पारंपरिक शिक्षा-पद्धति में छात्र, पाठ्यचर्या और शिक्षक – शिक्षा के ये तीन स्तंभ होते हैं। वह शिक्षक ही होता है, जो पाठ्यचर्या को आधार बनाकर छात्र को सिखाने का काम करता है। अपनी कक्षा में उसकी भूमिका जहाज के उस कप्तान की तरह होती है, जो पाठ्यचर्या रूपी कम्पास के सहारे दिशाओं को ढूँढता हुआ बच्चों को उसके ज्ञान के लक्ष्य तक पहुँचाता है। इसलिए शिक्षा की पूरी प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण पक्ष के रूप में उसकी भूमिका होती है। शिक्षा पर मुकम्मल विचार करते वक्त इस पक्ष, अर्थात शिक्षक को छोड़कर आगे नहीं बढ़ा जा सकता है। इसीलिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में अनुच्छेद 5 के 29 उप-अनुच्छेदों में केवल ‘शिक्षक’ पर बात की गई है।
शिक्षक पर बात करते हुए हमें दो बातों पर समान रूप से ध्यान रखना चाहिए। एक है शिक्षा के हित की कसौटी, जिसकी पूर्ति के लिए नियोक्ता उन्हें नियुक्त करता है। दूसरी है शिक्षक के अपने हित की कसौटी, जिसके लिए वह नियुक्त होता है। दोनों ही पक्ष महत्वपूर्ण हैं और, एक तरह से, एक दूसरे के पूरक भी हैं। इस विवेचना में हम इस शिक्षा नीति में इन दोनों पक्षों की कसौटियों पर शिक्षक को देखने की कोशिश करेंगे।
आश्वासन
शिक्षक पर बात करते हुए सबसे पहले जो बात कही गई है, वह है ‘आदर और सम्मान’ की। हाल के दिनों में नियुक्ति-प्रक्रिया की खोट, सरकार की नीतियाँ और समाचार माध्यमों की दोष-खोजी खबरनबीसी के कारण शिक्षक जिस तरह समाज का एक उपेक्षित और दोषी वर्ग बनकर रह गया है, उसमें यह आश्वासन कि “शिक्षकों के लिए उच्चतर दर्जा और उनके प्रति आदर और सम्मान के भाव को पुनर्जीवित करना होगा।“ (5.1), सुकून देनेवाला प्रतीत होता है। स्वयं गरिमापूर्ण जीवन के अभाव में बच्चों को गरिमापूर्ण जीवन की न तो शिक्षा दी जा सकती है और न ही गरिमापूर्ण जीवन की कला सिखाई जा सकती है, यह एक शैक्षिक सच्चाई है। इस नीति में वाचिक आश्वासनों के परे उस सम्मानपूर्ण स्थिति की व्यावहारिक प्राप्ति के लिए कैसी व्यवस्था की गई है, इसकी पड़ताल करना महत्वपूर्ण है।
व्यवस्था और समीक्षा
नियुक्ति के लिए 4 वर्षीय एकीकृत बी. एड. होगा, जो स्नातकों के लिए दो वर्ष और परास्नातकों के लिए एक वर्ष का होगा और वह अब दूरस्थ तरीके से भी किया जा सकेगा (5.23)। प्रशिक्षण की इस रूप-रचना में एक और नई बात है कि शिक्षण पेशे के प्रति आकर्षण उत्पन्न करने के लिए प्रशिक्षण-अवधि में छात्रवृत्ति और प्रशिक्षणोपरांत ‘स्थानीय इलाकों में निश्चित रोजगार’ की अनुशंसा की गई है। अंग्रेजों के द्वारा ही शुरू किए गए छात्रवृत्ति और निश्चित रोजगार की पुरानी प्रथा को हाल के दिनों में ही समाप्त कर दिया गया था। इस नीति में उसी पुरानी प्रथा की पुनर्बहाली की अनुशंसा है। लेकिन शिक्षा नीति के अन्य भागों से यह ध्वनित होता है कि उच्च शिक्षा नि:शुल्क नहीं होगी। ऐसी स्थिति में शिक्षक प्रशिक्षण के लिए शिक्षण-शुल्क और छात्रवृत्ति के बीच संतुलन कैसे स्थापित किया जाएगा या दोनों में से किस नीति का अनुपालन होगा, यह समय सापेक्ष है।
