दिसंबर 2023 में भारतीय संसद में तीन नये क़ानून अथवा तीन दंड संहिता को पारित किया, जो 1 जुलाई, 2024 से सारे भारत में लागू हो गई। ये तीनों क़ानून निम्नलिखित हैं –
i) भारतीय न्याय संहिता (BNS)
ii) भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS)
iii) भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA)
भारतीय नागरिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए ये क़ानून प्रथम दृष्टया डरावने प्रतीत होते हैं। इन तीनों क़ानूनों में कई ऐसे नये प्रावधान जोड़े गये हैं, जिनसे नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर कुठाराघात होगा। उसी तरह पुराने क़ानूनों के कई प्रावधानों को नये तरीक़े से इस तरह पेश किया गया है ताकि पुलिस और प्रशासन को विरोध के स्वर को दबाने की असीमित शक्तियाँ प्राप्त हो जायें।
इसके अलावा सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों और संसद की समितियों की अनुशंसाओं में IPC के जिन प्रावधानों को बदलने या हटाने के लिए कहा गया था, उन्हें नये क़ानूनों में वापस डाल दिया गया है। मसलन IPC की धारा 497और 498, जो व्यभिचार से संबंधित है, उसे पुनर्स्थापित कर दिया गया है। इस तरह की क़ानूनी व्यवस्था से प्रगतिशीलता की जगह प्रतिगामी समाज का निर्माण होता है।
इसके साथ ही नागरिकों के निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार पर भी गहरी चोट की गई है। बीएनएस और बीएनएसएस दोनों के कई प्रावधानों को चतुराई से तोड़ा-मरोड़ा गया है ताकि पुलिस एवं प्रशासन अपनी हिफ़ाज़त तो पूरी तरह से कर ले, मगर नागरिक अपनी सुरक्षा किसी भी तरह से न कर पायें।
इसे प्रस्तुत करते हुए हमारी सरकार ने कहा कि वह आधुनिक भारत में औपनिवेशिक क़ानून नहीं रखना चाहती, इसलिए 1860 के बने हुए क़ानून को बदलने की ओर उसने कदम बढ़ाया। मगर दुर्भाग्यवश ये क़ानून पुराने क़ानूनों से अधिक औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त हैं और मध्यकालीन सामन्तवादी समाज के जैसे राज्य की स्थापना करने वाले हैं, जहाँ राजा के अलावा किसी को सिर उठाकर चलने की इजाज़त नहीं होगी।
इस आलेख में इन क़ानूनों के इन्हीं कुछ प्रावधानों को, जो नागरिक स्वतंत्रता के लिए ख़तरे साबित होंगे, उनकी संक्षेप में व्याख्या की गई है।
साधारण प्रजातांत्रिक गतिविधियों को आपराधिक गतिविधि बनाना
धारा 113 बीएनएस : Terrorist Act : नये दंड विधान के सबसे ख़तरनाक प्रावधानों में से एक है भारतीय न्याय संहिता (BNS) के भाग VI (of offence effecting Human Body) की धारा 113। यह एक नया प्रावधान है, जो पहली बार आतंकवाद को परिभाषित करता है। अत: इसे Terrorist Act कहा जाता है।
सेक्शन 113 में सारी बातें वही हैं, जो UAPA 1967 की धारा 14 से 21 में है। बस थोड़ा-सा बदलाव भारतीय नोटों की नक़ली छपाई (Counterfeit Indian Currency) (व्याख्या 113(1)(b) बीएनएस से) से संबंधित जो UAPA में था, उसको निकल दिया गया है। (UAPA की धारा 15(1)(iiia) में दिया गया है।
