आपातकाल का पुनरावलोकन -1 : क्या संविधान की हत्या हुई थी?

12 जून, 2024 को केंद्र सरकार ने घोषणा की कि 25 जून को ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में मनाया जायेगा। ज्ञात हो कि 25 जून, 1975 को ही आपातकाल की घोषणा की गई थी। 25 जून, 1975 से 21 मार्च, 1977 तक अर्थात् 21 महीने की इस कालावधि को ‘लोकतंत्र की हत्या’, भारतीय इतिहास का काला अध्याय’ आदि विशेषणों से अभिहित किया जाता रहा है। इस घटना के व्यतीत हुए 49 वर्ष बीत चुके हैं। उस आंदोलन में भाग लेने वाली पीढ़ी के अनेक लोग अब नहीं हैं और जो बचे हैं, वे जीवन के अंतिम पड़ाव पर हैं। आम जीवन की स्मृतियों में वह प्रसंग धुँधला हो गया है। फिर आज वह कौन-सी विशेष बात हो गई, जिसके कारण आधी शताब्दी पूर्व के प्रसंग को पुनर्जीवित करने की ज़रूरत आ पड़ी?

12 जून, 2024 को केंद्र सरकार ने घोषणा की कि 25 जून को ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में मनाया जायेगा। ज्ञात हो कि 25 जून, 1975 को ही आपातकाल की घोषणा की गई थी। 25 जून, 1975 से 21 मार्च, 1977 तक अर्थात् 21 महीने की इस कालावधि को ‘लोकतंत्र की हत्या’, भारतीय इतिहास का काला अध्याय’ आदि विशेषणों से अभिहित किया जाता रहा है। इस घटना के व्यतीत हुए 49 वर्ष बीत चुके हैं। उस आंदोलन में भाग लेने वाली पीढ़ी के अनेक लोग अब नहीं हैं और जो बचे हैं, वे जीवन के अंतिम पड़ाव पर हैं। आम जीवन की स्मृतियों में वह प्रसंग धुँधला हो गया है। फिर आज वह कौन-सी विशेष बात हो गई, जिसके कारण आधी शताब्दी पूर्व के प्रसंग को पुनर्जीवित करने की ज़रूरत आ पड़ी?

संविधान हत्या दिवस की घोषणा को कांग्रेस के प्रति प्रतिशोधात्मक कार्रवाई के रूप में देखा जाना चाहिए। प्रतिशोध की यह भावना लोकसभा चुनाव 2024 में विपक्षी दलों, विशेषकर कांग्रेस के द्वारा, भाजपा की संविधान बदलने की मंशा के नैरेटिव को जनमानस तक पहुँचाने का परिणाम है, जिसके कारण इस लोकतांत्रिक व्यवस्था के पक्ष में खड़े बहुतेरे समुदाय, विशेषकर दलित और पिछड़े, बाबा साहब के बनाये हुए संविधान को बदले जाने के नाम पर, चौकन्ने हो गये और सांप्रदायिकता की कोठरी से निकलकर संविधान बचाने की छतरी के नीचे एकत्र हो गये। इसके कारण लोकसभा चुनाव में अनेक राज्यों में, विशेषकर आकांक्षित राज्य उत्तर प्रदेश में, भाजपा को अनपेक्षित और असहनीय राजनीतिक हानि का सामना करना पड़ा। चुनाव के बाद सत्ता में लौटने पर केंद्रीय सरकार ने तुरंत इस दिवस की घोषणा की। इस तरह ‘संविधान हत्या दिवस’ की घोषणा चुनावी पराजय की तिलमिलाहट से उत्पन्न प्रतिशोध की कार्रवाई है।

