कोरोना आज विश्व की एकमात्र और सबसे बड़ी समस्या है। दुनिया में आज न तो सेंसेक्स का उतार-चढ़ाव सनसनी पैदा करता है, न जीडीपी बढ़ाने की होड़ है, न घटते जलस्तर की चिंता है और न ही स्कूल बंद बच्चों की बदहाली की फ़िक्र है। मानव-सभ्यता के इतिहास में शायद यह पहली बार हुआ है कि एक बीमारी की चपेट में एक ही साथ पूरी दुनिया आ गई हो। इसलिए दुनिया के तमाम देशों में जिस एक बात के भूत, वर्तमान और भविष्य की सर्वाधिक चर्चा और चिंता की जा रही है, वह कोरोना है।
चीन के वुहान शहर से तथाकथित रूप से जानवरों से इंसान में फैलने वाले इस रोग ने शुरू में तो चीन को लाशों से पाट दिया। चीन में तीन हज़ार से अधिक लोगों की मौत ने पूरी दुनिया में सनसनी फैला दी। विदेशी कामकाजी चीन से भाग-भागकर अपने-अपने वतन लौटने लगे। पूरी सख़्ती और जद्दोजहद से जूझता हुआ चीन जब तक इस बीमारी को नियंत्रित करता, तब तक यूरोप के अधिकांश देश और अमेरिका इस रोग से संक्रमित हो चुके थे। फिर तो यूरोप और अमेरिका से भागने वालों का ताँता लग गया। और फिर इन देशों में आवाजाही करने वाले और दहशत में अपने वतन लौटने वाले संक्रमित लोगों ने भारत में भी इस रोग को फैला दिया। इस तरह यह महामारी, अन्य महामारियों की तरह, ग़रीबों से अमीरों की तरफ़ नहीं, बल्कि अमीरों से ग़रीबों की तरफ़ आई है।
दुनिया के क़रीब-क़रीब सारे मुल्क इस बीमारी की चपेट में हैं। आज की तारीख़ तक संक्रमण के क़रीब चार महीने में ही दुनिया भर में क़रीब २७ लाख लोग ज्ञात रूप से इस बीमारी से संक्रमित हैं और अब तक क़रीब १ लाख ८० हज़ार लोगों की जान केवल इस महामारी ने ली है। भारत में भी ३० जनवरी को हुए पहले संक्रमण से लेकर आज तक २१ हज़ार से अधिक संक्रमित लोगों की पहचान हो चुकी है और ६८० से अधिक बेगुनाह केवल इस महामारी के चलते तड़पते हुए अपनी जान गँवा चुके हैं। अभी तक न तो इसकी कोई सटीक दवा का पता चल सका है और न ही कोई टीका विकसित हो सका है। अभी तक दुराव और जाँच के बल पर पूरी दुनिया, अंधेरे में ही, इस भयावह महामारी से युद्ध कर रही है।
भारत में ३० जनवरी को कोविद १९ के प्रथम संक्रमित मरीज़ की पहचान हुई। तब तक चीन, यूरोप, अमेरिका में इस महामारी ने संक्रमण का कुहराम मचाना शुरू कर दिया था। लेकिन भारतीय प्रशासन के माथे पर कोई शिकन नहीं थी, मानो इस संदर्भ में बात करना बेहद ग़ैरज़रूरी हो। राजनीति जब जनहित से विमुख होती है और केवल अपनी छवि बनाने की चिंता और सत्ता पर क़ाबिज़ होने-रहने की साज़िशों में निमग्न होती है तो उसका चाल-चलन इसी प्रकार का दिखाई देता है। २४-२५ फ़रवरी को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के दौरा को महोत्सव बनाने में पूरा मंत्रिमंडल व्यस्त रहा। अहमदाबाद में उसके दौरे के रास्ते में आनेवाली झोपड़ियों को छिपाने के लिए दीवारें खड़ी की जाती रहीं, ‘नमस्ते ट्रम्प’ कहने के लिए, जैसा कि स्वयं ट्रम्प चाहता था, लाखों लोगों की भीड़ जुटाने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाया जा रहा था और उसके परिवारजनों को सहूलियतपूर्वक ताजमहल घुमाने की व्यवस्था की जाती रही। यह वही समय था, जब कोरोना से बचाव की तैयारी की जा सकती थी। लेकिन सरकार की प्राथमिकता में कोरोना नहीं, बल्कि अमेरिकी राष्ट्रपति के सम्मुख अपने समर्पण और भक्ति को प्रमाणित करना था। ट्रम्प के प्रति भक्ति तो प्रमाणित हो गई, परंतु जिन १३७ करोड़ लोगों का जीवन कुछ ज़्यादा सुरक्षित बनाया जा सकता