निस्संदेह प्रश्न यह पैदा होता है कि जब पहले से ही UAPA में यह Terrorist Act मौजूद था तो बीएनएस में लाने का क्या उद्देश्य हो सकता है? कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार अपने प्रतिद्वंद्वियों के ख़िलाफ़ इसका दुरुपयोग करेगी, जैसा कि पिछले 10 सालों से UAPA का दुरुपयोग हुआ है।
पीयूसीएल ने UAPA के दुरुपयोग पर एक अध्ययन किया है, जिससे यह पता चलता है कि 2015-2020 के बीच 8371 लोगों पर मुक़दमा चलाया गेगया, जिसकी सजा-दर सिर्फ़ 3% था। गिरफ़्तार किए गए लोग 5 से 10 साल तक जेल में रहे। इनमें मानवाधिकार को लेकर कार्य करने वाले लोग, शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता, वकील, छात्र और आदिवासी कई सालों तक जेल में सड़ते रहे। यह बात कहना मुनासिब है कि बीएनएस एवं UAPA में आतंकवाद की परिभाषा बहुत विस्तृत है, जिसके तहत बहुत सारे लोग, जो लोकतांत्रिक एवं शांतिपूर्ण तरीक़े से धरना, प्रदर्शन करते हैं, वे भी आ सकते हैं।
टेररिस्ट एक्ट को मानव के विरुद्ध अपराध (बीएनएस के भाग VI) में लाने के पीछे क्या आशय है सरकार का? इस धारा को भाग VII में होना चाहिए था यानी राज्य के विरुद्ध अपराध (Offence against state)। मगर किस कारणवश इसे भाग VI में रखा गया?
इस प्रश्न का जवाब सेक्शन 217 बीएनएसएस से मिलता है। सेक्शन 217 बीएनएसएस में कहा गया है कि सेक्शन 113 बीएनएस में जो अपराध परिभाषित है, उसके अंतर्गत अगर किसी को गिरफ़्तार किया जाता है तो उस पर मुक़दमा चलाने के लिए सेक्शन 113 बीएनएस के अनुसार सरकार से अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं है।
दूसरा अहम पहलू यह है कि सेक्शन 45 UAPA में यह प्रावधान किया गया था कि अगर कोई व्यक्ति सेक्शन 45 UAPA के अन्तर्गत गिरफ़्तार होता है तो इस गिरफ़्तारी के औचित्य को देखने के लिए सरकार एक समिति बनायी, जो रिपोर्ट देगी और मुक़दमा चलाने से के लिए अनुमति देने से पहले सरकार उस रिपोर्ट का अध्ययन करेगी। यह सुरक्षा-प्रणाली (Safety mechanism) बीएनएस सेक्शन 113 से हटा लिया गया है। इसका मतलब सीधा-सीधा है कि टेररिस्ट एक्ट को सेक्शन 113 बीएनएस के भाग VI में डालना राज्य को मज़बूती प्रदान करना है ताकि पुलिस किसी भी व्यक्ति को गिरफ़्तार कर लेगी और उस पर मुक़दमा चलाने के लिए सरकार से अनुमति की आवश्यकता नहीं होगी।
पूरे देश में बहुत सारे सामाजिक एवं पर्यावरणीय आंदोलन विकास-कार्यों के विरुद्ध चलते रहते हैं। उन आंदोलनकारियों को सेक्शन 113 बीएनएस में उग्रवादी गतिविधियों के तहत की गई परिभाषा के की वजह से गिरफ़्तार किया जा सकता है। जो लोग सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक न्याय के लिए लड़ते हैं एवं मानवाधिकार के हनन के विरुद्ध संघर्ष करते हैं, उन्हें बड़ी आसानी से फँसाया जा सकता है।
पुराना देशद्रोह क़ानून (Seditive Law) को एक नये अवतार 152 बीएनएस में पेश किया गया है