जब विपक्ष या कांग्रेस सत्ता में भाजपा की पुनर्वापसी पर संविधान बदलने की आशंका व्यक्त कर रहा था तो उसके पीछे ठोस वस्तुगत प्रमाण थे। इसके लिए कई स्तरों पर लगातार प्रयास किए जा रहे थे। काफ़ी दिनों से सीधे-सादे भारतीयों के बीच यह मेसेज फिजिकल और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से पहुँचाया जा रहा था कि यह आज़ादी महज़ 99 वर्षों के लिए लीज पर मिली है। इसीलिए यहाँ ब्रिटिशों का बनाया हुआ क़ानून अभी भी लागू है। 2046 में यह लीज ख़त्म हो जाएगा और देश पर फिर से इंग्लैंड का क़ब्ज़ा हो जाएगा। इसलिए ऐसा कुछ हो इसके पहले संविधान को बदलकर ही इसे हिंदू राष्ट्र घोषित कर दिया जाये। उनका तर्क यह भी था कि यह हिंदुओं का सबसे बड़ा वास स्थान है। इसलिए इसे मुस्लिम स्टेट की तर्ज़ पर हिंदू राष्ट्र घोषित किया जाना ज़रूरी है ताकि हिंदुओं को अपनी अस्मिता का आभास हो। इस एजेंडे को लेकर अनेक भगवाधारी गाँव-गाँव घूमकर जनमत संग्रह कर रहे थे। (लेखक को बिहार के जहानाबाद ज़िले से इस तरह के प्रयास की सूचना मिली थी।)

दूसरी और इसे बौद्धिक जामा भी पहनाया जा रहा था। प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद (ईएएसी-पीएम) के अध्यक्ष बिबेक देवरॉय ने लोकसभा चुनाव के कुछ ही दिन पहले 14 अगस्त, 2023 को मिंट में “There’s case for ‘we the people’ to embrace a new Constitution” लिखकर संविधान बदलने की मंशा को बौद्धिक नेतृत्व देने की कोशिश की। अपने इस लेख में अलोकतांत्रिक तर्क प्रस्तुत करते हुए संविधान को संपूर्ण रूप से ख़ारिज करने की वकालत की। अपने उस लेख में उन्होंने कहा – “ये पूछना चाहिए कि संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, न्याय, स्वतंत्रता और समानता जैसे शब्दों का अब क्या मतलब है। हमें ख़ुद को एक नया संविधान देना होगा।” इस तरह के तर्क अलोकतांत्रिक और अधिनायकवादी शासन की स्थापना की वकालत करते हैं।

तीसरी ओर भाजपा के कई नेता और प्रत्याशी सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग की नज़रों के सामने खुलेआम लगातार यह बयान देते रहे कि उन्हें 400 सांसद इसलिए चाहिए ताकि संविधान को बदला जा सके। अर्थात् सामाजिक, बौद्धिक और राजनीतिक – तीनों ही स्तरों पर संविधान बदलने की भूमिका तैयार थी।

विपक्ष के गठबंधन में शामिल नेताओं के द्वारा जब इस मसले को पूरे ज़ोर से उठाया गया, आमजन के बीच जब इस षड्यंत्र का खुलासा हुआ और चुनावों में जब राजनीतिक हानि हुई तो भाजपा ‘बैकफ़ुट’ पर चली गई और प्रधानमंत्री को संविधान की प्रति पर माथा टेकते हुए फ़ोटो खिंचवाकर देश को यह संदेश देना पड़ा कि वे ऐसा कुछ नहीं करेंगे।

जब जनता की अदालत में भाजपा संविधान की हत्या की कोशिश में कठघरे में खड़ी कर दी गई तो उसने, अपने बचाव मात्र के लिए, ‘संविधान हत्या दिवस’ की घोषणा के द्वारा, अपने चेहरे पर पड़े कीचड़ को कांग्रेस के चेहरे की ओर उछालने की कोशिश की। इस तरह यह घोषणा सामाजिक और राजनीतिक निंदा की बौखलाहट से उद्भूत प्रतिक्रियात्मक प्रतिशोध की सतही जवाबी कार्रवाई है। यह कार्रवाई बिना किसी धमाके के फुस्स भी हो गई।

हत्या का अर्थ होता है – अस्तित्व को जबरन समाप्त कर देना। जब आपातकाल में 26 जनवरी, 1950 को लागू संविधान की ‘हत्या’ कर दी गई, उसे समाप्त कर दिया गया तो आज फिर कौन-सा संविधान लागू है? निश्चय ही कोई नन मैट्रिक आदमी भी यह नहीं मानेगा कि वर्तमान संविधान 26 जनवरी, 1950 को संविधान सभा द्वारा स्वीकृत और राष्ट्र को समर्पित संविधान नहीं है। चूँकि संविधान जीवित है, इसलिए उसकी हत्या नहीं हुई थी। इस तरह ‘हत्या’ शब्द का प्रयोग बिलकुल अनुपयुक्त और अप्रामाणिक है, अर्थ-वहन में असमर्थ है और केवल निंदात्मक उद्देश्य को ध्वनित करता है।