था, वह नहीं हुआ। ……. यही वह भी समय था, जब मध्यप्रदेश में कांग्रेस के विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त करके एक संवैधानिक सरकार को गिराने के लिए राष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायालय, राज्यपाल – सबकी आँखों के सामने नंगा नाच हो रहा था। उस समय भी राजनीतिक भ्रष्टाचार का खंभा गाड़कर सत्ता हासिल करना एकमात्र ध्येय था, करोड़ों लोगों के लिए आनेवाली तबाही से रक्षा करना चिंता की बात नहीं थी। इसीलिए जब तक मध्यप्रदेश में २० मार्च को आख़िरकार कमलनाथ सरकार ने इस्तीफ़ा नहीं दे दिया, तब तक हवाई अड्डों पर विदेशों से आने वालों का तापमान जाँचने की खानापूर्ति होती रही। तब तक विदेशों से आनेवाले सैकड़ों संक्रमित लोग अपने-अपने समाज में घुल-मिलकर अन्य लोगों को संक्रमित करना शुरू कर चुके थे। और, २१ मार्च तक आते-आते ३०० के क़रीब संक्रमितों की पहचान की जा चुकी थी और सैकड़ों अनपहचाने संक्रमित लोग अपने घर-समाज में द्रुत गति से संक्रमण फैला रहे थे। तब तक ट्रम्प के स्वागत से भी फ़ुर्सत मिल चुकी थी और मध्यप्रदेश का तिकड़म भी सफल हो चुका था। इतना सब हो जाने के बाद २२ मार्च को दिन भर का ‘जनता कर्फ़्यू’ घोषित किया गया और फिर दो दिनों के बाद पूरे देश में लॉकडाउन करा दिया गया, जो पहले १४ अप्रील तक के लिए घोषित किया गया, फिर उसे ३ मार्च तक के लिए विस्तार दिया गया। अब प्रधानमंत्री के द्वारा यह कहकर कि उन्होंने दुनिया में सबसे पहले और त्वरित कार्रवाई की, अपने प्राथमिक कर्तव्य की उपेक्षा पर पर्दा डालने की कोशिश की जा रही है।
इस महामारी की रोकथाम में दूरी बनाकर रखना एक आवश्यक उपाय है। पूरी दुनिया ने इस उपाय पर अमल किया है। भारत में भी यह दूरी बनाकर रखने के लिए देशव्यापी लॉकडाउन किया गया। लॉकडाउन के द्वारा एक-दूसरे व्यक्ति से दूरी बनाकर रखने की व्यवस्था इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि यह रोग संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में ही आने से फैलता है। यह भी कि ८० प्रतिशत संक्रमित लोग, बिना किसी लक्षण के, अपने को स्वस्थ मानते हुए, दूसरे लोगों को अनजाने में ही संक्रमित करते फिरते हैं। इसलिए, जब तक इस रोग का टीका नहीं विकसित हो जाता है, दूरी बनाकर रखना ही इस रोग से बचाव का एकमात्र उपाय है। लेकिन ‘लॉकडाउन’ के उद्देश्य को बताने के लिए जिस ‘सोशल डिसटेंसिंग’ (सामाजिक दुराव) शब्द का उपयोग किया गया, वह निहायत ग़ैर ज़रूरी और भ्रामक था। यह सामाजिक दुराव का नहीं, व्यक्तिगत दुराव (पर्सनल डिसटेंसिंग) का मामला था। यदि यह ‘सामाजिक दुराव’ शब्द अनजाने इस्तेमाल हुआ है तो हो सकता है कि इसके पीछे विभिन्न मोर्चों पर सरकार के विरोध में चलने वाले आंदोलन, जिनमें मुख्य रूप से कम्युनिस्ट, मुसलमान और छिटपुट समाजवादी शामिल थे, से सामाजिक दूरी बनाए रखने की अपील का प्रच्छन्न मनोविज्ञान काम कर रहा हो। और, यदि यह शब्द जान-बूझकर इस्तेमाल किया गया है तब तो स्पष्टत: इन शब्दों का इस्तेमाल करने वाले ने आपदा से लड़ने के आह्वान में अपने राजनीतिक उद्देश्यों की छौंक लगाई है। चूँकि वर्तमान सत्ताधारी दल प्रत्येक कार्य अपने राजनीतिक हितों को समाहित करके ही करता है, इसलिए ऐसा समझना कल्पना की उड़ान मात्र नहीं है।
