मैं फेसबुक पर सिर्फ पोस्ट देखता हूं। बिहार का चुनाव हुआ। चुनाव संपन्न होते ही विधायकों की जाति की गणना शुरू हुई। लोग अपनी-अपनी जाति के विधायकों की संख्या गिनाने लगे। राजपूत, कुशवाहा, ब्राह्मण, भूमिहार, यादव, कुर्मी के विधायकों की संख्या फेसबुक पर तैरने लगी और उनके गर्व -गौरव के आख्यान ढूंढे जाने लगे। जनता ने भी अपने-अपने बछड़े की जाति देखी और उसके अनुसार वोट किया। कहीं-कहीं मजबूरी में दूसरी जाति को वोट दिया। वहां भी उसने दूर का खेल खेला।
जाति आधारित यह राजनीति भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा गढ़ है। यह रोग ही नहीं, महारोग है। बिहार सहित भारत का समाज इसलिए पश्चिमी जगत या चीन से टक्कर नहीं ले पा रहा, क्योंकि यह मूलतया भ्रष्ट समाज है। यहां आदमी को आदमी नहीं माना जाता। आजादी की लड़ाई में जाति थोड़ी दबी थी। एकजुटता का बोध बढ़ा था। आजादी के बाद की राजनीति ने जातियों को और गाढ़ा किया है और अब सिर पर नाच रहा है।
मैं 2018 में ति मां भागलपुर विश्वविद्यालय में डीएसडब्ल्यू बना। वर्षों से कुछ लड़के अवैध ढंग से छात्रावासों पर कब्जा जमाये बैठे थे। मैंने उन्हें छात्रावास खाली करने का आदेश दिया। अखबार में खबर रंगी जाने लगी। तरह-तरह के तिकड़म हुए। अवैध छात्रों ने विश्वविद्यालय में किसी-न-किसी बहाने से डिस्टर्ब किया। मैं अड़ा रहा। अंततः मैंने पुलिस बुलवायी तो छात्रावास खाली हुआ। अब इस घटना को जाति-रंग दिया जाने लगा। छात्रावासों में अवैध कब्जाधारियों में एक जाति के लड़कों की संख्या ज्यादा थी। नतीजा हुआ कि जब-जब मैं बिहार विधान परिषद का उम्मीदवार बना, इन लोगों ने मेरा जम कर विरोध किया और विरोध करने के लिए अपनी जाति को उकसाया। पढ़े-लिखे लोगों को भी लगता है कि उनकी जाति के बच्चे छात्रावासों पर कब्जा जमाये बैठे हैं, तो वह ग़लत नहीं है। ऐसे लोग अगर दूसरे के अन्याय का विरोध करेंगे तो उनकी बात लोग क्यों सुनेंगे?
महात्मा गांधी, डॉ अम्बेडकर, डॉ लोहिया, पेरियार, महात्मा ज्योतिबा फुले आदि की प्रतिमा लगा कर बहुजन एकता की नहीं, जाति एकता की बात करोगे तो इसका खामियाजा सिर्फ जाति नहीं, देश भुगतेगा। हम काम, योग्यता आदि पर वोट नहीं दे रहे, बछड़े के दांत गिन कर वोट कर रहे हैं। बिहार में सबसे पढ़ा लिखा आदमी चुनाव हार गया और अनेक गली के गुंडे विधानसभा पहुंच गए। किसी ने गड्डी थमायी, हम बिक गये। यह स्थिति गुलामी वाली है। कोई भी हरी घास दिखायेगा और हम पशुओं की तरह उसके पीछे-पीछे लग जायेंगे। औपनिवेशिक सत्ता में से सिर्फ अंग्रेज निकल गये। मानसिकता वैसी ही रही। अंग्रेजों की जगह जिसने ली, वे और भी भयानक होते जा रहे हैं। हमारी चाल और रंग-ढंग बदलते जा रहे हैं। बीजेपी जो स्वदेशी की बात करती थी। बहुराष्ट्रीय कंपनियों और पूंजीपतियों का दलाल बन गई है। जो ‘महात्मा’ हिन्दू राष्ट्र का प्रवचन दे रहे हैं, वे अपने को ब्राह्मण साबित करने में लगे हैं। जो बहुजन की राजनीति कर रहे हैं, वह जाति में तब्दील हो रहे हैं। जो वंदे मातरम् कर रहे हैं, वे वंदे अडानी कर रहे हैं। आज देश को एक कबीर चाहिए, जो कम-से-कम समय को दर्ज कर दे। जो कहते हुए झिझके नहीं। खालिस सच कह और बोल दे। कोई अगर उसे पागल भी घोषित करे , तब भी वह मैदान में डटा रहे।
इतना भर तो तय है कि यह दौर भी जायेगा, लेकिन यह दौर भारत की आत्मा को कहीं कुचल न दे। सत्य की जगह झूठ और बेईमानी स्थापित नहीं हो जाय, यह डर तो हमें लगना ही चाहिए।

प्रोफेसर, पूर्व विभागाध्यक्ष, विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग
पूर्व डीएसडब्ल्यू,ति मां भागलपुर विश्वविद्यालय,भागलपुर




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