शिक्षा वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा जानकारी, समझ और विश्लेषण-क्षमता का विकास होता है। प्रत्यक्षतः प्रतीत तो यह होता है कि इस प्रक्रिया के द्वारा एक व्यक्ति मात्र लाभान्वित होता है। परन्तु, जिस प्रकार पुत्र के सम्मान और धन का लाभ पूरे परिवार को मिलता है, उसी प्रकार व्यक्ति की सुशिक्षा और सुसंस्कार का प्रभाव समाज और राष्ट्र पर पड़ता है। इस प्रकार शैक्षिक प्रक्रिया व्यक्तिगत ही नहीं, वरन सामाजिक और, वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में, राष्ट्रीय विकास एवं पहचान का मुद्दा बनता है। यही कारण है कि शिक्षा प्रत्येक राष्ट्र की योजनाओं का एक प्रमुख भाग होती है।
शिक्षा-प्रक्रिया में एक बात बहुत गौर करने की है, लेकिन बराबर उसे नजरअंदाज किया जाता है। वह है कि शिक्षा भू-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य के अनुसार सदैव सामाजिक एवं राष्ट्रीय आवश्यकताओं के पूर्त्यर्थ होती है। ऐसा ही हमेशा से रहा है, तब भी जब समाज उसे नियंत्रित करता था और अब भी, जब राज्य उसे नियंत्रित करता है। भू-सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य की भिन्नता के अनुसार आवश्यकता का संदर्भ अलग-अलग हो जाता है और, इसके साथ ही, शैक्षिक मसले भी अलग-अलग हो जाते हैं तथा उन मसलों को हल करने का तरीका भी अलग-अलग हो जाता है। विटामिन बी की कमी झेल रहे व्यक्ति के स्वास्थ्य में विटामिन डी के ओवरडोज से भी अपेक्षित सुधार नहीं लाया जा सकता है। इसलिए सर्वप्रथम भू-सांस्कृतिक आवश्यकताओं की पहचान होनी चाहिए, पुनः लक्षित समूह की प्रवृत्ति पहचानी जानी चाहिए; तत्पश्चात् निदान के साधनों और उपायों पर विचार किया जाना चाहिए। यह इसलिए आवश्यक है कि आवश्यकताओं को जानने के बाद भी, प्रवृत्ति की पहचान किए बिना, सुन्दर निदान नहीं किया जा सकता है। इसके बाद स्थान आता है कि हम किन साधनों का सहारा ले रहे हैं; क्योंकि साधनों का भी बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। इस बात को हम एक ऐतिहासिक उदाहरण द्वारा अच्छी तरह समझ सकते हैं। परतंत्रता के दिनों में स्वतंत्रता की राष्ट्रीय आवश्यकता एवं सामाजिक आकांक्षा को तो विभिन्न व्यक्तियों और संगठनों द्वारा पहचाना गया। परन्तु सभी व्यक्तियों एवं संगठनों द्वारा यह नहीं पहचाना जा सका कि भारतीय समाज की अंतःप्रवृत्ति क्या है? इसलिए उस समय स्वतंत्रता के लिए सच्चे मन से सक्रिय अधिसंख्यक व्यक्तियों एवं संगठनों द्वारा वही मार्ग चुना गया, जो विरोध जाहिर करने के लिए परंपरागत रूप से चला आ रहा था। राष्ट्रीय समस्या का समाधान सच्चे मन से वे भी चाह रहे थे। परन्तु उन्होंने उस प्रवृत्ति को नहीं पहचाना कि भारतीय समाज मूलतः धार्मिक और अहिंसक समाज है। धर्म और अहिंसा के अवयवों से ही इसका निर्माण हुआ है। गाँधी ने भारतीय समाज की मूल अंतःप्रवृत्ति को पहचाना और साधन के रूप में सत्य-अहिंसा का इस्तेमाल किया। यह साधन भारतीय संस्कारों के अनुकूल था। यही कारण था कि स्वतंत्रता-प्राप्ति का एक समान लक्ष्य रहने के बावजूद, अन्य व्यक्तियों एवं संगठनों की अपेक्षा, गाँधी को भारतीय जन का भारी समर्थन मिला। यह करिश्मा जन-प्रवृत्ति की सही पहचान और सही साधन के प्रयोग के कारण हुआ। इस अवांतर प्रसंग की चर्चा का उद्देश्य यह है कि शिक्षा पर विमर्श करते समय भी इस आवश्यकता, प्रवृत्ति और साधन के सामाजिक मनोविज्ञान की अवहेलना नहीं की जानी चाहिए। अन्यथा जीवनोत्सर्गी विराट् प्रयासों के बावजूद अपेक्षित परिणाम की प्राप्ति नहीं की जा सकती।