ऊपर के अनुच्छेद में प्रशिक्षणोपरांत ‘निश्चित’ नियुक्ति का आश्वासन तो दिया गया है, लेकिन बाद में नियुक्ति के लिए दक्षता परीक्षा में उत्तीर्ण होना और साक्षात्कार/कक्षा-प्रदर्शन में सफल होने की भी शर्त रखी गई है (5.4)। अर्थात योग्यताओं और दक्षताओं की तीन सीमाओं को पार करने के उपरांत ही नियुक्ति होगी। ऐसे में ‘निश्चित’ और सशर्त – दोनों विरोधाभासी अनुशंसायेँ एक साथ कैसे लागू होंगी, इसके बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता है। अब तक की व्यवस्था यह है कि जो शिक्षक जिस स्तर के लिए एक बार नियुक्त हो गया, उच्चतम योग्यता प्राप्त कर लेने के बाद भी, अन्य स्तर के छात्रों को पढ़ाने के लिए उसकी पदांतरण नहीं होता था। अब ‘अल्प अवधि के सर्टिफिकेट कोर्स’ करने के उपरांत वह दूसरे स्तर के छात्रों को पढ़ाने का भी अवसर प्राप्त कर सकेगा (5.26)।
कारण-अकारण स्थानांतरण (5.3) और गैर शैक्षिक कार्यों में उनके नियोजन पर रोक लगेगी (5.12), ऐसी अनुशंसा की गई है। शिक्षक संघों और शिक्षा प्रेमियों की यह लंबे समय से चली आ रही माँग है, जो नैतिक रूप से तो स्वीकृत है, परंतु व्यवहार में कभी नहीं रहा है। शिक्षकों को ऐसे फिजूल कर्मियों की तरह इस्तेमाल किया जाता है, जैसे उन्हें बेमतलब का बहाल कर लिया गया है। उन्हें शिक्षण-कार्य से हटाकर कभी वोटर लिस्ट बनाने, कभी बाढ़ राहत, कभी राशन बाँटने और कभी तो सड़क के किनारे शौच न करने देने की निगरानी करने तक पर लगा दिया जाता है। पूर्व के निर्णयों के हश्र को देखते हुए उम्मीद नहीं है कि नीतिगत स्तर पर पुन: स्वीकृत होने के बावजूद व्यावहारिक धरातल पर इसे अमल में लाया जाएगा।
शिक्षकों के लिए एक कठिन कार्यकाल की अनुशंसा का संकेत है इस शिक्षा नीति में। अनेक महत्तर आकांक्षाओं को शिक्षण पेशे पर थोपते हुए भी उनकी सेवा के स्थायीकरण की राह आसान नहीं होगी। नौकरी के स्थायीकरण के पूर्व ‘परिवीक्षा अवधि’ (5.17) के कठिन दौर से गुजरना होगा, जिसमें अनेक आधारों पर उनका आकलन किया जाएगा और सारी अग्नि परीक्षाओं में सफलतापूर्वक निकलने पर उनकी सेवा-अवधि के विस्तार या स्थायीकरण पर विचार किया जाएगा। यदि ‘परिवीक्षा अवधि’ की यह अवधारणा शुरुआती ‘नई शिक्षा नीति का विमर्श पत्र’ से आयातित है तो अस्थायित्व की लक्षमण रेखा लांघने में कुछ भाग्यशाली ही सफल होंगे। इसी तरह एक बार बहाल हो जाने पर समयांतराल से वेतन-वृद्धि और पदोन्नति नहीं होगी, जैसा कि अब तक होता आया है, बल्कि ‘उत्कृष्ट प्रदर्शन’ (5.17) के आधार पर होगी। इस ‘उत्कृष्ट प्रदर्शन’ का आधार होगा सहकर्मियों की समीक्षा, उपस्थिति, समर्पण, सीपीडी के घंटे, स्कूल और समुदाय में की गई अन्य सेवा आदि (5.20)। इस तरह प्रशिक्षण में छात्रवृत्ति और प्रशिक्षणोपरांत अनिवार्य नियुक्ति के आश्वासन का आकर्षण धूमिल हो जाता है, जब सेवा शर्तों की असलियत निकलकर सामने आती है।
