लोकसभा चुनाव समाप्त होते ही जिस प्रकार प्रसारण सेवा (विनियमन) विधेयक 2024 लाये जाने की कोशिश की गई, उसका न केवल विपक्ष, बल्कि बुद्धिजीवियों, नागरिक समुदायों, मीडिया संस्थानों और पत्रकारों ने भी विरोध किया। इस विधेयक को सरकार के द्वारा वैकल्पिक मीडिया को अपने शिकंजे में ले लेने की तरह देखा गया। फ़िलहाल इस मसौदे को वापस ले लिया गया है, परंतु इस प्रयास को अभिव्यक्ति के अधिकार पर सरकार के द्वारा अंकुश लगाने की प्रवृत्ति के रूप में देखा जा रहा है।
अभिव्यक्ति का अधिकार किसी भी लोकतंत्र की बुनियाद है। यह अधिकार न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता का प्रतीक है, बल्कि यह समाज में विचारों, मतों और दृष्टिकोणों के आदान-प्रदान को भी प्रोत्साहित करता है।
सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने प्रसारण सेवा (विनियमन) विधेयक, 2024 के मसौदे को वापस लेने का महत्वपूर्ण फैसला लिया है। केंद्र सरकार ने यह कदम तब उठाया है, जब संसद का मानसून सत्र समाप्त हो गया है और अब देश जल्द ही विधानसभा चुनावों की हलचलों का साक्षी बनने जा रहा है। संसद के हाल में खत्म हुए मानसून सत्र में सरकार ने अपना बजट भी पेश किया था, लेकिन इसी सत्र में वक्फ़ बोर्ड संशोधन अधिनियम सरकार पारित नहीं करवा पाई। विपक्ष ने तो इस विधेयक का विरोध किया ही था, सरकार में शामिल भाजपा के दूसरे साथी दल इस पर सहमत नहीं दिखे और अंतत: यह संसदीय समिति को भेज दिया गया। आसान शब्दों मे कहा जाये तो पिछली लोकसभा की तरह इस बार श्री मोदी अपनी मनमानी नहीं चला सके। प्रसारण सेवा (विनियमन) विधेयक पर भी सरकार ने विपक्ष के साथ संभावित टकराव को महसूस कर लिया था और हो सकता है इसी वजह से इस विधेयक के मसौदे को फिलहाल वापस ले लिया गया है।
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दरअसल यह विधेयक प्रारंभ से ही विवादों में रहा है। इसे अभिव्यक्ति के संविधान प्रदत्त अधिकार को कुचलने की तरह देखा जा रहा था। अपनी मनमानी को पारदर्शिता के आवरण में दिखाते हुए सरकार ने बताया था कि इस विधेयक के मसौदे को हितधारकों और आम जनता की टिप्पणियों के लिए 10 नवंबर 2023 को सार्वजनिक किया गया था। इसका दूसरा मसौदा जुलाई 2024 में तैयार किया गया था। लेकिन विपक्ष ने सरकार पर आरोप लगाए थे कि मसौदे को संसद में रखे जाने से पहले ही इसे कुछ चुनिंदा हितधारकों के बीच चुपके से लीक किया गया। टीएमसी सांसद जवाहर सरकार ने भी राज्यसभा में यह मामला उठाया था। बता दें कि इस प्रस्तावित विधेयक को यू-ट्यूब, इंस्टाग्राम, लिंक्डइन जैसे ऑनलाइन माध्यमों को नियमित करने वाला बताया जा रहा था। लेकिन माना जा रहा था कि यह अधिनियम वैकल्पिक मीडिया के दमन की एक और कोशिश है।
हाल में संपन्न लोकसभा चुनावों के परिणाम आने के बाद कुछेक नामी-गिरामी पत्रकारों ने अपना मंतव्य सामने रखा था कि इस वैकल्पिक मीडिया के कारण श्री मोदी और भाजपा की छवि को धक्का पहुंचा है, क्योंकि मुख्य धारा के समाचार चैनलों में तो भाजपा का ही गुणगान होता रहा, लेकिन जनता ने उसकी जगह वैकल्पिक मीडिया को तरजीह देना शुरु कर दिया। सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्म्स के इन चैनलों पर हो रही सियासी चर्चाओं को करोड़ों दर्शक सुनते रहे। इस वजह से भाजपा को मनमाफ़िक नतीजे नहीं मिले। शायद इसीलिए वैकल्पिक मीडिया पर अंकुश लगाने का प्रयास भाजपा ने किया।