वर्तमान समय में भारत में प्रचलित शैक्षिक-विधि पाश्चात्य से आयातित शिक्षा प्रणाली का कलमी पौधा है। इसका मूल उस समाज में है, जिसकी प्रधान विशेषता व्यक्तिवाद है। व्यक्तिवादी मानसिकता के मूल से उद्भूत इस प्रणाली का उद्देश्य ही भौतिक संसाधनों की समृद्धि है। इस शैक्षिक-प्रक्रिया की ही परिणति है कि आज भारतीय समाज भी भौतिकता और व्यक्तिवादिता की अंधी दौड़ में शामिल होता जा रहा है। यह भारतीयों की अंतःप्रवृत्ति नहीं है। यहाँ के लोग तो पारिवारिकता, सामाजिकता और समष्टि के स्नेहपूर्ण बंधन में सदा से आबद्ध रहे हैं। स्वयं आधा खाकर भी किसी भूखे को खिला देना यहाँ का संस्कार रहा है। हमारी मूल प्रवृत्ति हमें त्याग और समष्टिवाद की ओर खींचती है, परन्तु प्रचलित शैक्षिक प्रक्रिया व्यष्टिवाद, भौतिकवाद और संग्रहण की ओर ढ़केलती है। यही कारण है कि तथाकथित उच्च शिक्षित समुदाय आज विचित्र मानसिक द्वन्द्व और तनाव में अपने को पा रहा है। लेकिन इसी शैक्षिक प्रक्रिया में पलकर पाश्चात्य लोग किसी द्वन्द्व या तनाव का अनुभव नहीं करते। क्योंकि यह उनके पारंपरिक सामाजिक संस्कारों के अनुकूल परिणाम देनेवाला है। परन्तु वही पौधा भारतीय संस्कारों में मीठे फल नहीं दे पा रहा है। कश्मीर की आबोहवा में उगनेवाले मीठे और सुन्दर सेब को बिहार की आबोहवा में उगाकर उसी स्वाद और सौन्दर्य की अपेक्षा नहीं कर सकते हैं, ऐसा होगा भी नहीं। कश्मीर के सेब को बिहार में उगाने की मशक्कत करने के बदले यहाँ के फलों को विकसित करने में मेहनत की जाए तो सहजता से अधिक मीठे फल की प्राप्ति हो सकेंगे। शिक्षा के बारे में भी यही सच है। अपने संस्कारों के अनुकूल शिक्षा प्रणाली ही अधिक सहजता से सुन्दर एवं सुग्राह्य परिणाम प्रदान करने में सक्षम हो सकती है।
यह तो प्रणली-चयन की बात हुई। अब बात प्रक्रिया की। प्रचलित पुस्तकाधारित प्रणाली की प्रक्रिया अंक-अभिमुख है; व्यवहार, ज्ञान और समझ से उसका गहरा रिश्ता नहीं है। पुस्तकों में वर्णित पाठों के प्रश्नोत्तरों को रटकर अच्छे अंक ले आना ही उसका ध्येय है और यही उसकी अच्छी सफलता का आधार भी है। पुस्तकों में अच्छी तरह पढ़े हुए पाठों से भी उसके जीवन का रिश्ता कायम नहीं हो पाता है। वे किताबी भर रह जाते हैं और उस किताबी ज्ञान पर आधारित परीक्षा पास करके मिलनेवाली नौकरी यदि उन्हें नहीं मिल पायी तो उनका पूरा जीवन ही विकलांग हो जाता है। उनके पास न तो किसी प्रकार का व्यावहारिक कौशल होता है, जिसके आधार पर वे अपनी आजीविका सृजित कर सकें और न ही उँची किताबी डिग्री का मिथ्या अहंकार उन्हें यह करने की सहमति देता है। कुछ ही दिन पहले अखबारों