इन दिनों : बुद्धिखोर और आधुनिक अंगुलिमाल 

धर्म और पूँजी के खेल में आमजन इस तरह उलझ गया है कि उसकी स्वचेतना समाप्त हो गई है। वह बाबाओं और मुनाफाखोरों के चश्मे से दुनिया को और ख़ुद अपने जीवन को भी देखने लगा है।

कल बिहार चुनाव का रिजल्ट आने वाला है। प्री पोल और एक्जिट पोल का खेल हम सबने देखा। स्टूडियो में ठंडी हवाओं का लुत्फ लेते हुए चार-पांच कटु भाषियों को बैठाकर टेलिविजन जो हुड़दंग करता है, वह न देखने लायक होता है, न सुनने लायक। इनमें परस्पर प्रतियोगिता होती है कि कौन किसको कितने अपशब्द से नवाजता है। एंकर भी लड़ने और गंदी भाषा का इस्तेमाल करने के लिए छोड़ देता है। हम इस लायक भी नहीं रह गये हैं कि स्वस्थ मन से बहस भी कर सकें। घमंड में चूर पार्टियों के प्रतिनिधि ऐसे बोलते हैं कि लगता है कि पूरी दुनिया उसके कदमों में लोट रही है।

प्री पोल महज एक खेल है जो पैसे से खरीदा जाता है और मतदाताओं को लुभाने की कोशिश की जाती है। आज कई सर्वे एजेंसियां हैं, जिनका यही धंधा है। करोड़ों करोड़ लोगों की चेतना और मन को कुछ हजार लोगों से पूछताछ कर जान लेते हैं। एक्जिट पोल तो अजब-गजब है। इतने तरह के एक्जिट पोल होते हैं कि परस्पर के आँकड़े एक दूसरे से टकराते हैं। ये आँकड़े ही उन्हें झूठे साबित करते हैं। बिहार चुनाव में तो एक्जिट पोल की बाढ़ आ गई। चैनल एक्जिट पोल परोसते-परोसते परेशान हो गया। लोकतंत्र का यह नया खेल है और पूंजी का भी। पूंजीपतियों और सत्ताधारियों के इस खेल को समझना अब आसान नहीं रह गया है। खास कर तब जब जनता जातियों और संप्रदायों में विभक्त होती जा रही है, संवैधानिक संस्थाओं के टेंटुए दबा दिए गए हैं और बुद्धिखोरों की एक मजबूत जमात बन गई हो जिसका काम जलते हुए शब्दों, असंगत तर्कों और डंडीमार विचारों से जनता को बेवकूफ बनाना है। 

फेसबुक पर देखता हूं ज्यादातर लोग अपनी अपनी जातियों के पीछे लामबंद हैं। जिनसे मैं उम्मीद करता रहा हूं कि वे कम से कम निष्पक्ष लिखेंगे, वे भी जाति के पक्ष में खड़े दिखते हैं। भारत में इंसान जन्म ही नहीं लेता, जाति जन्म लेती है। पढ़ लें, उच्च पद पर स्थापित हो जायें, जाति से मुक्ति नहीं है। प्रधानमंत्री को जब लगता है कि गेम हार रहे हैं, तो भरे मंच से कहते हैं – मैं तो ओबीसी हूं।

अंगुलियों पर आप निष्पक्ष लोगों को गिन सकते हैं। वैसे निष्पक्ष लोगों का भी एक पक्ष होता है – इंसान, इंसाफ और सत्य का पक्ष। यही वह पक्ष है, जिसे हमने जीवन से खारिज कर दिया है। भारत की तकलीफ़ इसलिए भी बढ़ती जा रही है। एक तरफ घोषणा करते हैं कि हम सब ईश्वर की संतान हैं। दूसरी हमारी इतनी हालत खराब है कि छूने मात्र से धर्म में दाग लग जाता है। कोई राम कथा कहने लगे तो उस पर स्त्री का पेशाब छिड़का जाय। अगर यह धर्म है तो ऐसे धर्म बचा कर क्या कीजिएगा? धार्मिक होना अलग बात है और धर्म का ढिंढोरा पीटना अलग बात। जो धार्मिक होगा, वह करुणा से ओतप्रोत होगा। वह खालिस इंसान होगा। नफ़रत उसे छू भी नहीं पायेगी। आजकल के बाबाओं ने जो रौद्र रूप धारण किया है, लगता है कि धर्म को धरती पर से उठा कर ही मानेगा। हर दिन नफ़रत को जन मानस में घोलना एकमात्र धंधा रह गया है। दरअसल इन्होंने धर्म को धंधा में तब्दील कर दिया है। राम कथा कहने कहीं जाते हैं तो‌ लाखों लाख पहले वसूल लेते हैं। कई के पास तो इतनी संपत्ति है कि निजी प्लेन खरीद लिया है। भक्त को कुछ मिले ना मिले, बाबाओं की तो दसों अंगुलियों घी में हैं।

मुझे तो लगता है कि अंगुलिमाल मुक्त में बदनाम था, उससे कहीं बड़े बड़े भयावह अंगुलिमाल समाज में मौजूद हैं। 

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प्रोफेसर, पूर्व विभागाध्यक्ष, विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग

पूर्व डीएसडब्ल्यू,ति मां भागलपुर विश्वविद्यालय,भागलपुर

डॉ योगेन्द्र
डॉ योगेन्द्र

प्रोफेसर, पूर्व विभागाध्यक्ष, विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग

पूर्व डीएसडब्ल्यू, ति मां भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर

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