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प्रसारण सेवा (विनियमन) विधेयक के साथ ही डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम, 2023, प्रेस पंजीकरण अधिनियम, 2023 और आईटी संशोधन अधिनियम जैसे कानूनों को भी मीडिया पर शिकंजा कसने वाला बताया जाता रहा है। प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया, इंडियन जर्नलिस्ट यूनियन, दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स, डिजीपब न्यूज़ फाउंडेशन, इंटरनेट फ़्रीडम फाउंडेशन, वर्किंग न्यूज़ कैमरामेन एसोसिएशन, इंडियन वुमेन प्रेस कॉर्प्स, कोगिटो मीडिया फाउंडेशन और मुंबई, कोलकाता, तिरुवनंतपुरम और चंडीगढ़ के प्रेस क्लब ने 28 मई को इस संबंध में बैठक बुलाकर प्रस्तावित कानूनों के खिलाफ विरोध जताया था। हालांकि इस विरोध के बावजूद प्रसारण सेवा (विनियमन) विधेयक के मसौदे को कुछ लोगों के पास टिप्पणियों के लिए भेजा गया था ।
लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इस विधेयक के मसौदे के जिन बिंदुओं पर विवाद था, उन पर अब सरकार क्या रुख़ अपनायेगी। जैसे विधेयक में इंस्टाग्राम इन्फ्लुएंसर्स और यूट्यूबर्स को उनके यूज़र बेस के आधार पर ‘डिजिटल न्यूज़ ब्रॉडकास्टर्स’ में दर्शाया जा रहा था। इसका मतलब ये होता कि इन्फ्लुएंसर्स और यूट्यूबर्स को अपने कंटेंट के लिए सरकार से रजिस्ट्रेशन कराना जरूरी होता। इंडिविजुअल कन्टेंट क्रिएटर्स यानी अकेले अपने वीडियो बनाकर उन्हें प्रसारित करने वाले और डिजिटल पब्लिशर्स का कहना था कि विधेयक के जरिए सरकार उन पर एक तरह से सेंसरशिप लगा रही है। विधेयक में एक प्रावधान टू-टियर सेल्फ रेगुलेशन सिस्टम का भी था। कंटेंट क्रिएटर्स को अन्य बातों के अलावा, कंटेंट को पूर्व-प्रमाणित करने के लिए कंटेंट इवैल्युएशन कमिटी यानी सीईसी गठित करने की आवश्यकता होती। मतलब यह कि यूट्यूब या इंस्टाग्राम पर कुछ भी प्रसारित करने से पहले उसे परखने के लिए एक समिति बनानी जरूरी होगी। बड़े मीडिया समूहों में इस तरह की व्यवस्था हो सकती है, लेकिन जहां अकेले-अकेले वीडियो बनाए जा रहे हों, वहां यह एक नितांत अव्यावहारिक है। इसलिए इस पर भी विरोध हुआ। विधेयक के मसौदे में डेटा के लोकलाइजेशन और यूज़र डेटा का एक्सेस सरकार के पास होने का एक प्रावधान जोड़ा गया था। इसे लेकर हितधारकों का कहना था कि यह प्रावधान निजता का उल्लंघन करेगा। इसके दुरुपयोग की भी आशंका जताई गई।