संवैधानिक व्यवस्थाओं की अवहेलनाओं को भी, सांकेतिक अर्थ में, ‘हत्या’ कहा जा सकता है। इसलिए इस संवैधानिक पड़ताल को भी उजागर करना चाहिए कि क्या सचमुच 25 जून, 1975 को घोषित आपातकाल असंवैधानिक था, क्या संविधान की व्यवस्थाओं की अवहेलना हुई थी और क्या इस घोषणा के द्वारा संविधान, व्यवस्था के बदले, किताब बनकर रह गया था? क्या इस शब्द का इस्तेमाल सही है?

भारत के संविधान के अध्याय 18 में अनुच्छेद 352 से लेकर 360 तक, अर्थात् 8 अनुच्छेदों में आपातकाल पर विचार किया गया है। अनुच्छेद 352 जहाँ राष्ट्रपति को युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह की स्थिति या संभावना में आपातकाल लागू करने का अधिकार देता है, वहीं अनुच्छेद 355 यह निर्धारित करता है कि केंद्र “आंतरिक अशांति से राज्य की संरक्षा करे।” इंदिरा गांधी के समय संविधान-प्रदत्त इसी अधिकार का प्रयोग करते हुए आपातकाल की घोषणा हुई थी। इस तरह आपातकाल न तो असंवैधानिक था, न उसकी अवहेलना हुई थी। ‘हत्या’ शब्द तो घुसपैठिया की तरह है, जिसे अप्रासंगिक रूप से जबरन घुसा दिया गया है।

आपातकाल की आलोचना ‘संविधान की हत्या’ के रूप में नहीं, बल्कि ‘लोकतंत्र की हत्या’ के रूप में की जाती रही है। संविधान के भाग 3 के अनुच्छेद 12 से 35 तक वर्णित मौलिक अधिकारों की सूची भारत के नागरिकों को स्वतंत्रता, अधिकार और सम्मान के साथ पूर्ण नागरिक जीवन का अधिकार देता है। परंतु आपातकाल के दौरान अनुच्छेद 19, जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी गई है, को स्थगित करके, नागरिकों पर ही नहीं, प्रेस आदि पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। परंतु यह भी, लोकतंत्र को संकुचित करने की दृष्टि से उचित भले ही न हो, असंवैधानिक नहीं है। संविधान के भाग 18, अनुच्छेद 359(1) के अनुसार “जहाँ आपात की उद्घोषणा प्रवर्तन में है, वहाँ राष्ट्रपति आदेश द्वारा यह घोषणा कर सकेगा कि (अनुच्छेद 20 और अनुच्छेद 21 को छोड़कर) भाग 3 द्वारा प्रदत्त ऐसे अधिकारों को प्रवर्तित करने के लिए, जो उस आदेश में उल्लिखित किये जायें, किसी न्यायालय को समावेदन करने का अधिकार और इस प्रकार उल्लिखित अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए किसी न्यायालय में लंबित सभी कार्यवाहियाँ उस अवधि के लिए, जिसके दौरान उद्घोषणा प्रवृत्त रहती है या उससे लघुतर ऐसी अवधि के लिए जो आदेश में विनिर्दिष्ट की जाए, निलंबित रहेंगी।” इस तरह मौलिक अधिकारों के निलंबन के लिए भी संवैधानिक प्रावधानों का ही औजारीकरण हुआ, ‘हत्या’ जैसा कुछ नहीं हुआ।

वर्तमान के संदर्भों से आँखें मूँदकर 50 वर्ष पहले की किसी घटना की ओर उँगली नहीं उठायी जा सकती है। आज, जब तकनीकी रूप से आपातकाल घोषित नहीं है, तब भी हमारी अभिव्यक्ति की आज़ादी, वैश्विक संदर्भ में, सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। प्रेस फ्रीडम इंडेक्स 2024 के मुताबिक़ दुनिया के 180 देशों में भारत 159वें स्थान पर है। इस रिपोर्ट की समीक्षा करते हुए The Hindu लिखता है – “According to the index, press freedom in India is currently comparable to that of the occupied Palestinian territories; the UAE, an absolute monarchy; Turkey, a flawed democracy; and Russian, an authoritarian regime.” अर्थात् असंवैधानिक तरीक़ों से मौलिक अधिकार की हत्या करने वाला संवैधानिक तरीक़ों का आश्रय लेने वाले पर ही ‘हत्या’ का अभियोग उछालने की कोशिश कर रहा है।

