मानव-सभ्यता का यह स्वभाव रहा है कि वह आगे की ओर गति करती रही है। लाखों वर्षों के जद्दोजहद के बाद लगभग 500 साल पहले मानव-जाति जब वैज्ञानिक क्रांति के नए युग में प्रविष्ट हुई तो चेतना के स्तर पर उसके अंधविश्वास, जड़ मान्यताएँ और बद्ध धारणाएँ धीरे-धीरे तिरोहित होती गईं। ऐसा लगने लगा कि मानव-चेतना की बंद पलकें धीरे-धीरे खुल रही हैं और दैवी, रहस्यमयी और अबूझ परतें उघर रही हैं। अब देहात के मिडिल स्कूल में पढ़ने वाला बच्चा भी, खेतों में काम करने वाला अनपढ़ किसान भी जान गया कि वर्षा इंद्र की कृपा से नहीं, बल्कि वाष्पीकरण और वायु-दबाव की प्राकृतिक प्रक्रियाओं से होती है; वह जान गया कि चंद्रमा कोई देवता नहीं है, बल्कि सौरमंडल का एक उपग्रह है। वह यह भी जान गया कि चेचक शीतला देवी के प्रकोप का परिणाम नहीं है, बल्कि एक वायरल इंफ़ेक्शन है। अब वह प्राकृतिक क्रियाओं और वस्तुओं को अंधविश्वास और आस्था की दृष्टि से नहीं, बल्कि वस्तुपरक वैज्ञानिक दृष्टि से देखने लगा।
मानव-जाति को अंधकूप से निकालकर तर्कशील, विवेकवान और चेतना-संपन्न वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रदान करने में वैज्ञानिकों और उनकी खोजों का हाथ केवल नहीं है, बल्कि शासन ने भी उत्पादन, हथियार-निर्माण, चिकित्सा आदि अनेक क्षेत्रों में उसका लाभ भी उठाया और उसके प्रसार में योगदान भी दिया। अनुसंधानों में धन के नियोजन का लाभ आर्थिक उन्नति के रूप में प्राप्त हुआ। शासन को इसकी ज़रूरत थी, इसलिए उसने ऐसा किया। यदि शासन का सहयोग नहीं मिलता तो वैज्ञानिक चेतना का प्रसार दुष्कर हो गया होता।
ऐसा उस समय हुआ, जब शासक के पास राज्य और समाज को आगे ले जाने का उद्देश्य था, उसे अपने को मज़बूत करने के लिए अर्थव्यवस्था उन्नत करनी थी, लगातार बढ़ती हुई औद्योगिक, व्यावसायिक और राजकीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए शिक्षा का प्रसार करना था, भुखमरी और कुपोषण से लड़ना था, बीमारियों पर काबू पाना था। इन सबके लिए विज्ञान का सहयोग लेना, विज्ञान पर भरोसा दिलाना, वैज्ञानिक शिक्षा का प्रसार करना और वैज्ञानिक चेतना का निर्माण करना शासक का एक प्रमुख उद्देश्य हुआ करता था। दुनिया के अन्य देशों की तरह अपने यहाँ भी, थोड़ा आगे-पीछे, ऐसा ही हुआ।
परंतु शासक-वर्ग के सम्मुख अगर ये प्रगतिगामी महत्तर उद्देश्य नहीं हों तो पश्चगामी दृष्टिकोण को आरोपित करना उसकी राजनीतिक अनिवार्यता होती है। तब उसे इस तरह की अवधारणा को परोसने की जरूरत होती है कि स्वर्ण युग पुरातन काल में ही था और उसे वापस ले आना आज की मानवीय आवश्यकता है। और, इसके लिए उसे धार्मिक, जैविक, प्राकृतिक, शैक्षिक, शारीरिक, दैवी आदि अनेक प्रकार के अंधविश्वासों और मान्यताओं को हवा देनी पड़ती है। पश्चगामी राजनीति के उपकरण के रूप में ही आज वेदों में सभी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान, पौराणिक कथाओं की सत्यता, गाय को माता और इस देवभूमि पर जन्म लेने के लिए देवता भी तरसते थे आदि पुरातन स्वर्ण युग की अवधारणाएँ शासक समूह द्वारा आरोपित-स्थापित की जा रही हैं।
लेकिन इसका यह अभिप्राय नहीं है कि शासकीय प्रयासों से समाज जब इस प्रकार बीमार बनाया जा रहा हो तो वैज्ञानिक शोध और कार्य पूरी तरह बंद हो जाते हैं। नहीं, ऐसा एकदम नहीं होता है। वैज्ञानिक शोध और कार्य राजकीय प्रयासों के बिना भी होते रहते हैं, परंतु उनमें तीन लक्षण दिखाई देने लगते हैं। पहला यह कि नवीन सैद्धांतिक वैज्ञानिकों और समाज वैज्ञानिक शोधों की ओर से राज्य उदासीनता बरतने लगता है। फलतः ऐसे नवोन्मेषी ज्ञानात्मक शोध कम होते हैं और यदि होते भी हैं तो उसके लिए पर्याप्त धन मुहैया नहीं कराया जाता है और उन्हें अक्सर दूसरे स्रोतों पर निर्भर होना पड़ता है। फिर उसका प्रसार भी न्यून और अधिक श्रमसाध्य होता है। दूसरा यह कि शोध, ज़्यादातर, मौलिक ज्ञान के नवोन्मेष के लिए नहीं होते हैं, टेक्नोलोजी के क्षेत्र में ज़्यादा होते हैं। शासन, ऐसे समय में, ऐसे ही शोधों को प्रोत्साहित करता है और धन प्रदान करता है, जिससे सुविधाएँ तो बढ़ जाती हैं, शासन को आर्थिक या सैन्य-लाभ (प्रतिरक्षात्मक लाभ) तो हो जाता है, परंतु उससे सामाजिक चेतना के परिमार्जन और उन्नयन में बहुत सहयोग नहीं प्राप्त होता है। तीसरा यह कि प्रगतिगामी चेतना-निर्माण करने वाली खोजों को, पाठ्यवस्तुओं और मीडिया आदि के माध्यम से शासक आम लोगों तक पहुँचने से रोकता है या यदि पहुँचता भी है तो इस कमतर महत्व के रूप में कि चेतना-निर्माण में वह महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा सके।
इस तरह एक पश्चगामी, प्रतिक्रियावादी और जड़ोन्मुख व्यवस्था को भी तार्किक तथा स्वीकार्य बनाया जाता है।