सामाजिक न्याय की समावेशी राजनीति पर प्रश्नचिह्न : बिहार में मुस्लिम प्रतिनिधित्व और भागीदारी
लोकतन्त्र की संकल्पना मूलतः प्रतिनिधित्व और भागीदारी पर आधारित है। यही प्रतिनिधित्व और भागीदारी लोकतान्त्रिक राजनीति को समावेशी बनाता हुआ निर्वाचित सरकारों के उत्तरदायित्व एवं जबावदेही को सुनिश्चित करता है। इस तरह से समावेशी विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ निर्मित होती हैं। यही वह बिन्दु है, जहाँ भारतीय मुसलमानों के बहिष्करण का आधार तैयार होता है। यह बहिष्करण चौतरफा है, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक।
पिछला दशक : मुसलमानों के राजनीतिक बहिष्करण की प्रक्रिया का तेज़ होना
पिछले साढ़े तीन दशकों को भाजपा के राजनीतिक उभार के दशक की संज्ञा दी जाए, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस दौरान उत्तर भारत से लेकर पश्चिम भारत तक भाजपा का न केवल राजनीतिक उभार हुआ, वरन् इसने खुद को मुख्यधारा की राजनीति में इतनी मज़बूती से स्थापित किया, कि धीरे-धीरे मुख्यधारा में पहले से स्थापित राजनीतिक दलों के मार्जिनलाइजेशन की प्रक्रिया तेज होती चली गयी। विशेष रूप से उत्तर भारत में इसे सामाजिक न्याय की राजनीति से मुक़ाबला करना पड़ा और उसकी चुनौती का सामना करना इसके लिए आसान नहीं रहा। लेकिन, इसने सामाजिक न्याय की राजनीति से मुक़ाबला करते हुए उसके अन्तर्विरोधों का लाभ उठाया और और उनकी क़ीमत पर अपनी पॉलिटिकल मेनस्ट्रीमिंग सुनिश्चित की। इस क्रम में नरेन्द्र मोदी का उभार संभव हुआ और उनके नेतृत्व में भारतीय राजनीति में उग्र एवं आक्रामक हिन्दुत्व की राजनीति का दौर शुरू हुआ, जिसने सामाजिक न्याय की लोकतान्त्रिक राजनीति को पुनर्परिभाषित किया। और, अब देश बहुसंख्यकों के वर्चस्व वाली दक्षिणपंथी हिन्दुत्व की विभाजनकारी राजनीतिक चुनौतियाँ का सामना कर रहा है। इसलिए देश की राजनीति में पिछले दशकों को अगर बीजेपी के उभारों वाले दशक की संज्ञा दी दी जाए, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
इसे भी देखें –
वर्ष 2013-14 में नरेन्द्र मोदी ने जिस बहुसंख्यक वर्चस्ववादी राजनीति की ठोस जमीन तैयार की, उसने मुसलमानों के राजनीतिक बहिष्करण का आधार तैयार किया और इसका परिणाम मुसलमानों के प्रतिनिधित्व एवं भागीदारी में कमी के रूप में सामने आया। इसने न केवल ‘सबका साथ, सबका विकास’ के भारतीय प्रधानमन्त्री के दावे की असलियत को सामने लाते हुए उन्हें बेनकाब किया और यह बतलाया कि इस ‘सब’ के दायरे में और चाहे जिसके लिए जगह हो, मुसलमानों के लिए जगह नहीं हैं। प्रमाण है पिछले एक दशक के दौरान संसदीय राजनीति से लेकर प्रान्तीय विधायी राजनीति तक में मुसलमानों की कम होती भागीदारी। इसकी पुष्टि बिहार की राजनीति से भी होती है।
बिहार : मुस्लिम आबादी का संकेन्द्रण
