विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के अनेक अनुदान बंद कर दिए हैं. विश्वविद्यालयों को बंद किये जाने वाले सात अनुदान हैं – स्वच्छ भारत –स्वस्थ भारत अभियान, किसी ख़ास उद्देश्य के लिए सहायक शिक्षकों को रखना, स्पोर्ट्स के लिए भवन और उपकरण, इंटरनल क्वालिटी एस्सूरेंस सेल (आईक्यूएसी) को मिलने वाली ग्रांट, खेलों में मैडल विजेता और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिभागियों की मुफ्त शिक्षा, हिंदी विभाग की स्थापना और विश्वविद्यालयों में सामाजिक दायित्व तथा सामुदायिक कार्य के लिए सेंटर.
इसी तरह कॉलेज के भी आठ ग्रांट बंद कर दिए गए हैं. वे हैं – शिक्षकों को मिलने वाली ट्रेवल ग्रांट, शिक्षकों को मिलने वाले माइनर रिसर्च प्रोजेक्ट, किसी ख़ास उद्देश्य के लिए सहायक शिक्षक रखना, भवनों का निर्माण, खेल के लिए निर्माण और उपकरण, इंटरनल क्वालिटी एस्सूरेंस सेल (आईक्यूएसी) के तहत मिलने वाली ग्रांट, शिक्षकों के लिए फैकल्टी डेवलपमेंट प्रोग्राम और सेमिनार, कॉन्फ्रेंस, सिपोजियम आदि के लिए ग्रांट.
शिक्षा-व्यवस्था की सारी गतिशीलता और उद्देश्यों को ध्वस्त करने का यह और ऐसे अनेक अजीबोगरीब फरमान सरकार की नीयत और नारे के बीच एक अजीब तरह का विरोधाभास प्रदर्शित करते हैं. जो राजनितिक दल हिंदी, हिन्दू और हिन्दुस्तान की उन्माद्कारी भावनाएं परोसकर सत्ता में आया है, वही विश्वविद्यालयों में हिंदी विभाग की स्थापना पर रोक लगाने का फरमान जारी कर रहा है. पूरे देश के शिक्षाविद जब मातृभाषा में शिक्षा प्रदान करने की वकालत और अभियान चला रहे हैं, उसी समय हिंदी जैसी व्यापक भाषा के पर कतरने की साजिश रची जा रही है. संभव है कल हिंदी की ही पढ़ाई पर प्रतिबन्ध लगाने का फरमान जारी हो जाए. दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं को कौन पूछता है. 21वीं शताब्दी में भी लगभग एक तिहाई असाक्षर भारत को विश्वगुरु बनाने का सपना बाँटकर जो राजनितिक दल सरकार बनाने में सफल हुआ है, वही यह फरमान जारी कर रहा है कि विश्वविद्यालय और महाविद्यालय सामाजिक कार्यों के लिए, सेमिनार-सिम्पोजियम के लिए, खिलाड़ियों को पढ़ाने के लिए, भवनों और उपकरणों के लिए तथा सहायक शिक्षकों के लिए अनुदान नहीं प्राप्त के सकेंगे. जिस सकार के शीर्ष पर बैठा हुआ व्यक्ति दुनिया भर के राष्ट्रप्रमुखों के विदेश भ्रमण के सारे रिकॉर्ड तोड़कर करीब हर सप्ताह बेवजह कहीं घूमने चला जाता है, उसी सरकार में विश्वविद्यालयों के शिक्षकों पर पाबन्दी लगाई जाती है कि वे ज्ञान-विज्ञान और आविष्कारों के अन्य आयामों से परिचित होने के लिए विदेश न जाएँ. और, गौरतलब यह भी है कि जिस सरकार ने देश के नागरिकों को स्वच्छ रखने के नाम पर टैक्स बाँध दिया, और सबको पता है कि जबसे स्वच्छता का टैक्स लेना शुरू किया गया है तबसे प्रदूषण पहले से भी कहीं ज्यादा बढ़ गया है और अब तो टैक्स लिया जाना चालू रहने के बावजूद उसे विश्वविद्यालयों की सफाई पर खर्च न किये जाने का हुक्म जारी कर दिया गया है.
जले पर नमक तो यह है कि ‘अमर उजाला’ इन सारी ख़बरों का शीर्षक बनाता है – “अब सरकारी ग्रांट से विदेश नहीं घूम सकेंगे गुरूजी”. यह खबर इस अप्मानात्मक अंदाज में है, जैसे सारे-के-सारे प्राध्यापक सरकारी ग्रांट से विदेशों में हनीमून मनाने चले गए हों और उसी के परिणामस्वरूप यहाँ शिक्षकों का घोर अभाव हो गया है.
वस्तुत: कॉर्पोरेट पूँजी को सस्ता मजदूर उपलब्ध करानेवाला यह देश एक अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय साजिश का शिकार हो गया है और उसी के तहत शिक्षा में इस तरह के फेरबदल किये जा रहे हैं, जिससे शिक्षा का कोई सामाजिक सरोकार न रह जाए और हमारे विश्वविद्यालयों-महाविद्यालयों से निकलने वाले छात्र कुशल कामगार भर रहें, उन्हें वैज्ञानिक और चिन्तक बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है, उसके लिए दुनिया के दुसरे देश हैं. और, हमारी वर्तमान सरकार कॉर्पोरेट पूँजी के उस छद्म एजेंट की तरह काम कर रही है, जिस तरह भेड़ों को पोसने वाला वह कसाई करता था, जो रोज एक भेद को मारकर बाकी भेड़ों को यह कहकर निश्चिन्त और गौरवान्वित किये हुए था कि तुम दुनिया की सर्वश्रेष्ठ और सबसे बुद्धिमान भेड़ें हो. वह मरने वाली भेद तो मरने लायक थी ही.
मुश्किल है हम उस दौर में जी रहे हैं, जिसके सामने से शिक्षा की शवयात्रा निकल रही है, लेकिन हमारी आँखें इसलिए नम नहीं हो रही हैं, क्योंकि हमें समझाया गया है कि शिक्षा कब्र में नहीं, स्वर्ग में जा रही है.