन पसर गया। बैकुंठ दा अब तक चुपचाप उनकी बातें सुन रहे थे। 32 वर्षों तक कॉलेज में राजनीति शास्त्र पढ़ाने के बाद वे गाँव में आकर रहने लगे थे। अलाव की कम होती आँच पर लकड़ी डालते हुए उन्होंने उन लोगों के संवाद को आगे बढ़ाया – ‘रघु और बटुक, तुमलोगों ने बहुत गंभीर प्रसंग को छेड़ दिया है। रघु ने अभी साहित्य के जिस युगधर्म पर प्रकाश डाला है, वह सारे साहित्यों का सार्वभौम और सार्वकालिक सत्य है। सभी उत्कृष्ट रचनाओं पर वह लागू होता है। लेकिन यहाँ प्रश्न यह सोचने का है कि सैकड़ों या हज़ारों साल पहले कही हुई बात को आज क्यों दुहराया जा रहा है, जबकि उस कालखंड को बीते हुए काफ़ी समय गुजर गया है और अब हम नये आर्थिक-राजनीतिक संबंध में जी रहे हैं तथा सामाजिक संबंध भी बहुत कुछ रूपांतरित हो गए हैं। उसमें भी यह बात किसी राजनीतिक मंच से नहीं, बल्कि अकादमिक मंच से दीक्षांत समारोह में कही जा रही है। दीक्षांत समारोह में इस तरह के जातीय प्रसंगों को छेड़ने की क्या प्रासंगिकता है? इसके साथ यह भी सोचने की बात है कि ‘रामचरित मानस’ की ‘ढोल गँवार शूद्र पशु नारी’ आदि कई पंक्तियों को जमाने से उद्धृत किया जाता रहा है। लेकिन पहले तो कभी इन पंक्तियों को विशेष संदर्भ में उद्धृत करने के लिए न तो मीडिया चीख़ा और न ही न्यायालयों में इसके लिए मुक़दमा दर्ज हुआ। आज ही ऐसा क्यों हो रहा है? शिक्षा मंत्री के भाषण के उस प्रसंग का अभिप्राय और उस पर मचे बवाल का कारण इस प्रश्न के उत्तर में निहित है। इसे समझने का प्रयास करो। तब सारी बातें समझ में आने लगेंगी।’
अलाव में नयी डाली लकड़ी में आग पकड़ चुकी थी और बुझता हुआ अलाव फिर से चिनगारियाँ छिटकाते हुए लहकने लगा था। दोनों ने कहा – ‘दादा, वह क्या है? उसे तो आप ही बता सकते हैं।’
दोनों की इस जिज्ञासा से बैकुंठ बाबू के अनुभव का अहं संतुष्ट हुआ। उन्होंने आगे बताया – ‘कुछ दिन पहले उत्तरप्रदेश के एक मंत्री संजय निषाद ने कह दिया था कि राम दशरथ के नहीं, बल्कि शृंगी ऋषि के पुत्र थे। यह कहकर उस मंत्री ने कौशल्या आदि तीनों माताओं को कुलटा तथा राम आदि चारों भाइयों को अवैध संतान बता दिया था। यह हिंदुओं के आराध्य के अस्तित्व की पृष्ठभूमि पर ही प्रश्नचिह्न था। लेकिन उस बयान पर कोई बवाल नहीं हुआ। उत्तरप्रदेश में मंत्री के बयान की तुलना में बिहार के मंत्री का वक्तव्य बहुत मामूली है, क्योंकि ‘रामचारित मानस’ पर इस तरह के प्रश्न लंबे समय से उठाए जाते रहे हैं और यह न तो ‘भगवान’ की चारित्रिक पृष्ठभूमि को विवादित बनाता है और न ही ‘भगवान’ के अस्तित्व को नकारता है। परंतु इस पर बवाल खड़ा हो गया है।
