बचपन में मैं बंशी से मछली पकड़ता था। जमीन खोद कर चेंड़ा ( केंचुआ) निकालता और उसे बंशी में गूंथ कर अहरे के पानी में डालता। पोठिया मछली होती तो बहुत छोटी है, मगर बहुत चालाक होती है। वह आती और चेंड़ें में मुंह मारती और छोटे – छोटे टुकड़े कर चेंड़ा खा जाती। कभी कभी अतिरिक्त लोभ करती तो फंस भी जाती। एक मछली होती थी बुल्ला। उसका गरैय से छोटी होती, लेकिन उसका मुंह बड़ा होता और वह चेंड़ा समेत बंशी को निगल कर पानी में स्थिर बैठ जाती। पानी पर तैरता जो टंडेल होता, वह भी पानी के सतह पर स्थिर पड़ा रहता। बुल्ला ढीमाठ होती। कभी कभी केंकड़ा भी बंशी पर बैठ जाता। अहरे में कतला, बुआरी,गरैय टेंगरा और मांगुर मछली भी होती। कभी कभार ये मछलियां भी बंशी में फंस जातीं। इस बार छठ में घर पहुंचा तो सभी अहरे सूखे थे। गांव वालों ने कहा कि अब बारिश ही कितनी होती है! खेतों में जो धान लगे हैं, उन्हें भी ठीक से फूटने के लिए एक पानी चाहिए। मैंने पूछा कि मछलियां खेतों और अहरों में होती हैं या नहीं? लोगों ने कहा कि अब कहां मछलियां? घोंघा, चेंड़ा तक नहीं मिलते। कीटनाशकों ने सभी जंतुओं को निगल लिया। केंचुआ को जब हमने आधुनिक खेती के नाम पर मार दिया, तब अब केंचुआ विकसित करने के लिए वैज्ञानिक उपक्रम कर रहे हैं। एक तरफ प्रकृति को हम उजाड़ने में लगे हैं, दूसरी तरफ लोग प्राकृतिक चीजें की ओर आकर्षित हो रहे हैं। डिब्बे पर सिर्फ हर्बल लिख दिया जाय तो उसकी बिक्री बढ़ जाती है। बाबा रामदेव के उत्थान के पीछे यह भी एक कारण है। खेती-बाड़ी पूंजी और पूंजीपतियों के लोभ का शिकार हो गयी है।
दरअसल मुझे सुबह सुबह केंचुआ और मछली की याद इसलिए हो गई क्योंकि सोशल मीडिया पर चुनाव आयोग को केंचुआ आयोग कहा जा रहा है। केंचुआ को मुफ्त में बदनाम किया जा रहा है। यह सच है कि केंचुआ में रीढ़ नहीं होती, लेकिन तब भी वह मिट्टी को उपजाऊ बनाता है। वह किसानों का मित्र और धरती का हलवाहा कहा जाता है। चुनाव आयोग तो लोकतंत्र से जन्मा और लोकतंत्र को ही खा रहा है। यह तो पितृहंता है। केंचुआ बहुत बेहतरीन प्राणी है, चुनाव आयोग ने तो अपनी मिट्टी पलीद कर कर ली। लाखों वोटर ऐसे हैं, जिनके घर के सामने शून्य लिखा है। श्रीमान ज्ञानेश जी फरमाते हैं कि जिनके घर नहीं होते, उन वोटरों के घर की जगह शून्य लिखा है। सवाल यह भी है कि तब वे वोटर बनते कैसे हैं ? कौन सा प्रमाण वोटर बनने के समय पेश करते हैं? ऐसे फ्लोटिंग वोटरों की तलाश कैसे होगी? मैं कोशी शिक्षक निर्वाचन क्षेत्र से दो बार चुनाव लड़ चुका हूं। संबद्ध कालेजों में क्लर्क और चपरासी भी वोटर बना दिए जाते थे। एक उम्मीदवार चौदह जिलों के स्कूलों और विश्वविद्यालयों की जांच कैसे करे कि कौन शिक्षक है और कौन क्लर्क या चपरासी? शहर के एक वार्ड के भी सभी वोटरों को कोई एक आदमी नहीं पहचानता। वह यह कैसे पता करे कि कौन वोटर दूसरे या तीसरे बूथ पर भी वोटर है? यह काम तो चुनाव आयोग का है। चुनाव आयोग का काम है शुद्ध मतदाता सूची बनाना और निष्पक्ष चुनाव कराना। दलों का काम है चुनाव लड़ना। लोकतंत्र में काम बंटा हुआ है, लेकिन हमने चेहरे को खरोंच कर लज्जा नामक चीज को हटा दिया है। सरकार अब पितृहंता आयोग से मतदाता की अपनी सूची बनवा रही है। अगर आप पूछिए कि यह सब खत्म कैसे होगा? तो इलाज मात्र एक है – जन आवाज, जनता की एकजुटता और संघर्ष। अगर मेरी संपत्ति लुटी जा रही है तो इसे बचायेगा कौन?

प्रोफेसर, पूर्व विभागाध्यक्ष, विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग
पूर्व डीएसडब्ल्यू,ति मां भागलपुर विश्वविद्यालय,भागलपुर








नमस्कार महोदय,चुनाव आयोग का बिल्कुल सही तुलनात्मक चित्रण आपने किया है l