में यह चर्चा जोर-शोर से चली थी कि आई0 आई0 टी0 जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों से उत्तीर्ण होने वाले छात्र भी स्तरीय ज्ञान और रचनात्मक क्षमता से वंचित रह जाते हैं। स्थिति यह है कि साहित्य में उँचे अंकों के साथ स्नातकोत्तर कर जाने के बावजूद छात्र में एक कविता रच लेने की क्षमता उत्पन्न नहीं हो पाती है और अच्छे संस्थान से मैकेनिकल इंजीनियरिंग की डिग्री रखनेवाले छात्र को अपने घर का मोटर खराब होने पर उसे ठीक करने के लिए बाजार से अनपढ़ मिस्त्री को बुलाना पड़ता है। ज्ञान और काम के रिश्ते को विच्छिन्न करके देखने पर इसी तरह के विकलांग परिणाम सामने आते रहेंगे। यही कारण है कि सक्षम लोगों के लिए यह शिक्षा नौकरी पाने का जरिया भर होकर रह गई है और आम लोगों के मन में इसके प्रति आकर्षण नहीं है। इसीलिए यह शिक्षा-प्रणाली, संतोषजनक उत्पाद नहीं देने के कारण, प्रारंभ से ही विवादित रही है।
वर्तमान में प्रचलित और परतंत्रता के दिनों में अंग्रेजों द्वारा स्थापित शिक्षा प्रणाली से इतर महात्मा गाँधी ने नई तालीम या बुनियादी शिक्षा के नाम से राष्ट्र के सम्मुख शिक्षा-प्रणाली की एक नई दृष्टि प्रस्तुत की। यह भारतीय परंपरा का प्रसंस्कृत आधुनिक संस्करण है। जिस प्रकार गाँधी के नेतृत्व वाले स्वतंत्रता के राष्ट्रीय आंदोलन का ताना-बाना भारतीय जन-मानसिकता को ध्यान में रखकर बुना गया था, ठीक उसी प्रकार नई तालीम की प्रक्रिया पुनर्निर्माण की भारतीय आवश्यकता और परंपरा-अनुकूलता को ध्यान में रखकर तैयार की गयी थी। यदि हम अपनी परंपरा में झाँकने का प्रयास करें तो पायेंगे कि हमारे यहाँ गुरुकुल आधुनिक राज्य द्वारा वित्त पोषित विद्यालयों के ही स्वतंत्र और स्वावलंबी रूप थे। इसमें शास्त्र-ज्ञान के साथ ही, अविभाजित रूप से शस्त्र, कृषि, पशुपालन, नैतिकता, राजधर्म आदि की भी शिक्षा दी जाती थी। वहाँ प्रारंभिक स्तर पर विषय विभाजित नहीं थे। वह व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास करनेवाली, सामाजिक एवं राष्ट्रीय दायित्वों का सक्षमता से निर्वहन का पाठ पढ़ानेवाली शिक्षा थी। सामाजिक रूप से घर-घर पारंपरिक गृह उद्योगों का जाल था और अक्षर-ज्ञान के अभाव के बावजूद (गाँधीजी कौशल विहीन अक्षर ज्ञान मात्र को सामाजिक विकास का कारक नहीं मानते थे) वे कारीगर अपने पेशे में दक्ष थे। समाज के सभी वर्गों के पास अपने-अपने पेशे थे। समाज इन पेशों मे बँधा था और वे आत्मनिर्भर थे। परिणामस्वरूप बेरोजगारी नहीं थी और समाज में नैतिकता का प्रभुत्व था। जिस समय हमारे पास अपनी शिक्षा-पद्धति की यह मौलिकता थी, उस समय नालंदा, तक्षशिला आदि के हमारे विश्वविद्यालय पूरे विश्व में शिक्षा के सर्वाधिक देदीप्यमान केन्द्र थे। लेकिन अंग्रेजों ने, अपने व्यापारिक हितों की पूर्ति के लिए, विश्व व्यापार में अपने उत्तम उत्पाद का सिक्का जमा चुके स्वाभाविक रूप से विकसित होते हुए भारतीय मैनुफैक्चरिंग प्रथा को जिस प्रकार ध्वस्त कर दिया; उसी तरह, अपने प्रशासनिक हितों की पूर्ति के लिए, स्वाभाविक रूप से विकसित होती हुई यहाँ की