विदित हो कि सेक्शन 124A की संवैधानिकता को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई। उन सारी याचिकाओं को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने 2020 में अंतरिम आदेश पारित किया कि देश में जितने भी देशद्रोह से संबंधित मुक़दमे या अपील या किसी तरह की कार्यवाही चल रही है, उन सबको शिथिल किया जाये और नया कोई देशद्रोह का मामला न्यायालय दर्ज नहीं करें। एक रिपोर्ट “A Decade of Darkness” के शीर्षक से प्रकाशित हुआ, जिसमें कहा गया कि 2011-2021 तक 13000 (तेरह हज़ार) लोगों को देशद्रोह के 800 (आठ सौ) केस में फँसाया गया, जिसमें 500 केस 2014-2019 बीजेपी के शासनकाल में हुए। इनमें दोषसिद्धि की दर 0.1% थी।
देशद्रोह क़ानून के दुरुपयोग को देखते हुए सेक्शन 124A को निरस्त करने के बजाय एक नया देशद्रोह क़ानून सेक्शन 152 बीएनएस के अन्तर्गत लाया गया है, जिसमें कुछ बातें और जोड़ दी गई हैं, जिससे नागरिकों का और ज़्यादा उत्पीड़न करने वाले अधिकारी की कोई जवाबदेही तय नहीं होगी।
सेक्शन 152 बीएनएस की परिभाषा में कुछ ऐसी बातें जोड़ी गई हैं, जिनकी व्याख्या का कोई आधार नहीं है। जैसे, तोड़फोड़ या अलगाववाद से संबंधित गतिविधियों को या इस तरह की भावना, जो देशद्रोह को उत्तेजित करती है, उनको तय करने का कोई पैमाना नहीं है।
इतने बड़े देश में, जो अनेकता में एकता को समाये हुए है, सेक्शन 152 बीएनएस के तहत किसी को भी फँसाया जा सकता है। उदाहरण के तौर पर दक्षिणी राज्यों के लोगों, जिनको लगता है कि उत्तर भारत वाले उनके साथ भेदभाव करते हैं, जबकि कर संग्रह में उनका योगदान ज़्यादा होता है, उनकी इस भावना के कारण सेक्शन 152 बीएनएस के ज़रिए उनको फँसाया जा सकता है। सेक्शन 152 बीएनएस में सजा की अवधि भी बढ़ाकर 3 साल से 7 साल कर दी गई है।
यह सब देखकर यह तय हो गया कि सेक्शन 152 बीएनएस सुनियोजित रूप से लाया गया है ताकि लोकतांत्रिक तरीक़े से सरकार की नीतियों के ख़िलाफ़ उठने वाली आवाज़ को दबाया जा सके और पुलिस राज्य बनाकर लोकतांत्रिक गतिविधियों को दंडात्मक बनाया जा सके।
आपराधिक न्याय-तंत्र को नष्ट करना
निर्दोष होने का सिद्धांत (Presumption of Innocence) – जब तक दोष सिद्ध नहीं हो जाये, तब तक गिरफ़्तार व्यक्ति को निर्दोष माना जाएगा। न्याय-व्यवस्था के इस सिद्धांत को समाप्त करने का प्रयास किया गया है।
सेक्शन 37 बीएनएसएस के अन्तर्गत एक पुलिस अधिकारी हर ज़िले में नियुक्त होगा, जो गिरफ़्तार व्यक्ति की विस्तृत जानकारी को संरक्षित करेगा एवं डिजिटली हर जगह इसकी सूचना देगा। इससे निर्दोष होने के सिद्धांत का उल्लंघन होता है, क्योंकि उन जानकारियों को देखने वाला हर व्यक्ति उसको मुजरिम ही समझेगा। इस प्रावधान के और भी दुष्परिणाम होंगे, जो निष्पक्ष सुनवाई (Fair Trial) को बाधित करेंगे। इसके अलावा यह व्यक्ति की निजता का भी उल्लंघन होगा।