संवैधानिक के साथ ही लोकतांत्रिक मूल्यों की दृष्टि से भी तुलना कर लेने से समझ और साफ़ होगी। आज जब घोषणा के तौर पर आपातकाल नहीं है, सामान्य अवस्था है तो भी ‘लोकतंत्र के जनक’ इस देश को Economist Intelligence Unit ने ‘अधूरा लोकतंत्र’ (Flawed Democracy) की श्रेणी प्रदान की है। वहीं V-Dam Report ने भारत के लोकतंत्र को नाइजर और एवॉरी कॉस्ट देशों के बीच १०४वें स्थान पर ‘Democracy’ के बदले ‘Autocracy’ की श्रेणी में रख दिया है, वह भी सबसे ख़राब ऑटोक्रेसी वाले देशों की श्रेणी में। इस रिपोर्ट की समीक्षा करते हुए द वायर ने लिखा – “The V-Dam report terms India as “one of the worst autocratisers lately”, and in the “top ten autocratisers” in the world. It dropped to an ‘electoral autocracy’ in 2018 and has stayed there in 2030, with worse scores.”

स्रोत : V-Dam Report

और, अब तो खबर यह है कि लगातार गलते हुए इस लोकतंत्र को बेहतर बनाने के प्रयास की अपेक्षा, रक्तहीन और झुर्रियों भरे चेहरे को पाउडर-क्रीम आदि लगाकर चमकाने के प्रयास की तरह, प्रधानमंत्री के नेतृत्व में अपना ही मानदंड तैयार किया जा रहा है। (अलजज़ीरा की इस खबर का लिंक स्रोत सामग्री में देखें।) यह कुपोषण को ही मानक बना देने के प्रयास की तरह है। यह लेख लिखे जाने के दौरान ही चुनाव आयोग के द्वारा मतदान और मतगणना की उपलब्ध करायी की सांख्यिकी का विश्लेषण करके एडीआर ने रिपोर्ट जारी की है कि 2024 के चुनाव में 538 लोकसभा सीटों पर मतदान और मतगणना में भारी अंतर है। इसी तरह की शिकायतें 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान भी प्रकाश में आयी थी, जिस पर सुप्रीम कोर्ट में मामला दर्ज भी कराया गया था। लेकिन अब तक उस पर सुनवाई भी शुरू नहीं हुई है। इसलिए लोकतांत्रिक मूल्यों के हनन की दृष्टि से भी आज के हालातों की अनदेखी करके आपातकाल की और इंगित करना बेमानी और अप्रासंगिक कार्य है।

इस तरह उपर्युक्त विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकलता है कि आपातकाल के लिए संविधान के द्वारा प्रदत्त हथियार ही प्रयुक्त हुए थे। यह संविधान का औजारीकरण था, न कि ‘हत्या’। हाँ, इस मुहावरे को गढ़ना नफ़रती मानसिकता की अभिव्यंजना ज़रूर है।

1.  There’s a case for ‘we the people’ to embrace a new Constitution

2.  भारत का संविधान

3.  देखें, Press Freedom Index Report 2024

4.  The Hindu, 15 May, 2024

5.  देखें, Economist Intelligence Report 2023

6.  देखें, V-Dam Report 

7.  देखें, https://m.thewire.in/article/rights/india-ranked-104-between-niger-and-ivory-coast-on-the-liberal-democracy-index-report/amp

8.  https://www.aljazeera.com/amp/news/2024/3/21/modis-india-plans-its-own-democracy-index-after-global-rankings-downgrade

Dr. Anil Kumar Roy
Dr. Anil Kumar Roy

कार्यकर्ता और लेखक
डॉ. अनिल कुमार रॉय सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों के लिए अथक संघर्षरत हैं। उनके लेखन में हाशिए पर पड़े लोगों के संघर्ष और एक न्यायसंगत समाज की आकांक्षा की गहरी प्रतिबद्धता परिलक्षित होती है।

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