पिछले साल की तरह इस साल 2018 में भी 1 फरवरी को 2018-19 के लिए आम बजट पेश किया गया. 24.42 लाख करोड़ का यह बजट पेश होने के पहले देश के तमाम तबकों ने इस अंतिम पूर्ण बजट से अनेक प्रकार की अपेक्षाएं की थीं. किसानों ने सोचा था कि कर्जे के कारण महामारी की तरह मरते किसानों के उद्धार की योजना होगी, आँखों में सपनों को संजोये बेरोजगार नौजवानों की अपेक्षा थी कि उनके लिए कोई मुकम्मल व्यवस्था होगी, दिन भर कोल्हू की तरह पिसने वाले नौकरीपेशा लोगों की उम्मीद थी कि आयकर में राहत मिलेगी और शहरों के धुएँ में घुटने वालों ने सोचा था कि उनकी साँसों के लिए कुछ स्वच्छ हवा मिलेगी. तमाम तरह के परेशान लोगों ने इस बजट से उम्मीदें लगा रखी थी. यह उम्मीद इसलिए भी थी कि यह सरकार के वर्तमान कार्यकाल का अंतिम पूर्ण बजट था, क्योंकि अगले साल चुनाव होने वाले हैं. इस तरह यह अंतिम गेंद थी, जिससे वह अपने दामन पर लगे कॉरपोरेट-पोषित होने के धब्बे को धो सकती थी और आम लोगों के विश्वास को हासिल कर सकती थी.
लेकिन पोर-पोर में दर्द से राहत की अपेक्षा में टकटकी लगाए सवा अरब लोगों को सरकार ने फिर से अंगूठा दिखा दिया. बैंकों की ऋणग्रस्तता से हर आठ घंटे पर आत्महत्या करते किसानों की समस्यायों का निदान ढूँढने और उनके प्रति संवेदनशील होने के बदले उन्हें और भी लोन लेने की व्यवस्था इस बजट में कर दी गई. बड़ा अजीब लगता है यह सुनकर कि इलाज की जिस प्रक्रिया से साँसें टूट रही हों, वहाँ इलाज की दूसरी प्रक्रिया को न आजमाकर उसी जानलेवा प्रक्रिया को और तीव्र कर दिया जाए. यह स्पष्ट रूप से सरकार की उस मंशा को उजागर करता है कि जमीन के जिस टुकड़े को किसान इज्जत की तरह अपने सीने से लगाए हुए है, किसी तरह छोड़ नहीं रहा है; उसके लिए हारने और मरने की ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर दी जाएँ कि उसे औने-पौने दामों पर कॉरपोरेट और कंपनियों को सौंपा जा सके. संसद में खड़े होकर वित्तमंत्री रबी फसलों की कीमत डेढ़ गुना दिए जाने का झूठ बोलकर 2022 तक फसलों की कीमत दोगुनी करने का केवल ख़्वाब परोसते हैं. लेकिन खेती-किसानी का कारोबार करने वाली कंपनियों को शत-प्रतिशत कर मुक्त कर देते हैं. इससे यह समझने में भ्रम नहीं रहेगा कि सरकार किसके लिए काम कर रही है.
हर साल लाखों नौकरियाँ देने का वादा करके सत्ता में आने के बाद सरकार नौजवानों को नौकर बन्ने के बदले नौकर रखने की शिक्षा देने लगी और जब पिछले सालों में नौजवान न तो नौकर बन सके और न ही नौकर रखने वाला तो इस बजट में एक साल में 70 लाख नौकरियों का नामुमकिन ख़्वाब दिखाया गया. लेकिन उसके लिए कोई व्यवस्था नहीं बताई गई, बल्कि ग्रामीण मजदूरों के लिए चलाई जाने वाली मनरेगा के बजट में भी कोई वृद्धि नहीं की गई. अब कोई यह समझाए कि पैसा नहीं बढेगा तो रोजगार कैसे बढेगा.
बजट की कुछ अजीबोगरीब प्राथमिकताओं पर नजर डालते हैं. वित्तीय घाटे को कम करने के लिए वित्तमंत्री ने उत्साह दिखाते हुए उसे साढ़े 3% से 3% पर लाने का लक्ष्य निर्धारित किया. परन्तु, कैसे? भारत की नवरत्न ओएनजीसी, एयर इंडिया आदि कंपनियों को बेचकर, उत्पादन बढाकर नहीं. गरीबों के सशक्तिकरण की योजना पर खर्च करने के बदले कंपनियों के लाभ के लिए गरीब का बीमा कराया जाएगा, ग्रामीण क्षेत्रों में भूखमरी, कुपोषण, अशिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी आदि समस्यायों के समाधान के बदले ग्राम पंचायतों को ब्रॉडबैंड से जोड़ा जाएगा, जो 15 मिनट फ्री वाईफाई देगा और इससे अधिक उपयोग करने के लिए कुपोषण के शिकार बेरोजगार युवक-युवतियाँ कंपनियों को पैसे देंगे. सबके लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित नहीं कराई जायेगी, बल्कि इसके बदले विद्यालयों में डिजिटल ब्लैक बोर्ड और दूसरे इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित किये जायेंगे. घोषणा की जाती है कि 2022 तक हर गरीब को अपना घर होगा, लेकिन प्रधानमन्त्री आवास योजना के बजट को घटा दिया जाता है. राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल मिशन, स्वच्छ भारत अभियान, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन आदि के आवंटन में भी भारी कटौती की जाती है. सर्व शिक्षा अभियान, राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान, साक्षर भारत आदि योजनाओं का जिक्र तक नहीं किया जाता है. लेकिन निजी कंपनियों को लाभ पहुंचाने वाले बीमा, डिजिटलाइजेशन आदि के आवंटन में 400-500% तक की वृद्धि की जाती है.
निश्चय ही यह बजट उन एक प्रतिशत लोगों के लिए है, जिनके हिस्से में 73 प्रतिशत विकास जाता है. बाकी 99 प्रतिशत लोगों के लिए भी ढूँढने पर कुछ मिल ही जाएगा.
ऐसा ही है हमारा आम बजट, 2018. यह ऐसा बजट है, जिसकी चिंता के केंद्र में आम आदमी नहीं है, कॉर्पोरेट और कंपनियां हैं. पूंजीपति वर्ग अपने मुनाफे की चिंता कर रहा है, इसलिए सरकार भी उनकी चिंता कर रही है. शायद आम लोगों के लिए अभी चिंता किये जाने की जरूरत भी नहीं है. आम लोग अभी हिन्दु-मुसल्माअन, मंदिर-मस्जिद, तीन तलाक, पाकिस्तान, चीन, तिरंगा, राष्ट्रवाद आदि की चिंता में लगे हैं. ………. जब वे भी अपनी चिंता करने लगेंगे तो सरकार को भी उनकी चिंता होगी. धन्यवाद!