सेक्शन 37 बीएनएसएस सेक्शन 41-C Cr. P. C. 1973 पर आधारित है। 41 C के अन्तर्गत ज़िला मुख्यालय के बाहर लगे हुए बोर्ड पर गिरफ़्तार व्यक्ति का डिटेल देने का प्रावधान है और राज्य के स्तर पर डिजिटल जानकारी रखने का प्रावधान है। जबकि नये क़ानून सेक्शन 37 बीएनएसएस में इनको हर जगह प्रचारित करने का प्रावधान किया गया है।
सेक्शन 43 C बीएनएसएस में हथकड़ी लगाने का प्रावधान गरिमा के अधिकार का उल्लंघन करता है
सेक्शन 43(3) बीएनएसएस में हथकड़ी लगाने पर अपने विवेक से फ़ैसला लेने का अधिकार पुलिस को दे दिया गया है, जबकि पुरानी संहिता में कोर्ट से अनुमति लेनी पड़ती थी, जिसका ज़िक्र डी के बसु बनाम स्टेट ऑफ़ वेस्ट बंगाल (1977) में एवं प्रेमशंकर शुक्ला बनाम दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किया गया है। सेक्शन 43(3) बीएनएस दैहिक स्वतंत्रता के विरुद्ध है। यह धारा संविधान की धारा 21 का भी अंत करती है, जो यह कहती है कि हर व्यक्ति के साथ गरिमापूर्ण व्यवहार किया जाना चाहिए, चाहे वह अपराधी क्यों न हो।
निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार की अवहेलना
पुराने Cr. P. C. में वीडियो कॉन्फ़्रेंस सिर्फ़ रिमांड के लिए उपयोग किया जाता था, जबकि नये सेक्शन 251(2) बीएनएसएस में पूरे इन्वेस्टीगेशन एवं ट्रायल के दरम्यान किया जाएगा। यह निष्पक्ष सुनवाई का उल्लंघन है। इसके अलावा सेक्शन 308 बीएनएसएस में यह कहा गया है कि साक्ष्य प्रस्तुत करने के समय अभियुक्त का कोर्ट में रहना ज़रूरी नहीं है। वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के ज़रिए भी रहा जा सकता है।
सेक्शन 356 बीएनएसएस में एक नया प्रावधान किया गया है, जिसमें फ़रार मुजरिम के बारे में कोर्ट यह मान लेगा कि वह अपनी सुनवाई के अधिकार का परित्याग कर चुका है। कोर्ट उसकी ग़ैर-मौजदगी में भी सजा सुना देगी, जो कि नैसर्गिक न्याय (Audi Altarem Partem) अर्थात् बिना सुने किसी को मुजरिम नहीं ठहराया जा सकता, के विरुद्ध है।
नये बीएनएसएस में ऐसा प्रावधान किया गया है, जिसकी वजह से राज्य/पुलिस इतनी मज़बूत हो जाएगी कि अगर पुलिस को लगता है कि आपराधिक कार्य करके संपत्ति अर्जित की गई है तो वह न्यायालय, जिसके अंतर्गत वह क्षेत्र अता है, के पास जाएगी और अगर न्यायालय को ऐसा लगता है, अभियुक्त को सूचना देने से क़ानून का उल्लंघन होगा तो वह उस अपराधी की ग़ैर-मौजदगी में संपत्ति अटैच करने का आदेश देगा, जिसका वर्णन सेक्शन 107(5) से (7) तक में किया गया है। यही नहीं, बल्कि अगर न्यायालय चाहे तो ज़िला अधिकारी को यह आदेश दे सकता है कि उस आपराधिक कार्य द्वारा अर्जित संपत्ति को उस अपराध से प्रभावित लोगों के बीच बाँट दें।
इस तरह बिना अपराध सिद्ध हुए ही कार्यवाही हो जाएगी, जो निष्पक्ष सुनवाई के सिद्धांतों के विरुद्ध है। इसके अलावा यह पुलिस/प्रशासन को अवांछित अधिकार दे देता है कि वह किसी की संपत्ति हड़प ले।
निजता के अधिकार का उल्लंघन : सेक्शन 349 बीएनएसएस
