‘संविधान के 75 साल की गौरवशाली यात्रा’ पर लोकसभा में आयोजित विशेष चर्चा भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक प्रेरणादायक क्षण बन सकता था। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण इस अवसर की गरिमा के अनुकूल नहीं था। यह अवसर संविधान की महानता, लोकतांत्रिक आदर्शों और उनके विकास की चर्चा का था। परंतु, प्रधानमंत्री का ध्यान इस ऐतिहासिक अवसर के बजाय कांग्रेस और नेहरू परिवार पर पुराने आरोपों को दोहराने में अधिक लगा रहा।
प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में संविधान की उपलब्धियों पर चर्चा करने के बजाय, कांग्रेस पर बार-बार हमले किए। उन्होंने आपातकाल, विभाजन और संविधान संशोधनों का उल्लेख करते हुए कांग्रेस पर दोषारोपण किया। यह वही पुरानी बातें थीं, जो वे पिछले 10 वर्षों से दोहराते आ रहे हैं। उनके भाषण से ऐसा नहीं लगा कि वे लोकतंत्र के इस पवित्र सदन के नेता हैं। यह चर्चा एक ऐसा अवसर था, जब देश को संविधान की शक्ति और उसकी प्रेरणा के बारे में जागरूक किया जा सकता था। लेकिन मोदीजी ने इसे राजनीतिक हिसाब चुकाने का मंच बना दिया।
मोदीजी का कांग्रेस-विरोध कोई नई बात नहीं है। 2013-14 में भाजपा ने उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया, तब से ही उनका प्रचार अभियान कांग्रेस-विरोध पर केंद्रित रहा। उन्होंने तब दावा किया था कि कांग्रेस ने 60 साल बर्बाद किए और उन्हें 60 महीने दिए जाएँ। यह बयानबाज़ी चुनावी रैलियों से लेकर उनके हर सार्वजनिक मंच तक जारी रही। यहाँ तक कि स्वतंत्रता दिवस और विदेशों में दिए उनके भाषण भी इससे अछूते नहीं रहे।
लोकसभा में उनके भाषण में आपातकाल और संविधान संशोधन जैसे मुद्दों का पुनरावलोकन हुआ। उन्होंने कांग्रेस को ‘संविधान संशोधन के खून का स्वाद चखने वाला’ तक कह डाला। लेकिन, प्रधानमंत्री ने यह नहीं बताया कि संविधान में उल्लेखित समानता, न्याय और गरिमा की गारंटी को उनकी सरकार कैसे सुनिश्चित करेगी। संविधान में आर्थिक और सामाजिक सशक्तिकरण का जो वादा किया गया है, उस पर उनकी नीतियों की दिशा स्पष्ट नहीं हुई।
मोदीजी का यह दोहरा रवैया चिंताजनक है। संविधान को सिर-माथे पर रखने वाले प्रधानमंत्री को यह ज्ञात होना चाहिए कि संविधान की असली ताकत स्वतंत्र और निष्पक्ष संवैधानिक संस्थाओं में है। पिछले एक दशक में उनकी सरकार ने इन संस्थाओं की स्वायत्तता को प्रभावित किया है। संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करने और विपक्ष की आवाज़ को कुचलने का कार्य उनकी प्राथमिकता बन गया है। विरोध और असहमति, जो लोकतंत्र के स्वस्थ संचालन के लिए अनिवार्य हैं, को उनकी सरकार ने लगातार हतोत्साहित किया है।
हाल के दिनों में कांग्रेस और विपक्षी दलों ने संविधान और लोकतंत्र की रक्षा को लेकर भाजपा पर तीखे सवाल उठाए हैं। राहुल गांधी ने इसे मनुस्मृति और संविधान की लड़ाई करार दिया, जबकि प्रियंका गांधी ने अपने पहले भाषण में यह कहा कि ‘अगर नतीजे अलग होते, तो संविधान बदलने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी होती।’ इन बयानों ने भाजपा को असहज किया है। शायद यही वजह है कि प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में आक्रामक रुख अपनाया।
प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में यह जताने की कोशिश की कि वे संविधान के सबसे बड़े रक्षक हैं। लेकिन पिछले दस वर्षों का उनका रिकॉर्ड कुछ और ही कहानी बयाँ करता है। संवैधानिक संस्थाओं पर नियंत्रण और विपक्ष को हाशिये पर डालने की उनकी रणनीति लोकतंत्र की आत्मा को चोट पहुँचाती है।
लोकसभा में दिया गया उनका यह भाषण इतिहास में एक चूके हुए अवसर के रूप में याद किया जाएगा। यह वह समय था जब वे संविधान की शक्ति और उसकी मूल भावना पर केंद्रित सकारात्मक संदेश दे सकते थे। परंतु, उन्होंने इसे राजनीतिक प्रतिशोध और पुराने आरोपों को दोहराने का मंच बना दिया। इससे लोकतंत्र की गरिमा को आघात पहुँचा और यह चर्चा एक सार्थक बहस बनने से चूक गई।

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