यह लॉकडाउन जिस तरीक़े से घोषित किया गया, लोग उसका ख़ामियाज़ा आज भी भुगत रहे हैं, विशेषकर ग़रीब और बेसहारा प्रवासी मज़दूर। संक्रमण के प्रारंभिक चरण में न तो कोई चिंता व्यक्त की गई और न ही किसी प्रकार का निर्देश निर्गत किया गया। लेकिन २४ मार्च को एकाएक कुछ घंटों के बाद से ही संपूर्ण लॉकडाउन का आदेश जारी कर दिया गया। यह नोटबंदी की तरह का ही अनपेक्षित आदेश था। हो सकता है कि प्रधानमंत्री को इस प्रकार का अनपेक्षित झटका देना मज़ेदार लगता हो, परंतु राजनीतिक विश्लेषकों की दृष्टि में यह अविचारित प्रशासनिक प्रदर्शन की ही झाँकी है। पूरे देश ने इस अप्रत्याशित झटके को जिस तरह झेला, वह वर्णनातीत है। समृद्ध समूह, जिनके घर खाद्यान्नों से भरे हैं और जिनकी जेबों में पर्याप्त पैसा है, केवल आमदनी के अभाव का शिकार हुआ। लेकिन सभी उत्पादन और व्यापारिक केंद्रों के एक ही साथ सर्वत्र बंद होने के कारण, उन प्रतिष्ठानों में काम करने वाले बेरोज़गार हो गए करोड़ों मज़दूरों के सम्मुख एकाएक आजीविका और जीवन का संकट एक ही साथ उपस्थित हो गया। अब उनके पास घर लौटने के सिवा और कोई चारा नहीं था और घर लटने के सारे साधन बंद कर दिए गए थे। उन्हें किंकर्तव्यविमूढ़ कर देने वाली यह एक महान आपदा थी। उनके लिए कोरोना से बचाव की अपेक्षा भुखमरी से बचाव करना ज़्यादा तात्कालिक और ज़रूरी काम हो गया और, सरकार की ओर से अब तक कोई आश्वासन नहीं मिलने के कारण, घर लौटने के सिवा कोई रास्ता नहीं बच रहा था। परिणामस्वरूप अपनी-अपनी झुग्गियों से घर लौटने के लिए बिलबिलाकर निकले हुए करोड़ों मज़दूर जब शहर की सड़कों पर आकर खड़े हो गए तो एक अजीब और भयानक माहौल उत्पन्न हो गया। सिर पर आवश्यक कपड़े आदि की पोटली रखे और अपने बीबी-बच्चों का हाथ पकड़कर सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने घर के सफ़र पर भूखे पेट और नंगे पैर निकले मज़दूरों के हज़ारों का हुजूम हृदय-द्रावक ही नहीं था, बल्कि देश के व्यवस्थापक की दृष्टि-संकीर्णता और परिस्थितियों की अदूरदर्शिता का भी उदाहरण बना। बाद में इन मज़दूरों के रहने-खाने और घर पहुँचाने की आधी-अधूरी व्यवस्था की भी गई। परंतु आज भी सड़कों पर घर लौटते हुए दर्जनों मज़दूर भीख माँगते हुए मिल रहे हैं। इस तबाही और तंगी से अलग बाहर कमाकर लाने के लिए भेजनेवाली कितनी माँओं की गोद उजड़ी और कितनी ललनाओं का सिंदूर पुँछ गया, इस पर संवेदना प्रकट करने वाला भी कोई नहीं है। उनके चीत्कार अब भी हवाओं में करुणा भर देते हैं।
इस महामारी की रोकथाम के लिए जाँच, उचित चिकित्सा और टीका निहायत ज़रूरी पक्ष है। इसका टीका अभी तक विकसित नहीं हो सका है और कब तक विकसित होगा, इसके बारे में पहले कुछ नहीं कहा जा सकता है। इसकी उचित दवा भी अभी तक नहीं खोजी जा सकी है। विभिन्न दवाइयों के द्वारा लाक्षणिक उपचार ही अभी तक किया जा रहा है। पूरे संसार में अभी तक एक ही पद्धति अपनाई जा रही है कि संक्रमित व्यक्ति की पहचान कर ली जाय और उसे क्वारंटाइन करके लाक्षणिक उपचार किया जाय। संक्रमित व्यक्ति की पहचान के लिए व्यापक पैमाने पर जाँच की ज़रूरत है। इसलिए यह आवश्यक है कि एक-एक व्यक्ति की जाँच कर ली जाय, जिससे संक्रमितों का पता चल जाय, जिससे उसे अलग करके संक्रमण का फैलाव रोका जाय। इस अत्यावश्यक उपाय के प्रति भी गंभीरता का अभाव दिखाई पड़ा। ३० जनवरी को, पहले संक्रमित व्यक्ति की पहचान होने से भारत में भी इस जीवाणु की धमक सुनाई पड़ी तो भी विदेशों से आने वालों की जाँच की कोई पुख़्ता व्यवस्था नहीं शुरू की जा सकी। जाँच के प्रति गंभीरता का आलम तो यह रहा कि WHO की मनाही के बावजूद ऊँची