सेक्शन 349 बीएनएसएस पुराने सेक्शन 311-A (Cr. P. C.) का दुहराव है, जिसमें एक महत्वपूर्ण बदलाव किया गया है, जिसके अंतर्गत कोई भी व्यक्ति, जो गिरफ़्तार नहीं हुआ है, उसे भी अगर दंडाधिकारी को लगता है कि किसी अपराध के अन्वेषण में आवश्यक है तो उस व्यक्ति से लिखावट या वाणी या उँगलियों के निशान का नमूना लेने का आदेश दे सकता है। सेक्शन 349 बीएनएसएस के अंतर्गत उस व्यक्ति को गिरफ़्तार करना ज़रूरी नहीं है।
इस तरह से नये क़ानून में पुलिस को ऐसा हथियार दे दिया गया है, जो पहले नहीं था।
पुलिस हिरासत की अवधि को बढ़ाना
सेक्शन 167 Cr. P. C. में 15 दिनों के लिए पुलिस रिमांड पर लेती थी। अब सेक्शन 187 बीएनएसएस में इसको बढ़ाकर 60/90 दिन कर दिया गया है। इस तरह से एक महत्वपूर्ण सुरक्षा, जो मुलज़िम को पुराने सेक्शन 167 Cr. P. C. में थी, वह ख़त्म कर दी गई है। सेक्शन 187(1)-(3) बीएनएसएस को ध्यान से पढ़ने पर पता चलता है कि
क) अब पुलिस हिरासत की अवधि की अधिकतम सीमा 60/90 दिन हो सकती है।
ख) पहले के क़ानून के मुताबिक़ एक बार न्यायिक हिरासत में चले जाने के बाद वह पुलिस हिरासत में सामान्यतया वापस नहीं आता था, पर सेक्शन 147 बीएनएसएस में यह प्रावधान ख़त्म कर दिया गया है।
ग) अब पुलिस जब चाहे किसी व्यक्ति को, जो जेल में है, पुलिस हिरासत में ले सकती है।
घ) पुराने क़ानून में गिरफ़्तारी के बाद पहले 15 दिन में ही पुलिस हिरासत होती थी। अब यह गिरफ़्तारी के बाद किसी भी समय हो सकती है।
सेक्शन 172 बीएनएसएस का दुरुपयोग पुलिस द्वारा करने की पूरी संभावना है, जिसमें यह कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति, जो पुलिस विधिपूर्ण निर्देश को नहीं मानता है, उसे 24 घंटे तक पुलिस हिरासत में रख सकती है। इस धारा में गिरफ़्तारी से बचने के लिए कोई सुरक्षा नहीं प्रदान की गई है।
लोकसेवकों के द्वारा शक्ति के दुरुपयोग में बचाव के रास्ते : सेक्शन 175 बीएनएसएस
अगर किसी लोकसेवक के विरुद्ध कोई व्यक्ति उसके द्वारा किए गए क़ानून के दुरुपयोग की शिकायत दर्ज करता है तो मजिस्ट्रेट उसका संज्ञान तो ले सकता है, लेकिन दो शर्तों के साथ। वह यह कि 1) उक्त लोकसेवक के वरीय अधिकारी द्वारा इसकी एक रिपोर्ट देने के बाद कि किस परिस्थिति में उक्त दुरुपयोग हुआ एवं 2) उस लोकसेवक की प्रतिक्रिया को जान लेने के बाद वह मजिस्ट्रेट कुछ कर पाएगा, जिसकी गुंजाइश बहुत कम है।
एक नया प्रावधान सेक्शन 223(2) बीएनएसएस में किया गया है, जो कहता है कि कोर्ट किसी पुलिस अधिकारी द्वारा किए गए कार्य का संज्ञान लेने से पहले उस अधिकारी को बचाव का मौक़ा देगा एवं वरीय अधिकारी से उस पर एक रिपोर्ट लेगा कि किस परिस्थिति में यह कार्य किया गया है।
एक तरफ़ मुलज़िम को अपने बचाव का मौक़ा दिये बग़ैर कार्यवाही करने की बात की जा रही है और दूसरी तरफ़ अधिकारी के बचाव की बात की जा रही है। इससे साफ़ झलकता है कि यह क़ानून न्याय पर आधारित नहीं, बल्कि शक्तियों के दुरुपयोग पर आधारित है।