हाल के दिनों में शिक्षकों की अनेक कोटियाँ बनाकर अनेक प्रकार के वेतनों में जिस तरह विभक्त किया गया है, उसके प्रति शिक्षक संगठन लगातार आवाज उठाते हुए ‘समान काम, समान वेतन, की माँग करते रहे हैं। लेकिन शिक्षकों की सेवा शर्त की इस गैर बराबरी को यह शिक्षा नीति न तो संबोधित करती है और न ही समानता का आश्वासन देती है। बल्कि यों कहें कि ‘परिवीक्षा अवधि’ की अनुशंसा के द्वारा समान संकायों के बीच गैर बराबरी को संपोषित ही करती है। पूरी शिक्षा नीति में बार-बार, और शिक्षक के लिए समर्पित 5वें अनुच्छेद में ही तीन बार (5.6, 5.10 और 5.25), जिस तरह ‘विशेष प्रशिक्षक’, ‘परामर्शदाताओं’, ‘सामाजिक कार्यकर्ताओं’, ‘प्रख्यात स्थानीय व्यक्तियों’ को शिक्षण की मुख्यधारा में शामिल करके बच्चों के साथ शिक्षकों को भी सिखाने की अनुशंसा की गई है, उससे शिक्षकों के अध्यापन की तथाकथित स्वायत्तता (5.14) कितनी बच पाएगी और विद्यालय स्थानीय प्रभावशाली लोगों के चंगुल से कितना महफूज रह पाएगा, यह बार-बार सोचने की बात है।
निष्कर्ष
इस प्रकार शिक्षा नीति में शिक्षक के हितों की पड़ताल करने पर यह पाया जाता है कि जिन शिक्षकों के कंधों पर भारत को बदल देने की अपेक्षा का भारी-भरकम बोझ डाल दिया गया है, सेवा शर्तों के पैमाने पर उन्हें निरीह बना दिया गया है। यह शिक्षा नीति शिक्षकों के ‘प्राचीन सम्मान’ को लौटाने का वाचिक आश्वासन भले ही देती हो, शिक्षकों से एक स्पंदनशील शैक्षिक वातावरण के निर्माण की अपेक्षा भले ही करती हो, परंतु उनके वेतनमान पर चुप्पी साध लेती है, सेवाशर्तों को कमजोर बनाने की अनुशंसा करती है, उनके व्यक्तित्व के दब्बू होने का इंतजाम करती है और विद्यालीय परिवेश में उनके महत्व का अवमूल्यन करती है।
इस शिक्षा नीति को लागू हुए चार वर्ष हो गये हैं। इन वर्षों में शिक्षकों ने जो ज़लालत झेली है, सम्मान की बात कहकर जिस तरह उनकी गरिमा को रौंद दिया गया है, जिस तरह उनकी स्वातंत्र्य चेतना को मिटाने और उन्हें पाबंदियों की शृंखला में बाँधने की कोशिश की गई है, जिस तरह अनेक राजनीतिक और प्रशासनिक प्रयासों के द्वारा उन्हें समाज और व्यवस्था में सबसे अविश्वसनीय समूह प्रमाणित करने का प्रयास जारी है, जिस तरह असमानता-आधारित अनेक संवर्ग सृजित कर उन्हें आपस में ही ग़ैर-बराबर बना दिया गया है, यह अपूर्व है और यह सब इस रेशमी शिक्षा नीति का ही व्यावहारिक परिणाम है।
Nice
शिक्षकों की दशा दिशा सहित तथ्यों के आलोक में यथार्थ पड़ताल,