‘बिहार के शिक्षामंत्री उस राजनीतिक दल के हैं, जो जातीय ध्रुवीकरण के आधार पर बना हुआ है। इसलिए अपने राजनीतिक दल के चुनावी हितों को साधने के लिए वे सैकड़ों-हज़ारों साल पहले कही गयी बातों को याद कराने की कोशिश करते हैं। दीक्षांत समारोह राजनीतिक अभिप्रेरण का मंच नहीं है। परंतु हाथ में आए इस अवसर का राजनीतिक उपयोग करने से नहीं चूकते हैं और अपने मतदाताओं का राजनीतिक ध्रुवीकरण करने की कोशिश करते हैं। इससे यह भी पता चलता है कि सत्ता की राजनीति में सत्ता की प्राप्ति या सत्ता में टिके रहने के ही दाँव -पेंच सदैव चलते हैं। लोकतांत्रिक मूल्य या लोककल्याण, जिसे जनता लोकतंत्र का वास्तविक कर्तव्य समझती है, वह वास्तव में सत्ता की राजनीति का उप उत्पाद (by product) है। इसीलिए शैक्षिक समारोह में जातीय आधार पर राजनीतिक गोलबंदी के उद्देश्य का भाषण दिया गया है।
क्षेत्रीय राजनीतिक दल जातीय आधार पर गठित हैं। उनके राजनीतिक अस्तित्व का पोषण जातीय संवाद को जीवित रखने से होता है। इसीलिए उक्त बातें कहकर शिक्षामंत्री उस जातीय संवाद को जीवित रखने और मज़बूत बनाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन विरोध कर रहे राजनीतिक दल का गठन धार्मिक आधार पर है और उसके राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति धार्मिक संवाद को जीवित और मज़बूत बनाए रखने में है। इसीलिए विपक्ष भी बवाल मचाकर धार्मिक आधार पर उसी राजनीतिक गोलबंदी का प्रयास कर रहा है। इस तरह दोनों राजनीतिक दल इस मामले को तूल देकर अपने-अपने चुनावी हितों की पूर्ति कर रहे हैं। ये राजनीतिक दल बहेलिए की तरह हैं, जो अलग-अलग जाल बिछाकर अलग-अलग केटेगरी की जनता को अपने-अपने जाल में फँसाना चाहते हैं।
‘अगले साल चुनाव होने हैं। केंद्र में सत्ता में बैठे दल के लोग उस चुनाव में सफलता के लिए चुनाव से पहले राममंदिर का निर्माण पूरा करके हिंदू वोटों को साधने की कोशिश कर रहे हैं। उसी तरह विपक्ष के क्षेत्रीय दल भी उस चुनाव में सफलता के लिए जातीयता की भावना को धर्म की भावना से अलग करके उछाल रहे हैं कि उस धार्मिक छतरी के नीचे पिछड़ों और वंचितों का कल्याण नहीं है, बल्कि तिरस्कार है और उन्हें संगठित होकर जातीय हितों की रक्षा करने वाली छतरी के नीचे एकजुट होना चाहिए। इस तरह यह धार्मिक या सांस्कृतिक वक्तव्य नहीं है, बल्कि विशुद्धत: चुनावी राजनीति का वक्तव्य है। इसलिए इस तरह के वक्तव्यों के अभिप्राय को समझदार नागरिक की तरह समझो और जिस समय सत्ता की होड़ में शामिल राजनीतिक दल समाज को भ्रमित और व्यवस्था को भ्रष्ट कर रहे हों, उस समय नागरिक कर्तव्य का निर्धारण करो। इसीसे राजनीतिक चरित्र भी जनमुखी हो सकेगा।’
बैकुंठ दा के स्पष्टीकरण से रघु बाबू और बटुक भाई की दृष्टि साफ़ हो रही थी। फिर भी बटुक भाई ने पूछा – ‘दादा, लोकतंत्र में तो सत्ता का वरण लोकहित के लिए किया जाता है। फिर धर्म और जाति के नाम पर वोट जुटाने का जतन क्यों होता है? लोकहित और राष्ट्रीय-सामाजिक उन्नति की बातें की जानी चाहिए न!’
