कहीं लोकतंत्र तो हाईजैक नहीं हो गया?
यह चौंकाने वाला शीर्षक है, लेकिन बेहद संजीदा भी। EVM से संबंधित सनसनीख़ेज़ मामला प्रकाश में आया है। मुंबई के RTI कार्यकर्ता मनोरंजन एस राय के द्वारा 1989 से भारतीय चुनाव प्रणाली में व्यवहृत EVM की बिक्री और ख़रीद के मामले में RTI से प्राप्त जानकारी स्तंभित कर देने वाली है।
पहले यह जान लें कि EVM के तीन पार्ट होते हैं – Balloting Unit (BU), Control Unit (CU) और हाल ही में जोड़ा गया Verification Paper Audit Trial (VVPAT)। ये EVM भारत में दो अलग-अलग जगहों पर दो कंपनियों के द्वारा बनाए जाते हैं। बैंगलोर में भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड (BEL) और हैदराबाद में इलेक्ट्रॉनिक कॉर्प ऑफ़ इंडिया लिमिटेड (ECIL) इसे बनाता है।
RTI से मिली जानकारी के मुताबिक़ 2010 से 2017 के बीच चुनाव आयोग को BEL ने 125,000 CUs तथा 190,000 BUs बेचे। ECIL ने भी इसी अवधि में चुनाव आयोग को 222,925 BUs तथा 211,875 CUs दिए। लेकिन केंद्रीय क़ानून और न्याय मंत्रालय से मिली जानकारी के अनुसार सरकार के पास 1,395,306 BUs और 930,716 CUs की ख़रीद की जानकारी है। और, सूचना के अधिकार के तहत चुनाव आयोग का जवाब है कि 1989-90 से 15 मई, 2017 के बीच कुल 1,005,662 BUs तथा 928,049 CUs BEL से और 1,014,644 BUs तथा 934,031 CUs. ECIL से ख़रीदे गए। अर्थात कंपनियों, सरकार और चुनाव आयग के द्वारा दी गई जानकारियों में कहीं तालमेल नहीं है।
इसके अलावा चुनाव आयोग के मुताबिक़ EVM की ख़रीद पर ‘वास्तविक व्यय’ रु0 5,360,175,485 हुए। जबकि BEL ने RTI के जवाब में कहा है कि उसे EVM के बदले रु0 6,525,644,000 प्राप्त हुए। यानी चुनाव आयोग ने जितने रुपए दिए, उससे 116.55 करोड़ ज़्यादा।
प्रश्न उठता है कि BEL और ECIL से ख़रीदे गये EVM जब चुनाव आयोग ने ने नहीं लिए तो फिर वे कहाँ हैं? EVM कोई बिस्किट का पैकेट नहीं है कि किसी परचून की दूकन पर बिकने के लिए चले गए होंगे। उनका उपयोग चुनाव में ही है। तो फिर चुनावों में कौन उनका उपयोग कर रहा है? फिर BEL को अधिक मिले 116.55 करोड़ रुपए किसने दिए? इस बात का स्पष्टीकरण न सरकार दे रही है, न चुनाव आओग और न ही मीडिया इस प्रश्न को उछाल रहा है।
लंबे समय से EVM की प्रामाणिकता पर प्रश्नचिह्न लगते रहे हैं और सत्ता पक्ष एवं चुनाव आयोग सकी प्रामाणिकता को पोषित करते रहे हैं। परंतु अब तो अवल EVM के नदारद ही हो जाने का हो गया है।
चुनावों की निष्पक्षता के साथ ही लोकतंत्र के जीवित रहने पर भी यह गहरा संदेह उत्पन्न करता है।