अभी तक पूरे देश का यह तजुर्बा रहा है कि कोई पुलिस अधिकारी अपनी गलती नहीं मानता है एवं कोई वरीय पुलिस अधिकारी निष्पक्ष रिपोर्ट नहीं देता है। ऐसी परिस्थिति में सेक्शन 223(2) बीएनएसएस एक अधिकारियों के लिए न्यायिक सुरक्षा चक्र प्रदान करता है एवं नागरिकों को न्याय माँगने की दिशा में यह धारा अवरोध पैदा करती है।
एक अन्य प्रावधान सेक्शन 176 बीएनएसएस में है, जिसमें यह कहा गया है कि अगर किसी पुलिस अधिकारी को कोई व्यक्ति किसी संज्ञेय अपराध की सूचना देता है तो पुलिस अधिकारी बिना न्यायिक अधिकारी के आदेश के वह जाँच कर सकता है एवं अगर वह पुलिस अधिकारी यह समझता है कि यह अपराध अन्वेषण के लायक़ नहीं है तो वह जाँच नहीं करेगा और उसकी जानकारी शिकायतकर्ता को नहीं देगा। जबकि पिछले Cr. P. C. में यह बात थी अगर पुलिस अधिकारी जाँच नहीं करेगा तो वह इसकी सूचना शिकायतकर्ता को अवश्य देगा ताकि शिकायतकर्ता किसी दूसरे उपचार की मदद ले सके। जबकि सेक्शन 176(1) और (2) बीएनएसएस में पुलिस को छूट है कि वह अपना फ़ैसला ख़ुद करे एवं किसी को दंड-मुक्त कर दे।
सजा को कम या बदलने (Commute) की शक्ति : सेक्शन 477 बीएनएसएस
सेक्शन 477 बीएनएसएस सेक्शन 435Cr. P. C. का दोहराव है। लेकिन सेक्शन 435 Cr. P. C. के अन्तर्गत अगर राज्य सरकार किसी सजायफ़ता की सजा में कोई बदलाव लाना चाहती है तो केंद्र सरकार से परामर्श करेगी, जबकि सेक्शन 477 बीएनएसएस में स्वीकृति लेगी (अर्थात् Consultation शब्द को हटाकर Concurrence कर दिया गया है।) यानी सारी शक्तियाँ केंद्र सरकार केंद्रित करना चाहती है, जो संघीय ढाँचे के सिद्धांत के विरुद्ध है।
विरोध करना अब एक जुर्म होगा : सेक्शन 226 बीएनएस
एक नये प्रावधान सेक्शन 226 बीएनएस के माध्यम से भूख हड़ताल को अपराध बना दिया गया है और उसमें एक साल का कारावास या आर्थिक दंड या दोनों या कम्युनिटी सर्विस का प्रावधान है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि देश की आज़ादी से लेकर आज तक हमारे नेता एवं जनता भूख हड़ताल, धरना, प्रदर्शन एक लोकतांत्रिक हथियार के रूप में उपयोग करते आ रहे हैं। यह हमारे विरोध करने का अहिंसक तरीक़ा रहा है। अब नये प्रावधान के अंतर्गत यह जुर्म माना जाएगा।
पीड़ित के न्याय प्राप्त करने में अड़चन पैदा करना : सेक्शन 173 बीएनएसएस
ललिता कुमारी बनाम उत्तरप्रदेश सरकार (2014) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने यह फ़ैसला दिया कि अगर कोई संज्ञेय अपराध होता है तो थाना इंचार्ज FIR पंजीकृत करेगा और उस पर तफ़तीश शुरू करेगा। जबकि सेक्शन 173 बीएनएसएस में यह प्रावधान किया गया है कि अगर कोई संज्ञेय अपराध, जिसकी सजा 3 से 7 साल तक की है तो थाना इंचार्ज DSP या उससे वरीय अधिकारी से इजाज़त लेकर 14 दिनों की अवधि में यह पता करेगा कि अपराध हुआ है या नहीं एवं इस पर FIR दर्ज किया जाये या नहीं। यह बिलकुल न्याय की आत्मा के और माननीय उच्चतम न्यायालय के आदेश के ख़िलाफ़ है।