क़ीमतों पर PPE विदेशों को २४ मार्च तक निर्यात किए जाते रहे। बाद में भी जाँच को गंभीरता से नहीं लिया गया और यूरोपियन देशों के मुक़ाबले जाँच का प्रतिशत यहाँ बहुत ही कम रहा। जिस सस्ते रैपिड टेस्ट किट से जाँच की भी जा रही थी, उसकी रिपोर्ट हमेशा संदेहास्पद थी। और अब तो उसे भी बंद करने का समाचार आ गया है। दूसरी तरफ़ घर-घर जाकर जिस स्क्रीनिंग की चर्चा ज़ोर-शोर से की जा रही है, उसकी वास्तविकता है कि आशाकर्मी केवल यह पूछती हैं कि घर में कितने लोग हैं और किसी को बुखार या साँस में तकलीफ़ तो नहीं है? अर्थात् समाचारों में जो तत्परता और चिंता सुनाई-समझाई जाती है, वास्तविकता उसके उलट है कि आम लोग क़ुदरत की मर्ज़ी पर रामभरोसे हैं। जहाँ अस्पतालों के भीतर संक्रमित रोगियों से जूझ रहे चिकित्साकर्मियों, सड़कों पर और बाज़ारों में लॉकडाउन को सफल बनाने के जद्दोजहद में लगे पुलिसकर्मियों और गलियों-सड़कों की सफ़ाई में लगे हुए सफ़ाईकर्मियों के लिए सुरक्षावस्त्र का इंतज़ाम नहीं किया जा सका है, वहाँ आम लोगों के लिए कितना कारगर इंतज़ाम किया गया होगा, यह स्वतः समझने का विषय है।
जिस डिस्टेंसिंग को कोरोना से बचाव का सबसे अहम हथियार बताया गया, कई धार्मिक समूह और संगठन, अपनी-अपनी धार्मिक जड़ता के कारण, उसकी धज्जियाँ उड़ाते दिखे। सामाजिक सुधार के रूप में विकसित हुआ धर्म कालांतर में किस प्रकार जड़ हो जाता है, इसके कई नमूने इस लॉकडाउन की अवधि में देखने को मिले। लेकिन तबलीगियों की हरकत का, इस आपदा काल में भी, जिस तरह राजनीतिकरण किया गया, उसके लिए आनेवाले इतिहास का सिर शर्म से झुक जाएगा। मुख्य टीवी चैनल और अख़बार वालों ने दिन-रात तबलीगियों की करतूत की ख़बर चलाकर पहले तो यह साबित किया कि भारत में कोरोना तबलीगियों की देन है और फिर चाटकर फल बेचने, नर्स के साथ अश्लील व्यवहार करने, थूक फेंकने, पेशाब करके फल धोने आदि के विडीयो और मेसेज दिखा-दिखाकर, केवल तबलीगियों के प्रति नहीं, बल्कि पूरे मुस्लिम समुदाय के प्रति आम जनसमूह में घृणा और गहरे विद्वेष की जड़ें फैला दीं। सरकार और प्रशासन ने भी, बेरोक-टोक, घृणा की इस फ़सल को ख़ूब लहलहाने दिया। आज जब वे सारे विडीयो और ख़बरें फ़ेक साबित हो गई हैं तो भी किसी ने लौटकर इस कुकृत्य के प्रति खेद भी प्रकट नहीं किया है। लेकिन परिणाम इसका यह हुआ कि आम समाज में मुसलमानों को घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगा और वे लोग जिस सामान को दस रुपए में बेच पाते थे, उसे उन्हें पाँच रुपए में बेचने के लिए मजबूर होना पड़ा।
कोरोना से बचाव के नाम पर आनन-फ़ानन में जिस तरह पीएम केयर्स फ़ंड की स्थापना, उसमें उद्योगपतियों और फ़िल्मी अभिनेताओं के द्वारा बड़े पैमाने पर दान किया जाना भी निगाह को प्रश्नवाचक बनाता है। आज तक किसी सरकारी एजेंसी के द्वारा यह स्पष्ट नहीं किया गया कि प्रधानमंत्री राहत कोष के रहते इस केयर्स फ़ंड की स्थापना का उद्देश्य क्या है और यह पुराने कोष से किस प्रकार भिन्न है।
इस प्रकार कोरोना के विरुद्ध जिस युद्ध का संचालन हमारी व्यवस्था कर रही है, वह निहायत अपर्याप्त है। इस युद्ध में जिस प्रकार के उपायों को अमल में लाया जा रहा है, वे हानिकारक हैं। हाँ, इन सब उदासियों के बीच एक बात है कि बिहार में सहायता राशि पाने वाले लोगों के खातों में धड़ाधड़ पैसे आ रहे हैं। बिहार में चुनाव जो होना है! अर्थात जनता एक वोटर के सिवा और कुछ नहीं है!
अगले अंक में जारी …..