शिक्षा-व्यवस्था को भी ध्वस्त कर अपने लिए क्लर्क बनानेवाली व्यवस्था को स्थापित किया। बाद के दिनों में भी, पश्चिमी चकाचौंध से प्रभावित होने के कारण, हम अंग्रेजों द्वारा स्थापित व्यवस्था को ही मजबूत बनाने में अपनी सारी शक्ति लगाते रहे। अपनी मौलिक पद्धति की ओर देखा तक नहीं। अपनी मौलिकता के त्याग का परिणाम यह हुआ कि पहले दूसरे देशों के छात्र हमारे यहाँ शिक्षा-ग्रहण करने आते थे, अब हम दूसरे देशों में शिक्षा ग्रहण करने जाते हैं; पहले विश्व-व्यापार में हमारे उत्पादों की साख थी, अब हमारे बाजार विदेशी घटिया उत्पादों से पटे हुए हैं।
नई तालीम की गाँधीयन अवधारणा संपूर्ण सामाजिक-राष्ट्रीय विकास के लिए प्रस्तुत उनके 18 सूत्री रचनात्मक कार्यक्रमों का एक अनिवार्य घटक था। इस प्रणाली की प्रमुख विशेषता है & “Education through vocational courses”A गाँधीजी ने इस प्रणाली का स्वयं विश्लेषण किया है और उदाहरण देकर बताया है कि एक सूत कातने की प्रक्रिया के द्वारा ही किस प्रकार गणित, साहित्य, समाज विज्ञान, भूगोल, इतिहास आदि सारे विषयों का बुनियादी ज्ञान दिया जा सकता है। इसका एक बहुत बड़ा लाभ तो यह है कि इस तरह ज्ञान को हम एक अखण्ड समष्टि के रूप में पाते हैं, विषयों के अलग-अलग खंडों में नहीं, जैसा कि आज प्रचलित है कि छात्र विषयों के अंतःसंबन्ध और उनकी अखंडता की अवधारणा से अपरिचित ही रह जाता है। इतिहास पढ़नेवाला छात्र कृषि विज्ञान का ककहरा तक नहीं जानता, आँख का डॉक्टर बुखार का इलाज नहीं कर पाता है और रूरल मैनेजमेंट में डिग्री पानेवाला छात्र गाँवों को किताबों के द्वारा ही जानता है। यह प्रचलित प्रणाली का ही चिंताजनक परिणाम है। दूसरा यह कि व्यावहारिक अनुभव के साथ बौद्धिक जानकारी को जोड़कर इसमें ज्ञान को अपने संपूर्ण आयाम में स्थापित किया गया है। प्रत्येक हाथ के कौशल-विकास की इसकी अवधारणा के कारण कोई भी शिक्षित व्यक्ति बेरोजगार और अकुशल नहीं रहेगा, जो आज समस्त पश्चिमी देशों के साथ इस देश की भी बहुत बड़ी राष्ट्रीय समस्या है। प्रत्येक हाथ में जब कारीगरी होगी तो छोटे-छोटे गृह उद्योगों से यह पूरा देश भरा होगा और सकल राष्ट्रीय उत्पादन की अप्रत्याशित वृद्धि हो जाएगी। ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के नौकर नहीं, छोटे ही सही, स्वतंत्र उद्यमी होंगे। उत्पादनोन्मुखी प्रणाली का विकास करके हमारी ही तरह विशाल जनसंख्या वाले चीन ने अपने यहाँ गृह उद्योगों का जाल बिछा दिया और आज उसके सस्ते उत्पाद विश्व बाजार में आतंक उत्पन्न कर रहे हैं। नई तालीम में संपूर्ण प्रक्रिया का आधार नैतिकता को रखा गया है। इस तरह बुद्धि, हृदय और हाथ की शिक्षा के द्वारा ‘नई तालीम’ सारी राष्ट्रीय आवश्यकताओं को सर्वांगीण रूप में पूरा करने वाली शिक्षा-प्रणाली है। इसीलिए गाँधी ने देश के प्रति अपने अवदानों में इसे सर्वश्रेष्ठ बताया है – “I have given many things to India. But this system of education together with its technique is, I feel, the best of them. I do not think I will have anything better to offer to the country.”