इस प्रकार एक तरफ़ सेक्शन 173(3) बीएनएसएस में शुरुआती जाँच का प्रावधान है एवं दूसरी तरफ़ सेक्शन 176(2) बीएनएसएस में पीड़ित को इसकी सूचना देना आवश्यक नहीं है कि उसका केस जाँच के लायक़ है या नहीं। इस परिस्थिति में पीड़ित के साथ न्याय होने की संभावना न के बराबर है।
समाज सेवा : सेक्शन 4(f) बीएनएस एवं सेक्शन 23 बीएनएसएस
एक नया प्रावधान बीएनएस एवं बीएनएसएस दोनों में सेक्शन 4(f) बीएनएस एवं सेक्शन 23 बीएनएस के अंतर्गत समाज सेवा का प्रावधान किया गया है। सेक्शन 4(f) बीएनएस कहता है कि मृत्युदंड, आजीवन कारावास आदि जैसे दंड के बदले समाज सेवा का प्रावधान भी किया जा सकता है।
उसी तरह से सेक्शन 23 बीएनएसएस भी यह कहता है कि दंडाधिकारी समाज सेवा की सजा सुना सकता है, जिसमें अपराधी को कोई काम करना होगा जिसका मुआवज़ा नहीं दिया जाएगा। उन अपराधों में सेक्शन 226 बीएनएस आत्महत्या की कोशिश, सेक्शन 303 बीएनएस पाँच हज़ार से कम की चोरी, सेक्शन 355 बीएनएस शराब पीकर अभद्र व्यवहार का मामला एवं सेक्शन 356 बीएनएस मानहानि के मामलत हैं, जिनमें समाज सेवा की सजा सुनाई जा सकती है। जबकि समाज सेवा क्या है, इसको परिभाषित नहीं किया गया है। हालाँकि संसद की स्टैंडिंग कमिटी ने इसकी सिफ़ारिश की थी कि समाज सेवा क्या है, इसका पूरा विवरण होना चाहिए ताकि भविष्य में कोई शंका न रहे। मगर उसको नज़र अन्दाज़ कर दिया गया।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपर्णा भट बनाम मध्यप्रदेश (2021) के मामले में अपने निर्णय में इस बात का खेद प्रकट किया कि कुछ उच्च न्यायालय समाज सेवा दंड के नाम पर अजीबोग़रीब फ़ैसले सुना रहे हैं, मसलन पीड़िता से यौन हिंसा करने वाले को राखी बँधवा दिया, जिससे यौन हिंसा करने वाला न्याय के प्रावधान के अंतर्गत पीड़िता का भाई बन गया। इसी तरह बेल देने के लिए शर्त के तौर पर पीड़िता को गिफ्ट दिलवा दिया तो कहीं पेड़ लगवा दिया तो कहीं पीएम केयर फण्ड में दान करवा दिया। इस तरह से समाज की रूढ़िवादी मानसिकता को न्याय की व्याख्या में डालने का प्रयास किया गया है।
पुरुषों का पुरुषों द्वारा बलात्कार
सर्वोच्च न्यायालय ने नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत गणराज्य (2018) के मामले में फ़ैसला सुनाया था कि दो वयस्क पुरुषों के बीच सहमति से किया गया यौन संबंध आपराधिक नहीं है, जबकि असहमति से किया गया यौन संबंध अपराध रहेगा। जबकि नये क़ानून में सेक्शन 377 IPC (अप्राकृतिक यौन संबंध) को पूर्णतः हटा दिया गया है। पूर्णरूपेण सेक्शन 377 IPC को हटा देने के बाद किसी पुरुष द्वारा दूसरे पुरुष का यौन शोषण या किसी तृतीय लिंग का यौन शोषण पर कोई दंड नये क़ानून बीएनएस में नहीं है, जबकि संसद की उपसमिति ने अपनी अनुशंसा में कहा था कि इस प्रकार के अपराध के लिए दंड का प्रावधान होना चाहिए। मगर नये दंड संहिता में उसको अनदेखा कर दिया गया।