जातिगत जनगणना, 2022-23 के अनुसार, बिहार में मुसलमानों की आबादी करीब 2.32 करोड़ है। बिहार में जहाँ सीमांचल के ज़िलों : किशनगंज, कटिहार और अररिया में मुसलमानों की आबादी 42 प्रतिशत से अधिक है, वहीं पूर्णिया में यह क़रीब 38.5 प्रतिशत के स्तर पर। मिथिलांचल के विभिन्न ज़िलों और चम्पारण में भी मुसलमानों की आबादी क़रीब 20 प्रतिशत से अधिक के स्तर पर है। इस प्रकार राज्य के विभिन्न हिस्सों में क़रीब 32 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जहाँ मुसलमानों की आबादी 30 प्रतिशत से अधिक है।
इसे भी देखें –
बिहार की प्रान्तीय विधायिका और मुसलमान (1990-2020)
कुल जनसंख्या में मुस्लिम आबादी का शेयर 17.7 प्रतिशत है, और कायदे से बिहार विधानसभा में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व 43 होना चाहिए। लेकिन, पिछले साढ़े तीन दशकों के दौरान सम्पन्न आठ विधानसभा चुनावों में मुस्लिम विधायकों की औसत हिस्सेदारी लगभग 8 प्रतिशत के स्तर पर रही है। यह 1990 के चुनाव में न्यूनतम 5.5 प्रतिशत रही, तो 2015 के चुनाव में अधिकतम 9.87 प्रतिशत।
फ़रवरी, 2005 में सम्पन्न विधानसभा चुनाव के दौरान सर्वाधिक 24 मुस्लिम विधायक (9.8 प्रतिशत) निर्वाचित हुए, लेकिन इस बार किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिल पाया। त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में नवम्बर, 2005 में एक बार फिर से नए सिरे से विधानसभा चुनाव करवाए गए। इस चुनाव में भाजपा और जनता दल (युनाइटेड) द्वारा निर्मित राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन (National Democratic Alliance: NDA) को स्पष्ट बहुमत मिला, लेकिन निर्वाचित मुस्लिम विधायकों की संख्या 24 से कम होकर 18 रह गयी। इनमें एनडीए गठबन्धन से कुल 5 मुस्लिम विधायक (4 जदयू और 1 भाजपा) निर्वाचित हुए, जबकि गैर-एनडीए गठबन्धन से 11 विधायक (1 निर्दलीय सहित)।
वर्ष 2010 में सम्पन्न विधानसभा चुनाव में कुल 19 मुस्लिम विधायक (7.81%) निर्वाचित हुए। इनमें जदयू से 7 और भाजपा से 1 मुस्लिम विधायक निर्वाचित हुए। उधर, राजद से 6, काँग्रेस से 3 और लोजपा से 2 मुस्लिम विधायक निर्वाचित हुए।
विधानसभा चुनाव, 2015 में जदयू राजद और काँग्रेस के साथ महागठबन्धन का हिस्सा बना। इस बार एक बार फिर से सर्वाधिक 24 मुस्लिम विधायक (9.81%) निर्वाचित हुए। इस चुनाव में राजद से 12, काँग्रेस से 6, जदयू से 5 और भाकपा माले से 1 मुस्लिम विधायक निर्वाचित हुए।
लेकिन, विधानसभा चुनाव, 2020 में एक बार फिर से जदयू ने भाजपा के साथ चुनावी गठजोड़ किया। इस बार जदयू ने 11 उम्मीदवार खड़े किए, लेकिन ये सारे उम्मीदवार चुनाव हार गए। इस बार कुल 19 मुस्लिम विधायक (7.81%) चुन कर आए। इनमें राजद से 8, एआईएमआईएम से 5, काँग्रेस से 4, भाकपा माले से 1 और बसपा से 1 मुस्लिम विधायक निर्वाचित हुए। ध्यातव्य है कि इस बार भाजपा दूसरे सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में उभर कर सामने आयी। मतलब यह कि चाहे भारतीय संसद की बात करें या बिहार विधानसभा की, उसमें मुसलमानों का प्रतिनिधित्व एवं उनकी भागीदारी सीधे-सीधे धर्मनिरपेक्ष दलों के राजनीतिक प्रदर्शन के समानुपाती और दक्षिणपंथी राजनीतिक दल भाजपा के राजनीतिक प्रदर्शन के व्युत्क्रमानुपाती है।