कुल मिलाकर जिस तरह नोटबंदी और जीएसटी लागू करने के फैसले सरकार ने दूरगामी परिणामों का आकलन किए बिना ले लिए, या तीन कृषि विधेयकों को किसानों पर थोप दिया गया था, कुछ ऐसा ही बर्ताव सरकार ने इस बार भी करने की कोशिश की। हालांकि नोटबंदी और कृषि विधेयकों जैसे फैसलों के वक़्त भाजपा पूर्ण बहुमत में थी और एनडीए की छतरी के बिना भी सरकार चलाने में सक्षम थी। अब माहौल बदल चुका है। इस बार भाजपा 240 सीटों पर सिमटी हुई पार्टी है, उसे जदयू और तेदेपा के साथ मिलकर सरकार चलानी पड़ रही है। विपक्ष पहले से कहीं अधिक मजबूती के साथ लोकसभा में उपस्थित है। जाति जनगणना, अडानी-सेबी प्रकरण, ट्रेनों की दुर्घटनाएं, परीक्षा पेपर लीक, प्राकृतिक आपदाओं में सरकार की अक्षमता, बांग्लादेश में तख़्तापलट और अल्पसंख्यकों की रक्षा, विनेश फोगाट के साथ हुई बेईमानी – ऐसे कई मुद्दे हैं, जिन पर सरकार को जनता के सामने जवाब देना है। विधानसभा चुनावों में इन मुद्दों को कांग्रेस जनता के बीच उठाएगी ही, ऐसे में प्रसारण सेवा (विनियमन) विधेयक के मसौदे को वापस लेकर सरकार ने एक विवाद से खुद को तात्कालिक तौर पर बचा लिया है। लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि नरेन्द्र मोदी के रुख़ में कोई बदलाव आया है। अभिव्यक्ति के अधिकार की रक्षा के लिए अभी सजग और सतर्क बने रहने की जरूरत है।
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अभिव्यक्ति की सुरक्षा के लिए कुछ आवश्यक तत्व
- विविधता और बहुलता का सम्मान- अभिव्यक्ति के अधिकार से विभिन्न विचारधाराओं और संस्कृतियों को प्रकट होने का अवसर मिलता है। यह समाज में बहुलता को बढ़ावा देता है और विभिन्न समुदायों के बीच संवाद स्थापित करने में मदद करता है।
- सरकार की जवाबदेही- जब नागरिक स्वतंत्रता से अपनी राय व्यक्त कर सकते हैं, तो वे सरकार की नीतियों और कार्यों पर सवाल उठा सकते हैं। इससे सरकारों को अपनी जिम्मेदारियों के प्रति जागरूक रहना पड़ता है और वे जनता की अपेक्षाओं के प्रति उत्तरदायी बनती हैं।
- सामाजिक परिवर्तन- अभिव्यक्ति का अधिकार सामाजिक मुद्दों पर चर्चा करने और बदलाव लाने का एक महत्वपूर्ण उपकरण है। जब लोग अपने विचार साझा करते हैं, तो यह सामाजिक न्याय, समानता और मानवाधिकारों के लिए संघर्ष को प्रेरित कर सकता है।
- सूचना का प्रवाह- स्वतंत्र अभिव्यक्ति से पत्रकारिता और मीडिया को भी मजबूती मिलती है। स्वतंत्र मीडिया न केवल सूचनाओं का प्रवाह सुनिश्चित करता है, बल्कि यह सत्ता के खिलाफ एक महत्वपूर्ण चेक भी होता है।
- शिक्षा और जागरूकता- अभिव्यक्ति के अधिकार से नागरिकों को अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूक किया जा सकता है। यह उन्हें सशक्त बनाता है और समाज में शिक्षा के स्तर को ऊँचा उठाता है।
अभिव्यक्ति के अधिकार की रक्षा करना लोकतंत्र की मजबूती के लिए अनिवार्य है। यह न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण करता है, बल्कि समाज में समग्र विकास, न्याय और समानता को भी सुनिश्चित करता है। हमें इस अधिकार की रक्षा करने के लिए सतर्क रहना चाहिए और इसे हर स्तर पर बढ़ावा देना चाहिए। केवल तभी हम एक सशक्त और समृद्ध लोकतंत्र की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।
Nice
माननीय मोदी जी की सरकार को न तो संविधान से सरोकार है और न ही लोकतंत्र से। वे मनुस्मृति के आधार पर शासन स्थापित करना चाहते हैं। बुद्धिजीवी उनके लिए अर्वन नक्सल हैं। …