उसी तरह सेक्शन 63व्याख्या 2 बीएनएस में वैवाहिक बलात्कार को हटा दिया गया है, जबकि महिला आंदोलनों की लंबे समय से इस क़ानून की माँग रही है।
व्यभिचार से संबंधित अपराध : सेक्शन 84 बीएनएस
सर्वोच्च न्यायालय ने जोसेफ शाइन (2018) के केस में व्यभिचार को सेक्शन 497 IPC की धारा से समाप्त कर दिया। यह कहते हुए कि यह औरतों की गरिमा के अधिकार (अनुच्छेद 21 भारतीय संविधान) की अवहेलना करता है। इसको निष्क्रिय करने के लिए संसद की उपसमिति ने यह अनुशंसा की कि एक लिंग-तटस्थ प्रावधान किया जाये, क्योंकि विवाह की मर्यादा को बरकरार रखने के लिए इस प्रावधान का क़ानून में रहना आवश्यक है। संसदीय समिति की इस अनुशंसा को नहीं माना गया। लेकिन सेक्शन 84 बीएनएस में 498 आईपीसी के इस प्रावधान को ज्यों-का-त्यों रख दिया गया है। जबकि सर्वोच्च न्यायालय का इस प्रावधान को लेकर टिप्पणी थी कि लिंग के प्रति तटास्थ (Gender Natural) क़ानून होना चाहिए। सेक्शन 84 बीएनएस में महिलाओं की इच्छाओं और स्वतंत्रता पर लगाने वाली पुरानी रूढ़िवादी परंपराओं को पुनर्स्थापित करता है।
नफ़रत आधारित अपराध (Hate Crime) : नये अपराध से परिचय
पिछले कई सालों से यह देखा जा रहा है कि मॉब लिंचिंग (भीड़ के द्वारा मार डालना) की घटनायें घटित हो रही हैं। अल्पसंख्यक एवं दलित समुदाय के व्यक्ति को बिना वैध न्याय-प्रक्रिया को अपनाये हुए क़ानून अपने हाथ में लेकर भीड़ पीट-पीट कर मार दे रही है।इस तरह की घटनाओं पर सर्वोच्च न्यायालय ने तहसीन पूनावाला वाद 2018 में सख़्त टिप्पणी की थी कि इस विषय पर क़ानून बनाये।
भारतीय दंड संहिता में सेक्शन 117(4) के द्वारा नफ़रत आधारित (Hate Crime) को लाया गया है। सेक्शन 117(4) बीएनएस में कहा गया है कि पाँच या पाँच से ज़्यादा व्यक्ति किसी भी आदमी को जात-पात, लिंग या जन्म स्थान, भाषा के आधार पर गंभीर चोट (Grievous Hurt) पहुँचतेपहुँचाते हैं तो उन्हें 7 साल की सजा दी जाएगी। सेक्शन 103 बीएनएस के अनुसार अगर भीड़ जान से मार देती है तो मृत्युदंड या आजीवन कारावास की सजा होगी।
इन प्रावधानों में ख़ास बात यह है कि बीएनएस के दोनों प्रावधानों सेक्शन 117(4) बीएनएस या सेक्शन 103 बीएनएस में कहीं भी मॉब लिंचिंग या हेट क्राइम का ज़िक्र नहीं किया गया है साथ ही धर्म या धार्मिक मान्यताएँ शब्द का भी प्रयोग नहीं किया गया है। यह समझना कठिन है कि भूलवश ऐसा हो गया है या जानबूझकर इस शब्द का समावेश नहीं किया गया है। यह अल्पसंख्यकों के विरुद्ध एक पक्षपात को दर्शाता है।
सारांश
यहाँ हमने कुछ महत्वपूर्ण विरोधाभासों को, जो नये क़ानून (बीएनएस, बीएनएसएस एवं बीएसए 2023) में हैं, को दर्शाया है। इन सभी प्रावधानों को पढ़ने एवं समझने से एक बात तो तय हो गई है कि ये तीन नये क़ानून भारत को एक पुलिस राज्य की तरफ़ ले जा रहे हैं, जिसका दूरगामी परिणाम देशवासियों के मानवाधिकारों पर पड़ेगा। अगर संविधान का कुछ भी ख़्याल रखा गया होते तो इस तरह के क़ानून नहीं आते।
(इसमें प्रस्तुत विचार पीयूसीएल के विचार हैं।)