इसे भी देखें –
विधानसभा चुनाव, 2025 और मुसलमानों की उम्मीदवारी
विधानसभा चुनाव, 2025 में दोनों गठबंधनों में मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या में 2020 की तुलना में गिरावट आयी। जहाँ महागठबंधन ने 30 मुस्लिम उम्मीदवारों (12. प्रतिशत) को मैदान में उतारा है, वहीं एनडीए ने पाँच मुस्लिम उम्मीदवारों को। एनडीए के घटक दलों में भाजपा (101), हम (8) और राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक मोर्चा (6) ने किसी किसी मुसलमान को अपना उम्मीदवार नहीं बनाया है, वहीं जनता दल युनाइटेड (101) ने 4 मुसलमानों को अपना उम्मीदवार बनाया है और लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास: 29) ने 1 मुसलमान को।
जहाँ तक महागठबंधन की बात है, तो पिछले विधानसभा चुनाव में उसने 33 मुसलमानों को अपना उम्मीदवार बनाया था, जबकि इस बार 30 मुसलमानों को। राजद ने पिछली बार की तरह इस बार भी 18 मुसलमानों को उम्मीदवार बनाया है, जबकि काँग्रेस ने 12 की जगह 10 मुसलमानों को उम्मीदवार बनाया है, यद्यपि काँग्रेस इस बार सत्तर की बजाय 60 सीटों पर ही चुनाव लड़ रही है। भाकपा माले ने 3 की जगह 2 मुसलमानों को ही उम्मीदवार बनाया है, जबकि माले और राजद, दोनों ही पिछली विधानसभा चुनाव की तुलना में अधिक सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं। मुकेश सहनी की विकासशील इन्सान पार्टी, सीपीआई (9) और आई. पी. गुप्ता की इण्डियन इंक्लूसिव पार्टी(IIP:3) ने किसी मुसलमान को उम्मीदवार नहीं बनाया है।
वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य : मुस्लिम-प्रतिनिधित्व की विडम्बना
दक्षिणपंथी हिन्दुत्व की ओर रूझान रखने वाली भाजपा बहुसंख्यकवाद की राजनीति करती है। विशेष रूप से मई, 2014 के बाद भाजपा की राजनीति में मुसलमानों के सांकेतिक प्रतिनिधित्व के लिए भी स्पेस नहीं रह गया है। साम्प्रदायिक ध्रुवीकृत राजनीति और कम्यूनल एजेंडे के कारण न तो वह मुसलमानों को टिकट देती है और न ही मुसलमान उसके लिए वोट करते हैं। फिर, जब प्रतिनिधित्व ही नहीं, तो सरकार में भागीदारी कैसे संभव होगी! बिहार में भी, जहाँ 32 विधानसभा क्षेत्रों में मुसलमानों की आबादी 30 प्रतिशत से अधिक है, भाजपा के एक भी विधायक मुसलमान नहीं हैं। और, मई, 2014 के बाद जैसे-जैसे भाजपा मज़बूत हुई, बिहार में भी एनडीए के आन्तरिक समीकरण बदले और धीरे-धीर बिहार का गठबंधन भाजपा की शर्तों पर पुनर्परिभाषित होने लगा। इसकी क़ीमत जेडीयू को भी चुकानी पड़ी। मुस्लिम वोटरों पर उसकी पकड़ ढ़ीली पड़ने लगी और उसका परिणाम यह हुआ कि पिछले विधानसभा चुनाव में एनडीए से एक भी मुस्लिम विधायक चुनकर नहीं आये, यहाँ तक कि जदयू ने 11 मुसलमानों को उम्मीदवार बनाया, लेकिन उन सबको महागठबंधन के उम्मीदवारों के हाथों शिकस्त मिली।