उसी गंभीरता से बैकुंठ बाबू ने जवाब दिया – ‘हाँ, यह वाजिब सवाल है। होना तो यही चाहिए। लोकतंत्र की अवधारणा इस तरह यह गढ़ी गयी है कि सत्ता और उसकी मशीनरी नागरिक हितों की पूर्ति के लिए होती हैं। परंतु व्यवहार में ऐसा नहीं होता है। राज्य के कर्मचारी सत्ता की इच्छाओं की पूर्ति के लिए होते हैं और सत्ता स्वयं पूँजीपतियों के के हितों के संरक्षण में लगी रहती है। आम नागरिक के कल्याण के हित पूँजीपतियों के हित नहीं होते हैं। जैसे, सार्वजनिक उद्योगों, शिक्षण संस्थाओं या स्वास्थ्य सेवाओं आदि को सुचारू ढंग से चलाया जाए तो शोषणमूलक निजी व्यवस्था का शोषण स्वयं कमजोर हो जाएगा। लेकिन इस व्यवस्था में निजी उद्यमों को विकसित करने के लिए सार्वजनिक उद्यमों को हतोत्साहित किया जाता है। बीएसएनएल को सप्रयास ध्वस्त करके किस प्रकार निजी नेटवर्क प्रदाता को प्रोत्साहित किया गया, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। जो राजनीतिक दल ग़रीबों-वंचितों को ‘सामाजिक न्याय’ दिलाने का आश्वासन परोसकर सत्ता में आता है, वह भी सत्ता में आने के बाद वंचितों के लिए ‘चरवाहा विद्यालय’ खोलता है और समृद्ध लोगों के लिए डीपीएस को जगह देता है। इससे सत्ता के चरित्र को समझा जा सकता है।
‘केंद्र में अभी जो सरकार है, उसने अपने सारे नख-दंत निकाले हुए पूँजीवाद को अश्वमेध के अश्व की तरह बेलगाम छोड़ दिया है। ऐसे में अशिक्षा, बेरोज़गारी, बीमारी, कुपोषण,महँगाई आशिक्षा आदि की चक्की में पिसती हुई जनता का असंतुष्ट होना स्वाभाविक है। इसलिए उसे धर्म, इतिहास, पड़ोसी राज्यों के मुद्दे आदि अनावश्यक और भावनात्मक विषयों में उलझा दिया गया है कि उसे वास्तविक पीड़ाओं की सुध ही न रहे। इससे उसके पक्ष में वोटों का ध्रुवीकरण भी हुआ। लेकिन विपक्ष में खड़े होकर इस तरह का वक्तव्य देने वाले राजनीतिक दलों के पास भी भविष्य का कोई रोडमैप नहीं है। बल्कि यों कहें कि रोडमैप इसलिए नहीं है, क्योंकि वे भी पूँजीवादी राजनीतिक दल ही हैं। उन्हें भी कामोवेश वही करना है, जो केंद्र की सत्ता कर रही है। इसलिए दूसरे राजनीतिक दल भी केंद्र की देखा-देखी उसी तरह जाति की राजनीति कर रहे हैं और इतिहास की गवाही लेकर जातीय ध्रुवीकरण की चेष्टा कर रहे हैं। शिक्षामंत्री का वर्तमान वक्तव्य केंद्र के धार्मिक ध्रुवीकरण के विरुद्ध प्रांतीय स्तर पर जातीय ध्रुवीकरण का प्रयास है।
‘लेकिन यह समझना चाहिए कि धर्म की छतरी ज़्यादा बड़ी होती है और उसकी भावनात्मक जड़ें भी ज़्यादा गहरी होती हैं। केंद्र में काबिज दल उस अखाड़े का अकेला पहलवान है। उसे उसके ही अखाड़े पर नहीं पछाड़ा जा सकता है। लेकिन जन समस्याओं के मुद्दे पर वह स्वप्न परोसने के सिवा और कुछ नहीं कर रही है। इसलिए उसके विरोध में खड़े राजनीतिक दलों को जन समस्याओं के मुद्दों को खड़ा करना चाहिए।’
बैकुंठ दा चुप हो गए थे। रघु बाबू और बटुक भाई ने गहरी साँस ली। सिर घुमाकर बाहर की तरफ़ देखा। घने कुहासे की चादर ओढ़कर अँधेरा ठहर गया था। ‘बहुत जानने को मिला। फिर मिलते हैं दादा।’ कहकर दोनों उठ खड़े हुए। लालटेन की रोशनी से दूर होते ही दोनों घने अंधेरे में विलीन हो गए।