ठंड है, मगर कड़कड़ाती हुई नहीं है। हवा थमी हुई है। पेड़ों के पत्ते सुनहरी किरणों का लुत्फ ले रहे हैं। सुबह से खिड़कियों के शीशे पर बादुर चिड़िया चोंच मार रही है। यह अक्सर होता है। कभी बुलबुल तो कभी बादुर इस कार्य में तल्लीन रहती है। मुझे अब तक यह समझ में नहीं आया है कि आखिर शीशे से उसे इतनी नफ़रत क्यों है? लकड़ियों से बनी खिड़कियों को वे कुछ नहीं कहतीं, शीशे को लेकर उनको खुन्नस है। शीशे उसे पसंद नहीं है। लोकतंत्र है देश में, पसंद नहीं है तो कोई बात नहीं। उसने अपनी नाराज़गी ज़ाहिर कर दी, यह भी ठीक है, लेकिन हर दिन नाराज होना, यह तो ठीक नहीं है। माना कि शीशे की जगह लकड़ियां होतीं तो तुम्हारे मन लायक होता, मगर लकड़ियां भी आसानी से कहां मिल रहीं। मिलतीं भी हैं तो कीमत पहुंच के बाहर होती हैं। शीशे घर के लिए अच्छे नहीं होते। गर्मी में ज्यादा गर्म और ठंडी में उनकी तासीर अच्छी नहीं होती। मगर क्या किया जाए? जंगल पर इतना तेज आक्रमण है कि लकड़ियां आराम से नहीं मिलतीं।
धन्ना सेठों की बात अलग है। सत्ता जिसकी गुलामी करने लगे, उसे भला किन चीजों की कमी रह जाती है! संसद में कोई बैठे, उन्हें ज्यादा तकलीफ़ नहीं होती। खनखनाते सिक्कों की अपनी फितरत होती है। उसके सामने अच्छे अच्छों की पैंट गीली हो जाती है।
हजारों एकड़ हंसदेव जंगल काटे गए। सरकार ने उन्हें खुली छूट दी। सरकार के नुमाइंदे पर्यावरण दिवस पर एक पेड़ रोप कर अपने को धन्य समझते हैं। इनकी हालत टिटहरी की तरह है। आंधी आती है तो टिटहरी बालू में सिर गांथ कर आंधी को थामने का ऐलान करती है।
लद्दाख के पर्यावरणविद् और वैज्ञानिक समझ रखने और काम करने वाले सोनम वांगचुक जेल में हैं। वे राष्ट्रीय सुरक्षा कानून की तरत गिरफ्तार हुए हैं। लद्दाख के लिए मर मिटने वाले जेलों में कैद हैं और जिनको लद्दाख की जमीन हड़पनी है, वे सत्ता के साथ गलबहियां कर रहे हैं। अगर लद्दाख की जमीन बचाने के लिए सोनम वांगचुक लद्दाख को संविधान की आठवीं अनुसूची में डालने की मांग कर रहे हैं तो वे कौन सा गुनाह कर रहे हैं?
370 धारा हटाते वक्त केंद्र सरकार ने न जाने कितने दावे किए थे। इन दावों में एक दावा यह था कि आतंकवाद की रीढ़ टूट जायेगी। क्या 370 हटने के बाद सारे आतंकवादी मारे गये और आतंकवाद का नाश हो गया? दरअसल 370 धारा जम्मू और कश्मीर को एक आंतरिक सुरक्षा भी देती थी। अब यह धारा हटने के बाद पूंजीपतियों की नजर लद्दाख और जम्मू की जमीन पर है। सरकार औने पौने दामों में पूंजीपतियों को जमीन दे रही है। पीरपैंती में हजारों एकड़ जमीन के एवज में सरकार ने किसानों को हजारों करोड़ रुपए दिए और फिर सरकार ने एक रुपए में अडानी को जमीन दे दी। हजारों करोड़ रुपए किसके हैं? वह या तो जनता का पैसा है या वह भी कर्ज का पैसा है! वहां के किसान चुप हैं, क्योंकि उन्हें करोड़ों करोड़ मिल गया है, लेकिन करोड़ों करोड़ सरकारी रूपये सरकार अडानी को दान कर रही है।
हम आज शांत रहेंगे, क्योंकि हम सरकार और पूंजीपतियों की बेईमानी नहीं समझ रहे, लेकिन देश के लिए एक बड़ा खतरा उत्पन्न हो रहा है। सरकार की दलाली करने वाले बुद्धिजीवी और पत्रकार एक तरह से देश को आंतरिक गुलामी में धकेलने के गुनहगार हैं। चैनल पर मुंह फाड़कर उलजलूल तर्कों के माध्यम से सरकार का समर्थन कर अपने को धन्य समझने वाले ऐसे लोग आस्तीन के सांप की तरह हैं।

प्रोफेसर, पूर्व विभागाध्यक्ष, विश्वविद्यालय हिन्दी विभाग
पूर्व डीएसडब्ल्यू,ति मां भागलपुर विश्वविद्यालय,भागलपुर






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