इसे भी देखें –
उधर, महागठबंधन की दुविधा यह है कि उसे मुसलमानों के वोट तो चाहिए, लेकिन उसे मुसलमानों को उम्मीदवार बनाने से परहेज़ होता है। कारण यह कि उससे कोर ग़ैर-मुस्लिम वोटर का एक हिस्सा अक्सर मुसलमान उम्मीदवार की स्थिति में अपनी जातिगत पहचान को छोड़कर हिन्दू के रूप में वोट करते हैं और इसका लाभ सीधे-सीधे भाजपा उम्मीदवार को मिलता है और महागठबंधन के उम्मीदवार के जीतने की संभावना कम हो जाती है। प्रमाण है मिथिलांचल क्षेत्र में पिछले विधानसभा चुनाव का परिणाम, जहाँ अगर महागठबंधन के परम्परागत वोटरों का बिखराव नहीं होता, तो राजद और महागठबंधन बढ़त की स्थिति में होता और फिर सरकार महागठबंधन की ही बनती। अत: बेहतर जीत-प्रत्याशा के लिए महागठबंधन के दल भी मुसलमानों को उम्मीदवार बनाने से परहेज़ करते हैं। इसका अपवाद कुछ हद तक काँग्रेस को माना जा सकता है, जिसने न केवल मुसलमानों को उम्मीदवार बनाने में उदारता बरती है, वरन् मुस्लिम एजेंडों पर स्टैंड लेकर सेक्यूलरिज्म के प्रति अपनी प्रतिबद्धता भी प्रदर्शित की है। अब समस्या यह है कि चुनावी राजनीति में जीत और हार मायने रखती है, सारी क़वायद ही इसी के लिए होती है जिसके कारण जीतने की प्रत्याशा वाले पहलू की अनदेखी नहीं की जा सकती है। पर, सवाल विधायिका से लेकर सरकार तक मुस्लिम प्रतिनिधित्व एवं भागीदारी का है, इसकी भी तो अनदेखी नहीं की जा सकती है क्योंकि संसदीय राजनीति से मुसलमानों का मार्जिनलाइजेशन एवं बहिष्करण न केवल ओवैसी और एआईएमआईएम जैसे दक्षिणपंथी मुस्लिम राजनीतिक दलों के लिए स्पेस क्रिएट करेगा, वरन् दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य में कई जटिल समस्याओं को जन्म देगा, जिसकी बड़ी क़ीमत हो सकती है। इस पहलू पर महागठबंधन या फिर इण्डिया गठबंधन में शामिल दलों को भी विचार करना चाहिए और भाजपा को भी, जिसका आने वाले दशकों में मुख्यधारा की राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान बने रहने की संभावना है। मुसलमानों की समुचित एवं पर्याप्त राजनीतिक भागीदारी को कैसे सुनिश्चित किया जाए, उनकी सरकार में भागीदारी कैसे सुनिश्चित की जाए, नेशनल एजेंडे में कैसे उनकी चिन्ताओं को समाहित करते हुए उसका समाधान प्रस्तुत किया जाए और उन्हें डर, भय एवं असुरक्षा की मनोदशा से बाहर निकालकर कैसे उनमें सेंस ऑफ सेफ़्टी एंड सिक्योरिटी को डेवलप किया जाए, ये ऐसे प्रश्न हैं जिनका सम्बंध राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता से है। इस प्रश्न पर भी गम्भीरता से वैचारिक मंथन की आवश्यकता है।

मेंटरिंग(सिविल सेवा परीक्षा हेतु,ब्लॉगर,लेखक और राजनीतिक विश्लेषक)








[…] समावेशी लोकतान्त्रिक राजनीति और मुसल… […]