लेकिन यहीं पर आज नई शिक्षा नीति के नाम पर परोसे जा रहे कौशल विकास से गांधी की नई तालीम के कौशल विकास की अवधारणा की भिन्नता को भी ठीक से समझ लेना चाहिए। नई शिक्षा नीति के वोकेशनल कोर्स की अवधारणा कमा सकने लायक किसी कौशल को सीख लेना है। उसका ज्ञानात्मक अभिक्रिया के साथ कोई संबंध नहीं है। इस तरह नई शिक्षा नीति में कौशल विकास को ज्ञानात्मक शिक्षा से असंपृक्त और शिक्षा के विकल्प के रूप में पेश किया गया है, जिस शैक्षिक प्रक्रिया का उत्पाद एक अशिक्षित मिस्त्री के रूप में होगा और इस तरह इससे शिक्षा का महनीय उद्देश्य ही ध्वस्त हो जाता है। लेकिन गांधी का काम करते हुए सीखना में ज्ञानात्मक अभिक्रिया का अन्योन्याश्रय संबंध है। यह शिक्षा ज्ञान के साथ काम के रिश्ते को मजबूत ही नहीं करता है, बल्कि प्रायोगिक शिक्षाशास्त्र के पहलू की अवधारणा को स्थापित भी करता है।
यदि भारत को शिक्षा का सिरमौर होना है, बेरोजगारी की समस्या को दूर करना है, उत्पादन में बढ़ोत्तरी करनी है, गाँवों का विकास करना है और समाज में नैतिकता का वर्चस्व स्थापित करना है तो उसे ‘नई तालीम’ की अवधारणा को स्वीकार करना ही पड़ेगा।
References:
- Constructive Programme: Its meaning and Place, M. K. Gandhi.
- Towards New Education, M. K. Gandhi, Edited by Bharatan Kumarappa.
- Baapu Katha, Haribhau Upadhyay.
- The Wardha Scheme of Education: An Exposition and Examination, Varkey, C.J.
- Bharat ka Itihas, Prof. Romila Thapar
- NEP 2020
(यह आलेख ‘ऐलान’ में अंगेजी में पूर्व प्रकाशित “Eminence of Nai Talim in Context of National Temperament” का हिन्दी अनुवाद है।)
छात्रों के लिए बेहद उपयोगी व सारगर्भित आलेख I
यह लेख भारत की सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ी शिक्षा प्रणाली की आवश्यकता को बहुत ही सुंदर ढंग से प्रस्तुत करता है। गाँधीजी की ‘नई तालीम’ और उसमें व्यावसायिक कौशल के साथ बौद्धिक विकास के समावेश पर दिया गया जोर प्रेरणादायक है। यह शिक्षा के माध्यम से व्यक्तिगत और राष्ट्रीय प्रगति पर एक विचारोत्तेजक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।